जज की टिप्पणी पर बढ़ता विवाद

जब मुसलमानों ने हज़रत मोहम्मद के ही नवासों को कर्बला के मैदान में घेर लिया था और उन्हें अमानुषिक यातनाएं देकर मार दिया था, तब उन बेचारों ने कौनसी ऐसी क्रिया कर दी थी जिसकी प्रतिक्रिया में उन्हें मौत के घाट उतारा जा रहा था? उनका कसूर केवल इतना ही था कि वे मुसलमान शासकों द्वारा आम जनता पर किए जा रहे अत्याचारों का विरोध कर रहे थे। लेकिन अरब इतिहासकार तो आज भी उनके बारे में प्रचारित करते हैं कि वे सत्ता या ख़लीफा होने के लिए लड़ रहे थे, जबकि हज़रत हुसैन न्याय के पक्ष में लड़ रहे थे, न कि दुनियावी सत्ता के लिए। बहुत कम लोगों को पता होगा कि उस समय भी भारत के लोग, मोहियाल ब्राह्मण, हज़रत हुसैन के पक्ष में लड़े थे। नूपुर शर्मा के बयान के बहाने देश में अराजकता फैलाने वाले तत्त्वों पर नकेल कसनी चाहिए, न कि नूपुर शर्मा को बलि का बकरा बना कर यथार्थ से आंख मूंद लेनी चाहिए…

उच्चतम न्यायालय की वरिष्ठ वकील नूपुर शर्मा के एक बयान पर पिछले कुछ दिनों से देश भर में बहस शुरू हो गई थी। किसी टीवी डिबेंचरों में उन्होंने इस्लाम पंथ के कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को उद्धृत किया था, जिसे इस्लाम पंथ में आस्था रखने वालों ने आपत्तिजनक माना और उस पर बहस शुरू कर दी। किसी विषय पर बहस होना कोई बुरी बात नहीं है। भारत की तो परंपरा ही संवाद व बहस की है। लेकिन इस्लाम की पूजा पद्धति में विश्वास रखने वाले कुछ लोगों ने बहस की बजाय नूपुर शर्मा और उसके समर्थकों को मार देने की धमकियां ही नहीं दीं बल्कि महाराष्ट्र के अमरावती और राजस्थान के उदयपुर में दो लोगों की अमानुषिक तरीके से हत्या ही कर दी। अब्राहमी मज़हबों में संवाद व बहस की अनुमति नहीं है। लेकिन भारत में रहने वाले मुसलमान, जो अब्राहमी मज़हबों की परंपराओं को अपना चुके हैं, अब धीरे-धीरे अपनी मूल परंपराओं से परे हटते जा रहे हैं। उन्होंने भी मजहब के साथ-साथ अब्राहमी अरबी परंपराओं को जीना शुरू कर दिया है। यही कारण है कि नूपुर शर्मा की टिप्पणी से उत्तेजित होकर उन्होंने दो निर्दोष लोगों की हत्या कर दी। इतना ही नहीं, इस्लाम में विश्वास करने वालों ने नूपुर शर्मा के खिलाफ अलग-अलग हिस्सों में आपराधिक मामले दर्ज करवाने शुरू कर दिए।

सामान्य प्राकृतिक न्याय के अनुसार यदि मान भी लिया जाए कि नूपुर शर्मा ने सचमुच ही अपराध किया है तो उसके खिलाफ एक ही अपराध के लिए पचास जगह मुक़द्दमा तो नहीं चल सकता। इसलिए नूपुर शर्मा उच्चतम न्यायालय में यह प्रार्थना लेकर पहुंची कि एक ही घटना को लेकर उसके खिलाफ देश के विभिन्न न्यायालयों में जो मुक़द्दमे चल रहे हैं, उनको एक जगह स्थानांतरित कर दिया जाए। ऐसे केस न्यायालय में पहले भी आते रहते हैं। नूपुर शर्मा की प्रार्थना यह नहीं थी कि उसके बयान को लेकर जो मुक़द्दमे दर्ज हुए हैं, उनको रोक दिया जाए। वह स्वयं भी जानती हैं कि उसका निर्णय तो संबंधित न्यायालय गुण-दोष के आधार पर ही करेगा। उसका तो केवल यही कहना था कि उन्हें एक जगह स्थानांतरित कर दिया जाए। नूपुर शर्मा ने जाने-माने पत्रकार अर्नब गोस्वामी का उदाहरण भी बताया। गोस्वामी पर भी देश के अलग-अलग हिस्सों में, एक ही घटना को लेकर, अनेक मुक़द्दमे दर्ज हो गए थे। तब न्यायालय ने गोस्वामी के खिलाफ दर्ज सभी मुक़द्दमे एक जगह स्थानांतरित कर दिए थे। जहां तक नूपुर शर्मा की प्रार्थना का ताल्लुक़ था, उसका निपटारा तो न्यायालय ने कर दिया। न्यायालय ने कहा कि वे अपनी यह प्रार्थना उचित न्यायालय में प्रस्तुत करें। इस पर नूपुर शर्मा ने अपनी प्रार्थना न्यायालय से वापस ले ली। क़ायदे से तो मामला यहीं ख़त्म हो जाना चाहिए था। लेकिन तब बैंच पर बैठे न्यायाधीश महोदय ने भी इस मामले पर अपनी टिप्पणियां देनी शुरु कर दीं। उनका कहना था कि नूपुर शर्मा के बयान ने देश भर में आग लगा दी है। उसे सत्ता का अहंकार हो गया है। उसके बयान की प्रतिक्रिया में लोग मारे जा रहे हैं।

 ज़ाहिर है माननीय न्यायाधीश  की इन बेवजह टिप्पणियों से सन्नाटा छा गया। नूपुर शर्मा न्यायालय में अपने पर लगे आरोपों का गुण-दोष के आधार पर निपटारा करवाने के लिए उच्चतम  न्यायालय में नहीं गई थीं। वे तो एक तकनीकी मुद्दे पर न्यायालय में खड़ी थीं और उसका निपटारा न्यायालय कर चुका था। फिर इन एकतरफा टिप्पणियां करने की क्या जरूरत थी? कहा जा सकता है कि न्यायाधीश की ये टिप्पणियां जजमैंट का हिस्सा नहीं थीं, इसलिए इनकी कोई वैधानिक क़ीमत नहीं थी। लेकिन वैधानिक क़ीमत न होने के कारण ही ये टिप्पणियां चिंता का विषय बनीं। यदि ये टिप्पणियां जजमैंट का हिस्सा होतीं तो यक़ीनन इनके खिलाफ अपील की जाती। लेकिन क्योंकि ये जजमैंट का हिस्सा नहीं हैं, इसलिए इनके खिलाफ अपील भी नहीं हो सकती। आज का युग केवल प्रिंट मीडिया का नहीं है, बल्कि डिजिटल मीडिया का है। इसलिए अल्पकाल में ही माननीय न्यायाधीश की टिप्पणियां सारे देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी फैल गईं। भाव कुछ ऐसा गया कि उदयपुर व अमरावती में हत्या करने वालों ने प्रतिक्रिया में आकर हत्याएं की हैं और प्रतिक्रिया का यह अवसर नूपुर शर्मा ने प्रदान किया है। न्यायाधीशों को ऐसी टिप्पणियां करने से बचना चाहिए। उसका एक अन्य कारण भी है। उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश के आसन पर बैठा जब कोई व्यक्ति कुछ भी कहता है, चाहे वह जजमैंट का हिस्सा न ही हो, देश के लोगों के लिए उसी क़ीमत भी जजमैंट के बराबर ही होती है। आखिर सबसे ऊंची कचहरी के जज ने कहा है, इसलिए ग़लत थोड़ा हो सकता है। इससे निचली अदालतों में चल रहे मामलों के प्रभावित होने का ख़तरा पैदा हो जाता है। जैसे मीडिया ट्रायल मुक़द्दमे को प्रभावित कर सकता है, उसी प्रकार आसन पर बैठ कर, जजमैंट से बाहर रखकर की गई टिप्पणियां भी मुक़द्दमे को प्रभावित कर सकती हैं। इसे टिप्पणी ट्रायल कहा जा सकता है। मीडिया ट्रायल की तरह टिप्पणी ट्रायल से भी बचना चाहिए।

 वैसे अमरावती व उदयपुर की हत्याएं प्रतिक्रिया में आकर की गई हैं और उसके लिए नूपुर शर्मा को दोषी  करार देना, जाने-अनजाने यथास्थिति से मुंह मोड़ना भी होगा। जब अरबों ने ईरान को जीत लिया था, तो वहां से भाग कर जो लोग हिंदुस्तान में आ गए थे, उन्होंने तो इस्लाम के किसी महापुरुष या ख़लीफा के खिलाफ कोई टिप्पणी नहीं की थी। फिर भी उनको इरान से प्रतिक्रिया के चलते अपना देश छोड़ना पड़ा था। जब मुसलमानों ने हज़रत मोहम्मद के ही नवासों को कर्बला के मैदान में घेर लिया था और उन्हें अमानुषिक यातनाएं देकर मार दिया था, तब उन बेचारों ने कौनसी ऐसी क्रिया कर दी थी जिसकी प्रतिक्रिया में उन्हें मौत के घाट उतारा जा रहा था? उनका कसूर केवल इतना ही था कि वे मुसलमान शासकों द्वारा आम जनता पर किए जा रहे अत्याचारों का विरोध कर रहे थे। लेकिन अरब इतिहासकार तो आज भी उनके बारे में प्रचारित करते हैं कि वे सत्ता या ख़लीफा होने के लिए लड़ रहे थे, जबकि हज़रत हुसैन न्याय के पक्ष में लड़ रहे थे, न कि दुनियावी सत्ता के लिए। बहुत कम लोगों को पता होगा कि उस समय भी भारत के लोग, मोहियाल ब्राह्मण, हज़रत हुसैन के पक्ष में लड़े थे। नूपुर शर्मा के बयान के बहाने देश में अराजकता फैलाने वाले तत्त्वों पर नकेल कसनी चाहिए, न कि नूपुर शर्मा को बलि का बकरा बना कर यथार्थ से आंख मूंद लेनी चाहिए।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com