पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के अर्थ

पंजाब में भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस का विकल्प बनने की स्थिति में थी ही नहीं। उसका बदल अकाली पार्टी ही हो सकती थी। लेकिन आम आदमी पार्टी ने अकाली दल से वह अवसर छीन लिया है। केवल अवसर ही नहीं छीना, बल्कि उसकी हालत कांग्रेस से भी बदतर कर दी है। बादल परिवार के सभी वरिष्ठ/कनिष्ठ सदस्य चुनाव हार गए हैं। प्रकाश सिंह बादल जो जीवन में कभी हारे नहीं और सर्वाधिक बार पंजाब के मुख्यमंत्री रहे, भी ग्यारह हज़ार से भी ज्यादा वोटों से हार गए। उनके सुपुत्र और अकाली दल के प्रधान सुखबीर बादल भी हारे और उनके भतीजे मनप्रीत सिंह बादल, जो कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे थे, भी हार  गए। 1952 से लेकर अब तक के चुनावों में शायद अकाली दल की यह सबसे भयानक शिकस्त है…

उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर के चुनाव परिणामों पर सारे देश की आंखें लगी हुई थी। इसके दो कारण थे। उत्तर प्रदेश हिंदुस्तान का सबसे बड़ा राज्य है। उससे अस्सी सांसद चुने जाते हैं। दूसरे उत्तर प्रदेश का पिछले चार दशकों का रिकार्ड है कि वहां जिस पार्टी का राज होता है, वह दूसरी बार सत्ता से बाहर हो जाती है। इस समय वहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। आंकड़ों और परंपराओं को आधार बना कर विश्लेषण करने वाले माहिर उसी के आधार पर क़यास लगा रहे थे कि उत्तर प्रदेश में सरकार बदल सकती है। शायद सोनिया गांधी ने भी इसी संभावना को देखते हुए अपनी बेटी प्रियंका गांधी को उत्तर प्रदेश के चुनाव में झोंक रखा था। पिछली बार सोनिया गांधी ने अपने बेटे राहुल गांधी को आगे करके यह प्रयोग किया था। उस समय मुलायम सिंह के सुपुत्र अखिलेश यादव भी राहुल के साथ थे। तब माहौल बनाया गया था कि ‘यूपी के लड़के’ चमत्कार करेंगे। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया था। उस प्रयोग के बाद राहुल गांधी को इस बार नेपथ्य में रखा गया और प्रियंका गांधी को सेनापति बनाया गया। उसने ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ की सामग्री से प्रयोग करना चाहा, लेकिन कुल मिला कर उत्तर प्रदेश में सोनिया परिवार के हाथ दो-तीन सीटें ही लगीं। अखिलेश यादव की पार्टी ने मानना पड़ेगा अच्छा प्रदर्शन किया है। बहुत अरसे बाद उत्तर प्रदेश में दो पार्टी सिस्टम विकसित हो रहा है, लेकिन उस सिस्टम में कांग्रेस कहीं नहीं है। न सीटों के मामले में और न ही मत प्रतिशत प्राप्त करने के मामले में।

 भाजपा की जीत ने यह साबित कर दिया है कि यदि सरकार अच्छा काम करे और बहुजन हिताय बहुजन सुखाय को आधार बना कर चले तो उत्तर प्रदेश में जातिगत समीकरण और ध्रुवीकरण को नकारा जा सकता है। पंजाब में पिछले पांच साल से कांग्रेस की सरकार चल रही है। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 117 में से 77 सीटें मिली थीं। इस बार कांग्रेस को हटना ही था, लेकिन सोनिया परिवार ने इस हार से बचने के लिए नया प्रयोग किया। नवजोत सिंह सिद्धू के चक्कर में फंस कर उसने कैप्टन अमरेंद्र सिंह को अपमानित किया। मुख्यमंत्री पद से अपमानजनक तरीके से फारिग किया और पंजाब के सामाजिक ताने-बाने की गहराई से न समझते हुए चरनजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना दिया। पंजाब में यदि इस नए समीकरण के सफल होने की थोड़ी सी भी संभावना होती तो शायद कांशी राम पंजाब छोड़ कर उत्तर प्रदेश का रुख़ न करते। दलित होते हुए भी जिस बात को कांशी राम समझ गए थे, कुछ भी न होते हुए, राहुल गांधी नहीं समझ सके। जिस प्रकार प्रियंका गांधी ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ का टैग लगा कर उत्तर प्रदेश में घूम रही थी, उसी प्रकार चरनजीत सिंह चन्नी का टैग लगा कर उसका भाई राहुल गांधी पंजाब में घूम रहा था। नवजोत सिंह सिद्धू जिस प्रकार सार्वजनिक रूप से चरनजीत सिंह चन्नी का अपमान कर रहा था, उसकी आलोचना कर रहा था, सोनिया परिवार को उसी समय समझ जाना चाहिए था कि चन्नी का टैग पंजाब में चलने वाला नहीं है। लेकिन सोनिया परिवार भारत की सामाजिक संरचना की ये गहरी बातें तब समझ सकता था यदि उसकी ख़ुद की जडें़ भारत की मिट्टी में गहराई से लगी हों। इसलिए उसका जो हश्र हो सकता था, पंजाब में हो गया। ताज्जुब है कि सोनिया परिवार न उत्तर प्रदेश को समझ पाया और न ही पंजाब को। वैसे कहने को तो सोनिया परिवार कह सकता है कि कैप्टन अमरेंद्र सिंह भी हार गए हैं। लेकिन यदि कैप्टन के नेतृत्व में कांग्रेस हारती तो गांव की भाषा में कहा जा सकता था कि चलो इस बार बिजली का कनैक्शन कट गया है, अगली बार जुड़ जाएगा। लेकिन इस बार राहुल गांधी के जिस प्रयोग से कांग्रेस पंजाब में हारी है, उससे पूरा घर ही खंडहर हो गया है।

 इसलिए अगली बार बिजली का कनैक्शन दोबारा लगने की संभावना ही ख़त्म हो गई है। पंजाब में भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस का विकल्प बनने की स्थिति में थी ही नहीं। उसका बदल अकाली पार्टी ही हो सकती थी। लेकिन आम आदमी पार्टी ने अकाली दल से वह अवसर छीन लिया है। केवल अवसर ही नहीं छीना, बल्कि उसकी हालत कांग्रेस से भी बदतर कर दी है। बादल परिवार के सभी वरिष्ठ/कनिष्ठ सदस्य चुनाव हार गए हैं। प्रकाश सिंह बादल जो जीवन में कभी हारे नहीं और सर्वाधिक बार पंजाब के मुख्यमंत्री रहे, भी ग्यारह हज़ार से भी ज्यादा वोटों से हार गए। उनके सुपुत्र और अकाली दल के प्रधान सुखबीर बादल भी हारे और उनके भतीजे मनप्रीत सिंह बादल, जो कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे थे, भी हार  गए। 1952 से लेकर अब तक के चुनावों में शायद अकाली दल की यह सबसे भयानक शिकस्त है। उसे कुल मिला कर छह सीटें मिल सकीं। पंजाब में एक सबसे बड़ा भ्रम किसान आंदोलन के प्रभाव को लेकर था। इसमें कोई शक नहीं कि आंदोलन को कैप्टन अमरेंद्र सिंह की ही शह थी और उसी ने किसान नेताओं को दिल्ली जाकर डेरा लगाने की सलाह और सहायता दी थी। यदि कैप्टन कांग्रेस में रहते तो हो सकता था इस आंदोलन का प्रत्यक्ष या परोक्ष लाभ कांग्रेस को मिल सकता था, लेकिन चन्नी को लेकर नया प्रयोग करने के राहुल गांधी के शौक़ ने ऐसा होने नहीं दिया। किसान आंदोलन के नेताओं चढूनी और राजेवाल और उनके कम्युनिस्ट साथी इतने अरसे बाद भी न पंजाब के मनोविज्ञान को समझ पाए और न ही इसकी संस्कृति को।

 पंजाब दशगुरु परंपरा की विरासत को संभालने वाला प्रदेश है। ये लोग दशगुरु परंपरा के तत्त्व को ग्रहण नहीं कर सके। चुनाव परिणामों ने सिद्ध कर दिया कि यहां उग्राहां, राजेवाल, चढूनी, लक्खी, सिधाना और सिमरनजीत सिंह मान सफल नहीं हो सकते क्योंकि वे दशगुरु परंपरा के मूल तत्त्व से कट चुके हैं। अलबत्ता अकाली दल को जरूर विचार करना चाहिए कि उनके हश्र का क्या कारण हो सकता है? जहां तक पंजाब में भाजपा का प्रश्न है, जो भाजपा के कट्टर समर्थक थे वे भी भाजपा को दस से ज्यादा सीटें देने को तैयार नहीं थे। भाजपा को इस प्रश्न पर गहराई से विचार करना होगा कि वह पंजाब में कांग्रेस या अकाली पार्टी का विकल्प क्यों नहीं बन सकती। दरअसल पंजाब ने इस बार फिर सिद्ध किया है कि पंजाब की राजनीति हिंदू-सिख के साधारण सूत्र से संचालित नहीं होती। पंजाब में हिंदू-सिख का प्रश्न है ही नहीं। जो राजनीतिक दल इसी धरातल पर पंजाब में राजनीतिक महल खड़ा करना चाहेंगे, वे  सफल नहीं हो सकते। रहा प्रश्न मणिपुर और गोवा का, वहां भाजपा ने कार्य किया और उसका फल भी उसे मिला। भाजपा पूर्वोत्तर भारत की राजनीति को वहां की क़बीलाई मानसिकता से निकाल कर उसे समग्र राजनीति का रूप देने का प्रयास कर रही है और यक़ीनन मणिपुर में उसे सफलता मिली है। यही स्थिति गोवा की कही जा सकती है। कुल मिला कर इन चुनाव परिणामों से सोनिया परिवार के हाथ से विपक्षी मंच पर बैठ कर अग्रज होने की भूमिका छिन गई है।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com