फिल्मों में वैचारिक द्वंद्व

हालांकि फिल्म निर्माता सुधीर मिश्रा एक साक्षात्कार में इस बात से इंकार करते हैं कि यह वैचारिक फिल्म है। लेकिन साथ ही वह यह भी मानते हैं कि इस फिल्म में नक्सलवादियों के प्रति समर्थन है। नक्सलवादी जिस ढंग से हिंसा करते हैं, गला रेत कर हत्या करते हैं, जिस वर्ग की लड़ाई लडऩे का दावा करते हैं, उससे स्वाभाविक ही लोगों की नक्सलवादियों के प्रति गलत धारणा तैयार होती है। ऐसा सिनेमा बनाते समय नक्सलवादी समर्थक होने के आरोप लगने के साथ-साथ विश्वसनीयता पर सवाल उठने की संभावना रहती है। इस कारण फिल्म में इक्का-दुक्का सीन ऐसे भी रहते हैं जिसमें माओवादियों को गलत भी दिखाया जाता है। यह विश्लेषण बताता है कि फिल्मों पर एक विशेष वैचारिकी का प्रभाव काफी अरसे पहले से बना हुआ है। अब लगता है कि उस एकतरफा प्रभाव को चुनौती मिलने लगी है। इससे फिल्में वैचारिक दृष्टि से अधिक संतुलित होंगी और वे समाज को अधिक संतुलित होने में मदद करेंगी…

फिल्म दि कश्मीर फाइल्स के सिनेमाघरों में आने के बाद फिल्म और विचारधारा को लेकर एक नई बहस प्रारंभ हुई है। कई फिल्म विशेषज्ञों ने यह आरोप लगाया कि यह फिल्म एक विशेष वैचारिकी का प्रतिनिधित्व करती है। जबकि फिल्म इतिहास पर कार्य करने वाले अधिकांश लोग दशकों से यह स्वीकार करते रहे हैं कि भारत में फिल्मों के जरिए एक खास विचारधारा को आगे बढ़ाया जाता रहा है। माओवाद और नक्सलवाद के संदर्भ में यदि भारतीय फिल्मों का विश्लेषण किया जाए तो यह तथ्य अधिक स्पष्ट होकर हमारे सामने आता है। मीडिया विशेषकर सिनेमा का युवाओं पर बहुत अधिक प्रभाव रहता है। उम्र के अनुसार सिनेमा युवा वर्ग के मन को प्रभावित करता है। सिनेमा से प्रभावित होकर युवा सिनेमा के नायकों से सीख व प्रेरणा लेते हैं। यदि फिल्म में कहीं अन्याय व अव्यवस्था का चित्रण किया जाता है और कोई उसके खिलाफ आवाज उठाता है तो युवा उस चरित्र से प्रेरणा लेते हैं। माओवाद के विचारों को युवाओं तक पहुंचाने में फिल्मों ने एक बड़ी भूमिका निभाई है। भारत में हिंदी से लेकर विभिन्न भारतीय भाषाओं में ऐसी फिल्में बनाई गईं, जिनमें देश की व्यवस्था की खामियों को दर्शाया गया तथा इसका एकमात्र विकल्प माओवाद यह भी दिखाया गया है।

माओवादियों को राबिन हुड की तरह चित्रित किया गया। प्रसिद्ध उपन्यासकार महाश्वेता देवी के उपन्यास पर बनी फिल्म ‘हजार चौरासी की मां भी एक इसी तरह की फिल्म है। इस फिल्म में 1960-70 के दशक में बंगाल में चल रहे नक्सलवादी आंदोलन की पृष्ठभूमि में बनाया गया है। फिल्म में सुजाता नाम की एक महिला को एक दिन अचानक पुलिस उन्हें सूचित करती है कि उनका बेटा मारा गया! रोते पिटते पुलिस के पास पहुंचे सुजाता व उनके पति अपने बेटे की लाश पहचानने पहुंचते हैं। ये एक दुर्घटना अचानक उनका परिचय ही बदल देती है! अपने नाम से जाने जाने वाले लोग अचानक एक लाश के मां-बाप हो जाते हैं। सुजाता एक पल में ही ‘1084 की मां हो जाती है। पुलिस उन्हें बताती है कि उनका बेटा एक नक्सली था और पुलिस मुडभेड़ में मारा गया है। इसके इर्द गिर्द फिल्म घूमती है। फिल्म की समीक्षा करने वाले एक समीक्षक पंकज ने लिखा है कि इस फिल्म को एक ग्लैमरस छवि प्रदान करने की कोशिश की गई है। उनका मानना है कि माक्र्सवाद की विचारधारा को लेकर नक्सलवाद आगे बढ़ती है और इस फिल्म के माध्यम से उसे भी प्रतिपादित किया गया है। हजार चौरासी की मां फिल्म में एक ऐसी स्थिति का चित्रण कर बताने की कोशिश की गई है कि नक्सलवाद आंदोलन ही समाज का एकमात्र विकल्प है। इस फिल्म में कितना नक्सलवाद के विचारों का समर्थन है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि नेपाल में माओवादियों के आंदोलन के बाद काठमांडो शहर में इस फिल्म को एक आडिटोरियम में प्रदर्शन किया गया। नेपाल की माओवादी पार्टी के उप प्रमुख बाबूराम भट्टराई की पुत्री मानुषी भट्टराई ने कहा कि निहलानी की फिल्म से वह जुड़ाव महसूस करती हैं।

पश्चिम बंगाल के नक्सलवादी आंदोलन व उस समय की परिस्थिति को दर्शाते हुए सत्यजीत राय ने एक फिल्म का निर्माण किया था। प्रतिद्वंद्वी नामक इस फिल्म में नक्सलवाद की राह पर चलने वाले व्यक्ति को साहसी व अपने सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्ध के रूप में प्रस्तुत किया गया था। उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था कि प्रतिद्वंद्वी सिनेमा में आप मेरा दृष्टिकोण देख सकते हैं जहां पर दो भाई हैं। छोटा भाई नक्सलवादी है। इसमें कोई शक नहीं है, बड़े भाई अपने छोटे भाई की उसका साहस व प्रतिबद्धता के लिए प्रशंसा करता है। फिल्म हजार ख्वाइसें ऐसी भी फिल्म में भी नक्सलवाद का चित्रण किया गया है। इस फिल्म के जरिए नक्सलवाद विषय को हिंदी सिनेमा के चर्चा के मध्य में लाने की कोशिश की है। 1969 से 1977 तक की स्थिति को लेकर इसमें चित्रण किया गया है। हालांकि फिल्म निर्माता सुधीर मिश्रा एक साक्षात्कार में इस बात से इंकार करते हैं कि यह वैचारिक फिल्म है। लेकिन साथ ही वह यह भी मानते हैं कि इस फिल्म में नक्सलवादियों के प्रति समर्थन है। नक्सलवादी जिस ढंग से हिंसा करते हैं, गला रेत कर हत्या करते हैं, जिस वर्ग की लड़ाई लडऩे का दावा करते हैं, उससे स्वाभाविक ही लोगों की नक्सलवादियों के प्रति गलत धारणा तैयार होती है। ऐसी सिनेमा बनाते समय नक्सलवादी समर्थक होने के आरोप लगने के साथ-साथ विश्वसनीयता पर सवाल उठने की संभावना रहती है। इस कारण फिल्म में इक्का-दुक्का सीन ऐसे भी रहते हैं जिसमें माओवादियों को गलत भी दिखाया जाता है। यह विश्लेषण बताता है कि फिल्मों पर एक विशेष वैचारिकी का प्रभाव काफी अरसे पहले से बना हुआ है। अब लगता है कि उस एकतरफा प्रभाव को चुनौती मिलने लगी है। इससे फिल्में वैचारिक दृष्टि से अधिक संतुलित होंगी और वे समाज को अधिक संतुलित होने में मदद करेंगी। खून-खराबा करने वाले लोगों को अगर समाज के समक्ष आदर्श के रूप में पेश किया जाएगा, तो जनता, खासकर युवा पीढ़ी उसी रास्ते पर चलने लग जाएगी। इससे समाज में तनाव व संघर्ष और बढ़ेगा। इसलिए इस तरह की विचार विशेष पर आधारित फिल्मों को चुनौती मिलनी ही चाहिए। इससे सिनेमा सकारात्मकता की ओर बढ़ेगा। तब सिनेमा का अनुकरण समाज के लिए हानिप्रद नहीं रहेगा। अकसर देखा गया है कि सिनेमा में हिंसक दृश्यों को देखकर युवक भी उसी रास्ते पर चलने लग जाते हैं। फिल्मों में हिंसा को ग्लोरीफाई नहीं किया जाना चाहिए। फिल्में सीधे युवा वर्ग को प्रभावित करती हैं।

जो रास्ते फिल्मों में दिखाए जाते हैं, उन्हीं रास्तों पर युवा पीढ़ी चलने लग जाती है। इससे समाज में हिंसा बढ़ती है। हिंसा किसी समस्या का समाधान भी नहीं है। गांधी जी ने भी कहा है कि हिंसा के जरिए प्राप्त किया गया लक्ष्य हिंसा को ही प्रोत्साहित करता है। तभी तो उन्होंने हिंसा के जरिए आजादी प्राप्त करने को उचित नहीं माना, बल्कि अहिंसा के जरिए आजादी हासिल करने की बात कही और उसी पर जीवनभर चलते रहे। हिंसा के जरिए स्थापित किए गए समाज का लक्ष्य भी हिंसा फैलाना ही होता है। अत: अहिंसा ही सही मार्ग है। इसलिए फिल्मों को अहिंसा को अपनाना चाहिए। अगर फिल्में हिंसा को ग्लोरीफाई करना छोड़ देंगी, तो युवा वर्ग के कल्याण के लिए यह अति उत्तम होगा।

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कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार