संस्कृति के परिचायक ग्रामीण मेले

वर्तमान आधुनिकता, भौतिकवाद तथा उपभोक्तावादी संस्कृति में जीवन के आसमान की ऊंचाइयों को छूने का प्रयास करते हुए गांव के हाट, बाट तथा घराट से भी हमारा परिचय होना चाहिए। गांव की मिट्टी तथा सांस्कृतिक परिवेश से सभी को हमेशा जुड़े रहना चाहिए…

हिमाचल प्रदेश देवी-देवताओं की धरती है। यहां पर आयोजित होने वाले मेले, त्यौहार और उत्सव हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग हैं। मेले हमारे जीवन में हर्ष, आनंद, उमंग, उल्लास, प्रेम, शांति, संतुष्टि तथा खुशियों का संचार करते हैं। इन मेलों से सामाजिक सहयोग, समरसता, सौहार्द तथा भाईचारा बढ़ता है। मेले सांस्कृतिक रूप से सभी को समृद्धि प्रदान करते हैं। पारंपरिक रूप से आयोजित होने वाले हिमाचली मेलों में जहां चंबा का मिंजर मेला, मंडी की शिवरात्रि, कुल्लू का दशहरा, सिरमौर का रेणुका मेला, रामपुर का लवी मेला तथा शिमला का समर फैस्टिवल अपनी अंतरराष्ट्रीय पहचान बना चुके हैं, वहीं पर बिलासपुर तथा सुंदरनगर के नलवाड़ मेले, गुग्गा मेले, सुजानपुर तथा पालमपुर का होली मेला, जयसिंहपुर का दशहरा मेला, बैजनाथ की शिवरात्रि, श्री नैना देवी तथा चिंतपूर्णी माता के मेले, बाबा बालक नाथ मेले, बाबा बड़भाग सिंह मेले, मकर संक्रांति मेले, चैत्र मेले, सायर मेले, लोहड़ी मेले, शूलिनी मेला, हमीरपुर उत्सव, सिप्पी मेला, रोहड़ू मेला, छतराड़ी मेला, धर्मशाला का धुम्मू शाह मेला, मणिमहेश मेला, त्रिलोकपुर मेला, लदार्चा मेला, फुलाइच मेला, पिपल जातरा मेला, लखदाता तथा पीर-फकीरों के नाम पर छिंज मेले कई स्थानों पर आयोजित होने वाले ग्रीष्मोत्सव जि़ला स्तरीय, प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर पर अपना स्थान बना चुके हैं।

 ग्रामीण मेले हमारी संस्कृति के परिचायक होते हैं। इन मेलों में हमारी परंपरागत संस्कृति के दर्शन होते  हैं। मेलों की पृष्ठभूमि आमतौर पर समाजिक मान्यताओं, देवी-देवताओं की पूजा, कृषि पृष्ठभूमि, पशु-संस्कृति, धार्मिक आस्था, त्योहार या ऋतु परिवर्तन पर ही आधारित हुआ करती है। ये मेले प्रायः धार्मिक या पवित्र स्थलों पर ही आयोजित किए जाते हैं। वर्तमान में उपमंडल स्तरीय, जि़ला स्तरीय, प्रदेश स्तरीय, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मेलों के आयोजन हो रहे हैं। इनका आयोजन ग्राम पंचायत, नगर समिति, नगर परिषद, जि़ला प्रशासन या फिर राज्य स्तरीय कमेटियों तथा सांस्कृतिक विभागों द्वारा किया जाता है। आज हम आधुनिकता की चकाचौंध में अपने पारंपरिक परिधानों, आभूषणों, खान-पान, मेलों, त्योहारों, बोलियों, लोक कथाओं, लोकनृत्यों, लोक वाद्यों तथा  लोक संस्कारों को भूल रहे हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से यह कोई अच्छा संकेत नहीं है। आज आवश्यकता है नई पीढ़ी को  अपनी संस्कृति की जड़ों से जोड़ने की ताकि वे अपना अतीत न भूलें। ग्रामीण मेलों की विशेषता यह भी है कि ये गांव के लोगों की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। ग्रामीण मेलों में आमतौर पर कृषि से संबंधित उपकरण तथा पालतू पशुओं का बाज़ार एक आवश्यक विशेषता है।

 ग्रामीण स्तर के मेलों में स्थानीय उत्पादों, कपड़ों, जूतों, औजारों, मिट्टी एवं बांस के बर्तनों तथा खाद्य पदार्थों की बिक्री होती है। इन मेलों में खानपान तथा जलेबी, पकौड़े, चाट-पापड़ी, आलू-छोले तथा मिठाइयों की दुकानों का अपना ही आनंद होता है। गांवों के शिल्पकारों का ग्रामीण हस्तशिल्प तथा जीवन यापन के लिए निर्मित स्थानीय उत्पाद लोगों में बिक्री का आकर्षण रहते हैं। कपड़े, खिलौने, कृषि औजार, बांस एवं मिट्टी के बर्तन तथा अनेक प्रकार के हिंडोले, मनोरंजक साधन सभी का मन मोह लेते हैं। इन मेलों में प्रत्येक आयु वर्ग का व्यक्ति सभी प्रकार की मनोरंजक गतिविधियों में भाग लेकर बिना किसी संकोच या शर्म से अपने बचपन का आनंद लेता है। इन मेलों में ग्रामीण खेलों तथा कुश्ती का विशेष आकर्षण रहता है। जहां  कुश्तियों के दंगल ग्रामीण खेलों से लोगों को आनंदित करते हैं, वहीं पर इन कुश्तियों की पृष्ठभूमि में पीरों-फकीरों से मुराद पूरी होने की खुशी जताने की आस्था को भी प्रकट करते हैं। ग्रामीण मेलों में युवा कुश्ती के दांवपेंच तथा शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन करते हैं जिन्हें युवा तथा वृद्ध सभी पसंद करते हैं। इन मेलों में बहुत सी चीजें जो बाज़ारों में उपलब्ध होती हैं उन्हें भी ग्रामीण क्षेत्रों के निवासी खरीदते हैं। महिलाएं दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाली वस्तुएं, कपड़े तथा सज्जा-सजावट की वस्तुएं खरीदने में रुचि दिखाती हैं। इन मेलों में बच्चे खेल-खिलौने खरीद कर विभिन्न हिंडोले झूलने का आनंद लेते हैं। वार्षिक मेलों के आयोजन में छोटी-मोटी रेहड़ी-फड़ी तथा फेरी लगाने वालों की अच्छी आय हो जाती है। मेले हमारे समाजीकरण में अच्छी भूमिका निभाते हैं। इस बहाने लोगों का मिलना-जुलना हो जाता है। पूर्व में तो लड़के-लड़की का प्रेम प्रसंग, मिलन तथा शादी के लिए परिजनों की देख-दिखाई भी इन मेलों में ही हो जाता था। मेलों पर आधारित नायक-नायिका द्वारा दिए गए आमंत्रण, प्रेम-प्रसंग, सामाजिकरण तथा आनंद उल्लास, मस्ती से भरपूर कई लोकगीत आज भी सुनने को मिलते हैं।

 पुराने समय में सड़कों तथा यातायात के साधन नहीं थे। उस समय ग्रामीण मेले आम लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बहुत उपयोगी थे। वर्तमान भौतिकवादी एवं उपभोक्तावादी संस्कृति में ग्रामीण मेलों का महत्त्व  दिन-प्रतिदिन कम हो रहा है। आजकल परंपरागत मेलों में आधुनिकता का बोलबाला हो गया है जिसका कारण वर्तमान शिक्षा, संचार माध्यम, टीवी संस्कृति, मोबाइल, आधुनिक जीवन शैली तथा पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव है। आज ग्रामीण मेलों में जाना हम अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। अपनी ग्रामीण परंपराओं, रीति-रिवाज़ों, लोक विधाओं तथा लोक संस्कृति को जीवित रखने के लिए इन मेलों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। वर्तमान में हम जितनी भी उन्नति या तरक्की कर लें, दुनिया के किसी कोने में चले जाएं, हम कितने भी आधुनिक तथा भौतिकवादी बन जाएं, हम सभी का आधार एवं पृष्ठभूमि ग्रामीण ही है। वर्तमान आधुनिकता, भौतिकवाद तथा उपभोक्तावादी संस्कृति में जीवन के आसमान की ऊंचाइयों को छूने का प्रयास करते हुए गांव के हाट, बाट तथा घराट से भी हमारा परिचय होना चाहिए। गांव की मिट्टी तथा सांस्कृतिक परिवेश से सभी को हमेशा जुड़े रहना चाहिए। कोरोना जैसी महामारी तथा रूस तथा यूक्रेन के युद्ध में हम सभी ने प्रत्यक्ष रूप से देख लिया कि हम दुनिया में कहीं की उड़ान भी भर लें, आखिर संकट जैसी विशेष परिस्थिति में अपने घर की चारदीवारी गांव की मिट्टी और आब-ओ-हवा में ही हम अपने आप को सुरक्षित पाते हैं। हमें अपनी संस्कृति पर गर्व महसूस करना चाहिए तथा जीवन पथ पर आगे बढ़ते हुए अपने अतीत को हमेशा याद रखना चाहिए।

प्रो. सुरेश शर्मा

लेखक घुमारवीं से हैं