हाइफा के फातिम भारतीय शूरवीरों को नमन

14 मई 1948 को वजूद में आए इजराइल को भारत सरकार ने 17 मई 1950 को स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता दे दी थी, मगर इजराइल की सरजमीं पर भारतीय शूरवीरों ने 23 सितंबर 1918 को हाइफा को फतह करके सल्तनत, उस्मानियां की चार सौ वर्षों की हुक्मरानी का सूर्यास्त कर दिया था। इजराइल का पहला स्वतंत्र शहर हाइफा ही था…

‘हम जल्द ही यरूशलम में मिलेंगे’- सैकड़ों वर्षों तक बेघर होकर विस्थापन का दर्दनाक दंश झेलने वाले इजराइल के लोग हिजरत के भयानक दौर में अपने समुदाय के लोगों को पत्र लिखते समय अंत में इस तहरीर का जिक्र जरूर करते थे। वतनपरस्ती से सराबोर ये अल्फाज इजराइली लोगों के अपने राष्ट्र के प्रति प्रखर जज्बात को जाहिर करते हैं। जंगी जुनून में जीने वाला इजराइल राष्ट्रवाद की प्रतिबद्धता से ही दुश्मन देशों के खिलाफ जंग के महाज पर हमेशा फातिम के किरदार में रहा है। 23 सितंबर का दिन इजराइल ‘हाइफा दिवस’ के तौर पर मनाता है। इस ऐतिहासिक दिवस का सीधा संबंध भारतीय सेना से जुड़ा है। पहली जंगे अजीम (1914-1918) में भारत के लाखों सैनिक ब्रिटिश इंडियन आर्मी का हिस्सा बनकर कई देशों में युद्ध लड़ रहे थे। इजराइल के समुद्र तटीय शहर ‘हाइफा’ पर तुर्की की ‘ओटोमन’ रियासत चार सौ वर्षों से कब्जा जमाए बैठी थी। पहली जंगे अजीम में तुर्की ने ब्रिटेन के खिलाफ जर्मनी व आस्ट्रिया की सेनाओं का साथ दिया था। अत: ब्रिटिश हुकूमत ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही हाइफा को तुर्कों की गुलामी से आज़ाद कराने की तजवीज को अंजाम दे दिया था। अंग्रेजों ने उस सैन्य अभियान के लिए भारत की मैसूर, हैदराबाद व जोधपुर रियासतों की घुड़सवार सेनाओं को चुना था। उन तीनों रियासतों की सेनाएं ब्रिगेडियर ‘एडमंड एलेनबाई’ की कयादत में ‘15वीं इंपीरियल सर्विस कैवलरी ब्रिगेड’ का हिस्सा बनकर हाइफा के सैन्य मिशन पर निकली थीं, मगर अंग्रेज सैन्य अधिकारी उस वक्त मायूस हुए जब उन्हें सूचना मिली कि हाइफा के महाज पर तुर्क सेनाएं 77 एम. एम. बदूकों, मशीनगनों व तोप जैसे आधुनिक हथियारों के साथ तैनात हैं। अलबत्ता अंग्रेजों ने भारत की रियासती सेनाओं को वापस बुलाने का आदेश जारी कर दिया। लेकिन अंग्रेजों के उस फैसले पर जोधपुर रियासत के सिपाहसालार मेजर ‘दलपत सिंह शेखावत’ ने कड़ा एतराज जाहिर करके राजपूतों की गौरवशाली युद्ध परंपराओं व शूरवीरता की तहजीब का हवाला देकर यह दलील दी कि राजपूतों का युद्ध से वापस लौटने का रिवाज नहीं है। रणभूमि में ‘विजय या वीरगति’ ही क्षत्रियों का धर्म होता है।

‘हीरो ऑफ हाइफा’ मेजर दलपत सिंह शेखावत ने हाइफा के जंगे मैदान में तुर्कों की किलेबंदी को ध्वस्त करके रणक्षेत्र में ही शहादत को गले लगाकर अपनी उस तहरीर को सच साबित कर दिया था। हाइफा की भीषण जंग में तुर्कों को शमशीरों से काटकर जोधपुर रियासत के 44 अन्य शूरवीर राजपूतों ने भी अपना बलिदान दिया था। हाइफा युद्ध में असीम शौर्य पराक्रम लिए बलिदानी योद्धा मे. दलपत सिंह शेखावत, कै. अनूप सिंह व ले. सागत सिंह को ‘मिलिट्री क्रास’ पदक से नवाजा गया था। कै. अमान सिंह व दफादार जोर सिंह को ‘इंडियन आर्डर ऑफ मेरिट’ जैसे आलातरीन सैन्य एजाज से सरफराज किया गया था। ज्ञात रहे हाइफा पर सैन्य कार्रवाई के लिए अंग्रेजों ने जोधपुर की बेहतरीन घुड़सवार सेना को ही चुना था। मैसूर की सेना ने ‘माऊंट कार्मल’ पर हमला किया था तथा हैदराबाद की सेना को तुर्की, जर्मनी व ऑट्रिस्या के 1350 युद्धबंदियों की देखरेख का जिम्मा सौंपा गया था। हाइफा युद्ध में भारतीय योद्धाओं के रणकौशल से मुतासिर होकर बर्तानिया हुकूमत ने सन् 1922 को दिल्ली में ‘फ्लैग स्टाफ हाउस’ बंगले के साथ भारत की तीनों रियासती सेनाओं के बेमिसाल शौर्य के प्रतीक ‘तीनमूर्ति स्मारक’ को तामीर करवाया था। जनवरी 2018 में इजराइली प्रधानमंत्री के भारत दौरे के समय भारत सरकार ने त्रिमूर्ति चौक का नाम ‘तीन मूर्ति हाइफा चौक’ कर दिया था। इजराइल की आजादी की शमां हाइफा के जंगे मैदान में अफरोज करने वाले भारतीय सपूतों की शूरवीरता को इजराइल के शिक्षा पाठ्यक्रम में पूरी अकीदत से पढ़ाया जाता है, मगर अफसोस कि अत्याधुनिक हथियारों से लैस तुर्क सेना को अपनी तलवारों से हलाक करके तुर्की के खलीफा की हनक को खाक में मिलाकर हाइफा को आजाद कराने वाले जोधपुर के राजपूत सूरमाओं का भारत के इतिहास में कहीं जिक्र तक नहीं हुआ। राष्ट्र के स्वाभिमान के लिए लडऩे वाला कोई भी योद्धा रणभूमि में नहीं मरता, वो तब मरता है जब अपने देश का इतिहास उसे भुलाता है। बर्तानिया बादशाही के दौर में भारतीय सैनिकों ने इजराइल के पक्ष में कई युद्ध लड़े थे, जिनमें 960 के करीब भारतीय सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए थे। इजराइल के हाइफा, रमल्लाह, यरूशलम व ख्यात शहरों में भारत के बलिदानी सैनिकों की समाधियां आज भी उनके शौर्य को बयान करती हैं। हर देश अपनी सेना व सुरक्षा एजेंसियों पर गर्व महसूस करता है। इजराइल ने अपने नागरिकों के लिए सैन्य प्रशिक्षण व सैन्य सेवा को अनिवार्य किया है। वजूद में आते ही इजराइल दहशतगर्दी व मजहबी क_रवाद की उल्फत में डूबे मुल्कों से पूरी शिद्दत से जद्दोजहद कर रहा है।

दिसंबर 1949 में वजूद में आई इजराइल की राष्ट्रीय खुफिया एजेंसी ‘मोसाद’ गुप्त सैन्य मिशन को अंजाम देने में दुनिया की सबसे खुंखार खुफिया एजेंसी के रूप में विख्यात है। सन् 1972 के ‘म्युनिख’ ओलंपिक में आतंकियों ने इजराइल के ग्यारह खिलाडिय़ों की हत्या कर दी थी। मोसाद ने ‘रैथ ऑफ गॉड’ नामक ऑपरेशन के जरिए सभी हत्यारों को जहन्नुम भेजकर इजराइली खिलाडिय़ों की मौत का इंतकाम पूरा किया था। 27 जून 1976 को युगांडा के ‘एंतेबे’ हवाई अड्डे पर बंधक बनाए गए इजराइल के 94 नागरिकों को मोसाद ने ‘थंडर बोल्ट’ नामक गुप्त सैन्य मिशन के तहत सुरक्षित छुड़ा लिया था। 14 मई 1948 को वजूद में आए इजराइल को भारत सरकार ने 17 मई 1950 को स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता दे दी थी, मगर इजराइल की सरजमीं पर भारतीय शूरवीरों ने 23 सितंबर 1918 को हाइफा को फतह करके सल्तनत, उस्मानियां की चार सौ वर्षों की हुक्मरानी का सूर्यास्त कर दिया था। इजराइल का पहला स्वतंत्र शहर हाइफा ही था। हाइफा की फतह ने ही इजराइल को आजादी की असल राह दिखाई थी, जिसका पहला सफहा हिंदोस्तान के रणबांकुरों ने अपने बलिदान से लिखा था। हाइफा दिवस पर भारत का इकबाल बुलंद करने वाले हाइफा के फातिम योद्धाओं का स्मरण होना चाहिए।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं