पश्चिमी तहजीब के साए में जुर्म की दस्तक

जघन्य अपराधों के बढ़ते ग्राफ से देश की तमाम व्यवस्थाओं पर सवाल खड़े हो रहे हैं। यौन उत्पीडऩ, धर्मांतरण तथा लव जिहाद जैसी साजिश के चलते महिलाशक्ति के हकूक देश के संविधान तक ही सीमित रह चुके हैं। देश के हुक्मरान महिला सशक्तिकरण की दुहाई जरूर देते हैं, मगर वास्तव में स्थिति कुछ और ही है….

अनादिकाल से भारतीय नारीशक्ति सनातन संस्कृति व परंपराओं की ध्वजवाहक भी रही है। वर्तमान में देश की प्रशासनिक सेवाओं से लेकर ‘यूएनओ’ के मंच तक महिलाएं भारत का नेतृत्व कर रहीं हैं। जंगी जहाजों की परवाज से आसमान की बुंलदियों को छू रही हंै। अंतरराष्ट्रीय खेलों में भारत का परचम लहरा रही हैं। सदियों पूर्व भारत में प्रभावती गुप्त, रानी दिद्दा, कोटारानी, रुद्रमा देवी जैसी कुशल शासिकाओं ने अपने उत्कृष्ट सैन्य नेतृत्व की मिसाल कायम की थी। अपनी शमशीरों से मुगल सेनाओं का हलक सुखाने वाली ताराबाई भौंसले, गौंडवाना की दुर्गावती चंदेल व अहिल्याबाई होल्कर जैसी वीरांगनाओं ने रणभूमि में महिला सशक्तिकरण की ऐतिहासिक नजीर कायम की थी। बर्तानिया हुकूमत के खिलाफ बगावत को अंजाम देने वाली तुलसीपुर की रानी ‘ईश्वर कुमारी’, जालौन रियासत की ‘तेजबाई’, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, रामगढ़ रियासत की ‘अवंतिबाई लोधी’, हिमाचल की मंडी रियासत की ‘रानी खैरीगढ़ी’, पूर्वाचल की ‘तलाश कुंवरी’, शिवगंगा की ‘वेलुनचियार’ व रानी तपस्विनी तथा शिवदेवी तोमर जैसी सैंकड़ों वीरांगनाओं ने देश के स्वाभिमान के लिए निडरता से जंग लड़ी थी। दुनिया का फातिम बनने का ख्वाब देखने वाले ‘सिकंदर’ को युद्ध के लिए ललकार कर उसकी सेना को खदेडऩे वाली कठ गणराज्य की राजकुमारी ‘कार्विका’ तथा पुर्तगालियों को धूल चटाने वाली ‘अब्बका चौटा’ भी इसी भारत में हुई थी। अपनी खड्ग के वार से मुगल आक्रांता मोहम्मद गौरी को युद्धभूमि से बेआबरू करके भगाने वाली शूरवीर क्षत्राणी ‘नायिकी देवी सोलंकी’ भी इसी हिंदोस्तान में हुई थी। देश की उन बहादुर वीरांगनाओं ने शत्रु के समक्ष आत्मसमर्पण के बजाय रणभूमि में तलवारों से दुश्मन को हलाक करके शहादत को गले लगा लिया, मगर मैदाने जंग में शिकस्त को तस्लीम नहीं किया।

भावार्थ यह है कि सैन्य संचालन में भी शक्तिशाली किरदार भारतीय वीरांगनाओं ने ही अदा किया है, मगर विडंबना यह है कि करोड़ों महिलाओं के लिए प्रेरणा व आदर्श की मिसाल रही भारत की महान वीरांगनाएं देश के शिक्षा इतिहास में गुमनाम हो गई। आजादी के बाद शिक्षा वजारत पर आसीन होने वाले हुक्मरानों की शिक्षा नीतियां इसके लिए जिम्मेदार हैं। रही सही कसर बॉलीवुड ने पूरी कर दी। सनातन संस्कृति के धर्मग्रंथों में नारीशक्ति को सैद्धांतिक रूप से ‘देवी’ व ‘मां’ के रूप में दर्शाया गया है। वैदिक काल से चले आ रहे नवरात्र पर्व में ‘कन्या पूजन’ का विधान है। लेकिन अंग्रेजी शिक्षा के बढ़ते वर्चस्व ने देश के युवावर्ग को भारतीय संस्कृति के बुनियादी सरोकारों तथा मर्यादाओं से दूर कर दिया। पश्चिमी तहजीब का प्रभाव भारतीय रीति रिवाजों, धर्म व शिष्टाचार आदि पर साफ दिखाई देता है। वैदिक काल में गौतम वंशीय महर्षि ‘श्वेतकेतु’ ने विवाह जैसे मुकद्दस संस्कार की परंपरा शुरू की थी। प्राचीन में भारतवर्ष की महान विदुषी ‘सूर्या सावित्री’ ने वैदिक विवाह के ‘सुक्त मंत्र’ रच डाले थे। वर्तमान में यही मंत्र सनातन विवाह पद्धति के अभिन्न अंग बन चुके हैं, मगर विवाह संस्कार का मसौदा तैयार करने वाले ऋषि ‘श्वेतकेतु’ तथा ‘सुवर्चला’ व ‘सूर्या सावित्री’ जैसी महान ऋषिकाओं के देश भारत में युवा पीढ़ी आधुनिकता के खुमार में ‘लिव इन रिलेशनशिप’ जैसे बेमुरब्बत फिरंगी कल्चर में जीने को आमादा है।

पश्चिमी तहजीब के साए में जुर्म की दस्तक से महिलाएं खौफ के साए में जीने को मजबूर हैं। इजहार-ए-मोहब्बत की मुखालफत में महिलाओं के बेरहमी से कत्ल हो रहे हैं। जघन्य अपराधों के बढ़ते ग्राफ से देश की तमाम व्यवस्थाओं पर सवाल खड़े हो रहे हैं। यौन उत्पीडऩ, धर्मांतरण तथा लव जिहाद जैसी साजिश के चलते महिलाशक्ति के हकूक देश के संविधान तक ही सीमित रह चुके हैं। देश के हुक्मरान महिला सशक्तिकरण की दुहाई जरूर देते हैं। महिला दिवस व बालिका दिवस जैसे कई समारोहों का आयोजन किया जाता है, मगर मुल्क की आधी आबादी की हैसियत रखने वाली नारीशक्ति अपने घरों में भी महफूज नहीं है। ‘नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो’ के अनुसार देश के कई शहर महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं हैं। बालिकाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए देश की अदालतों में ‘जुवेनाइल जस्टिस एक्ट’ व ‘पोक्सो एक्ट’ जैसे कानून वजूद में आ चुके हैं, मगर प्रत्येक नागरिक या महिला अदालतों के चक्कर लगाकर कानूनी लड़ाई लडऩे में समर्थ नहीं है। सियासी रसूख के आगे संवैधानिक व प्रशासनिक व्यवस्था भी पंगु साबित हो रही है। जांच एजेंसियों के आला ओहदों पर तैनात अहलकारों की कारकदर्गी सवालों के घेरे में रहती है। देश का हर सियासी रहनुमां जम्हुरियत के शिखर पर बैठने को बेताब है मगर आम लोगों की आवाज जम्हुरियत का चौथा स्तम्भ ‘सहाफत’ उठा रहा है।

अपराधियों को भी जाति, मजहब व सियासी जमात से जोडक़र देखा जाता है। संगीन वारदातों में शामिल गुनाहगारों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की मांग होने लगती है, मगर प्रश्न यह है कि जो अपराधी कानून को दरकिनार करके अमानवीय कृत्यों को बेखौफ होकर अंजाम देते हैं, उनके खिलाफ कानून के अलावा अन्य विकल्प तलाशने की जरूरत है। स्मरण रहे नारी अस्मिता व स्वाभिमान की रक्षा के लिए प्रभु श्रीराम ने ‘स्वर्णपुरी लंका’ का दहन करके उसे खाक में मिलाकर वहां ‘सूर्यवंश’ की पताका फहरा दी थी। अत: बालिकाओं की हत्या पर कैंडल लेकर विरोध करना हमारी संस्कृति नहीं है। बहरहाल उल्फत के नाम पर गुनाह का तनाजुर पैदा करने वाली ‘लिव इन रिलेशनशिप’ जैसी मगरिब की बेगैरत तहजीब गैर कानूनी घोषित होनी चाहिए। शासकों को समझना होगा कि इंसानियत को शर्मिंदा करने वाली हैवानियत को अंजाम देने वाले कातिलों को जेलों में रखने से अपराधों पर लगाम नहीं लगेगी। कत्ल व दुष्कर्म जैसे संगीन जुर्म में मुल्लविस क्रूर चेहरों को सेना की तर्ज पर ‘ऑपरेशन ऑल आउट’ जैसे मिशन के तहत जहन्नुम की परवाज पर भेजने के पुख्ता इंतजाम होने चाहिए। गुनाह को जन्म देने वाली जहरीली तालीम की जहनियत पर राष्ट्रवाद का हंटर चलना जरूरी है ताकि मजलूमों पर कोई सितम करने की हिमाकत न कर सके। भारतीय संस्कृति के प्रति नजरिया सकारात्मक हो।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं