पर्यावरणीय संकट व वर्तमान विकास मॉडल

जिस तरह की उत्पादन की तकनीक स्वचालन और कृत्रिम-बुद्धि के द्वारा विकसित की जा रही है, उससे केंद्रीकरण को बढ़ावा मिल रहा है और कामगारों की जरूरत कम होती जा रही है। इससे बेरोजगारी बढ़ते ही जाने की संभावना बढ़ेगी। राजनीतिक तौर पर कोई इस तरह के बुनियादी सवालों से उलझना ही नहीं चाहता है। जो भी विकास का मॉडल दुनिया भर में प्रचलित है, उसी को अपनाया जा रहा है। यहां तक कि दक्षिणपंथ और वामपंथ सभी एक ही तरह की तकनीकी को अपना रहे हैं…

मनुष्य समाज जैसे-जैसे विकास की सीढि़यां चढ़ रहा है, वैसे-वैसे ज्ञान का भी विस्तार हो रहा है। ज्ञान के विस्तार के साथ विकास के नए-नए आयाम खुल रहे हैं। या यूं कहें कि विकास और ज्ञान अन्योन्याश्रित हैं। फिर भी एक सवाल तो रह ही जाता है कि विकास जनित ज्ञान या ज्ञान जनित विकास? जब जब विकास जनित ज्ञान के मार्गदर्शन में आगे बढ़ेंगे, एकांगी होने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी, क्योंकि विकास वस्तुओं, सेवाओं और ढांचागत निर्माणों से जुड़ा होता है, जिसमें तात्कालिक समस्याओं और अपेक्षाओं से निपटना प्राथमिकता होती है। विकास का तंत्र किसके हाथ में है, इसका भी बहुत असर होता है, जिसके चलते निहित स्वार्थों का खेल चल निकलता है। फिर जिंदगी के लिए अत्यंत जरूरी हवा, पानी, मिट्टी जैसे बुनियादी तत्वों से, वस्तुएं, सेवाएं और ढांचे ज्यादा जरूरी हो जाते हैं जिनके निर्माण के लिए बुनियादी तत्वों की भेंट चढ़ाने तक से कोई संकोच नहीं होता है। इसका परिणाम वर्तमान विकसित समाज के रूप में प्रकट होता है, जहां सुविधाओं का अंबार लगता जा रहा है, किंतु हवा सांस लेने योग्य बचेगी या नहीं, इस बात की कोई गारंटी नहीं है। पीने योग्य या सिंचाई योग्य पानी बचेगा या नहीं, इस बात की कोई गारंटी नहीं है। पेट की भूख मिटाने योग्य उपजाऊ मिट्टी बचेगी या नहीं, कह नहीं सकते। मिट्टी गंवा कर उपज बढ़ाने का ज्ञान नाक गंवा कर लौंग बचाने जैसा ही है। ग्लेशियर से आने वाला शुद्ध जल 2050 आते-आते खत्म हो जाएगा। ऐसे जल संकट से कैसे निपटेंगे? हवाओं में छोड़ा जा रहा कई तरह की जहरीली गैसों का धुआं सांस लेने योग्य शुद्ध वायु कहां छोड़ने वाला है। इन्हीं गैसों के चलते होने वाले वैश्विक तापमान वृद्धि से जलवायु परिवर्तन के आसन्न खतरे से निपटने के सारे प्रयास आधे-अधूरे साबित होने की दिशा में बढ़ रहे हैं और हम तापमान वृद्धि को औद्योगिक क्रांति के स्तर से 2.5 डिग्री के भीतर रोक पाने के लिए अनमने संघर्ष में उलझे दिख रहे हैं। प्लास्टिक कचरा धरती को कचरा बनाने पर तुला है। सारे प्रयास अधूरे लग रहे हैं, क्योंकि विकास का अर्थ तो बाहुल्य हो गया है। जितना ज्यादा उपभोग उतना बड़ा इनसान। बड़ा तो सबको बनना है। उपभोग बढ़ेगा तो कचरा भी बढ़ेगा। क्या किया जा सकता है। इस तरह के बहाने हमने बना लिए हैं।

 इस बाहुल्यवादी विकास ने अंतरराष्ट्रीय संघर्षों को भी भयानक रूप दे दिया है। अब लाठी डंडे से निपटने वाले संघर्ष एटम बम तक आ गए हैं। दुनिया के सबसे उत्कृष्ट वैज्ञानिकों का बड़ा हिस्सा युद्ध विज्ञान के विकास में जुटा है। इस निराशाजनक स्थिति में प्रकाश की किरण ज्ञान जनित विकास की समझ से कार्यरत प्रक्रियाओं में दृष्टिगोचर हो रही है। जहां लोग सोच रहे हैं कि विकास की अंधी दौड़ में फंसने के बजाय विकास को टिकाऊ बनाना ज्यादा जरूरी है। टिकाऊ विकास का अर्थ है कि जो सुख-सुविधा हम भोग रहे हैं, वह हमारी आने वाली पीढि़यां भी भोग सकें। यानी उन सुविधाओं को पैदा कर सकने वाले संसाधन तब तक बचे रह सकें। ऐसा तभी हो सकता है जब ह्म प्रकृति के संतुलन को बना कर रखने के तरीकों को समझ कर विकास की दिशाएं तय कर सकें। जीव जगत का आरंभ वनस्पति से हुआ है। वनस्पति  के द्वारा ही अन्य जीव जगत को फलने-फूलने के साधन मिल सके हैं। इसलिए इस बुनियादी जीवन को बचाना विकास के टिकाऊपन का पहला आधार होगा। जो मिट्टी बनाने से लेकर धरती से भोजन अलग करके सबका पेट भरने का कार्य कर रहा है। मिट्टी बचेगी तो भोजन की सुरक्षा सुनिश्चित होगी। मिट्टी का, अधिक उपज लेने के लिए दोहन भी इस तरह किया जाए कि उसका उपजाऊपन बना रहे। केवल अधिक उपज के लिए खेती करना और अधिक उपज के साथ-साथ मिट्टी के उपजाऊपन को बचाए रखना दो अलग-अलग सोच की पद्धतियां हैं। दूसरी टिकाऊ विकास के लिए सही है। सभी उत्पादक प्रक्रियाओं में इस दृष्टि से कार्य करना ही उचित होगा। ऊर्जा विकास की गाड़ी को चलाने के लिए जरूरी है। ऊर्जा उत्पादन का अधिकांश कार्य कोयले और खनिज तेल से किया जा रहा है, जिनसे निकलने वाला धुआं वैश्विक तापमान वृद्धि का कारण है।

 कैसे हम धुआं रहित ऊर्जा बनाने की दिशा में बढ़ें? बड़े बांधों से बनाई जाने वाली जल विद्युत भी बांधों से मीथेन गैस के उत्सर्जन का कारण बनती है जो तापमान वृद्धि का कारण बनती है। जल विद्युत का उत्पादन वोरटेक्स, काइनेटिक और अति-सूक्ष्म एवं पीको तकनीक से केंद्रीकृत के बजाय विकेंद्रीकृत स्तर पर किया जाए तो अधिक टिकाऊ साबित हो सकता है। जहां भी हवा, पानी और भोजन पर दीर्घ कालीन  खतरा दिखे, वहां उचित विकल्प की तलाश पहले करने के बाद ही आगे बढ़ना चाहिए। जिस तरह की उत्पादन की तकनीक स्वचालन और कृत्रिम-बुद्धि के द्वारा विकसित की जा रही है, उससे केंद्रीकरण को बढ़ावा मिल रहा है और कामगारों की जरूरत कम होती जा रही है। इससे बेरोजगारी बढ़ते ही जाने की संभावना बढ़ेगी। राजनीतिक तौर पर कोई इस तरह के बुनियादी सवालों से उलझना ही नहीं चाहता है। जो भी विकास का मॉडल दुनिया भर में प्रचलित है, उसी को अपनाया जा रहा है। यहां तक कि दक्षिणपंथ और वामपंथ सभी एक ही तरह की तकनीकी को अपना कर अपने को अलग दिखाने का निरर्थक प्रयास करते रहते हैं। इससे एक ओर जहां टिकाऊ विकास खतरे में है और जीवन के लिए बुनियादी तत्व हवा, पानी, भोजन ही खतरे में पड़ गए हैं, वहां गरीब और अमीर के बीच की खाई और गहरी होती जा रही है। यह आर्थिक असमानता देशों के अंदर लगातार अशांति का कारण बनती है और अंतर्देशीय स्तर पर अनावश्यक युद्धों को जन्म देती है। ऐसे में मनुष्य की मुख्य आकांक्षाएं सुखी, शांत और समृद्ध जीवन जीने की कभी पूरी नहीं हो सकती। हमें आशा करनी चाहिए कि वैश्विक स्तर पर इन चुनौतियों का सामना करने के योग्य बनने की दिशा में हम बढ़ सकें।

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान