‘बुनियादी संरचना सिद्धांत’ संविधान के दोष दूर नहीं करता

आज बुनियादी संरचना को न्यायपालिका एक ढाल के रूप में इस्तेमाल कर रही है क्योंकि संविधान न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए उपयुक्त व्यवस्था उपलब्ध करवाने में असफल रहा है। ‘बुनियादी संरचना सिद्धांत,’ या ऐसा कोई भी अस्पष्ट नियम, संविधान में नहीं होना चाहिए। एक संविधान का मुख्य कार्य सरकारी संस्थाओं के ढांचे और शक्तियों को परिभाषित करने में स्पष्ट व सटीक होना है। समय आ गया है कि भारत के संविधान को भी ऐसा करने के लिए ठीक किया जाए…

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने 11 जनवरी को संविधान के ‘बुनियादी संरचना सिद्धांत’ (Basic Structure Doctrine) की वैधता पर प्रश्न उठाया। यह डॉक्ट्रिन एक अलिखित नियम है कि संसद संविधान की कुछ बुनियादी विशेषताओं को परिवर्तित नहीं कर सकती। धनखड़ ने तर्क दिया कि देश का प्रधान निर्वाचित निकाय होने के नाते संसद सर्वोच्च है और इसकी संविधान परिवर्तन की शक्तियां कम नहीं की जा सकतीं।

भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने 22 जनवरी को जवाब देते हुए कहा कि पूर्व न्यायिक निर्णयों पर आधारित ‘बुनियादी संरचना सिद्धांत’ संविधान की ‘आत्मा’ बचाए रखने के लिए आवश्यक है। ये दोनों ही मोर्चे अपुष्ट, अपनाने में अव्यावहारिक, और अविवेचित हैं। ‘बुनियादी संरचना सिद्धांत’ पर लड़ाई के बजाय भारत के संवैधानिक अधिकारी इस विवाद की जड़ – दोषपूर्ण संविधान – का परीक्षण कर देश का अधिक भला कर सकते हैं।

यदि धनखड़ का दृष्टिकोण मानें, तो संसद संविधान की आधारभूत विशेषताओं, जैसे कि शक्तियों का पृथ्थकरण या संवैधानिक अधिकारों में बदलाव कर सकती है। संविधान का अनुच्छेद 368 जो संशोधन प्रक्रिया को स्पष्ट करता है, के अनुसार, ‘‘संसद की संविधान निर्माण की शक्ति पर कोई रोक नहीं होनी चाहिए।’’ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के 42वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया यह अनुच्छेद अभी भी संविधान में है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने इसे 1980 में अमान्य ठहराया था।

अगर चंद्रचूड़ की चले, तो एक अनिर्वाचित निकाय यानी सुप्रीम कोर्ट किसी भी संशोधन को असुविधाजनक पाए जाने पर अस्वीकृत कर सकता है। इसने संसद द्वारा सर्वसम्मति से पारित 99वें संशोधन अधिनियम के साथ वर्ष 2014 में ठीक यही किया था। इस अधिनियम से ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्तियां आयोग’ की स्थापना होती। इससे न्यायाधीशों की तैनाती में सरकार की भूमिका बढ़ती और वर्तमान कॉलेजियम व्यवस्था जो वरिष्ठ न्यायाधीशों को बिना सार्वजनिक समीक्षा नियुक्तियों की अनुमति देती है, वह बदल जाती।

‘बुनियादी संरचना सिद्धांत’ यह भी कहता है कि भारतीयों की एक पीढ़ी भविष्य की समस्त पीढिय़ों के हाथ बांध सकती है। जबकि इसमें कोई संदेह नहीं कि संविधान सर्वोच्च है और संसद इसे पैरों तले नहीं रौंद सकती, पर यह भी सच्चाई है कि संविधान एक ‘जीवित दस्तावेज’ है। जैसा कि अमरीका के निर्माताओं में एक, थॉमस जेफरसन, ने लिखा: ‘‘कुछ व्यक्ति संविधान को पूज्य सम्मान देते हैं और इतना पवित्र मानते हैं कि इसे छुआ भी न जाए। वे गुजरे समय के व्यक्तियों की बुद्धिमता को आज के लोगों की समझ से अधिक श्रेय देते हैं, और मानते हैं कि वे जो कर गए उसमें संशोधन नहीं हो सकता।’’ भारत के निर्माताओं का भी यही मानना था। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा कि उन्होंने जिस संविधान के निर्माण में मदद की वह केवल ‘‘आगामी कार्य का आधार’’ था। वल्लभभाई पटेल ने स्पष्ट कहा, ‘‘यह संविधान केवल 10 वर्ष के अंतराल के लिए है।’’

‘बुनियादी संरचना सिद्धांत’ की एक और समस्या है कि यह दोषपूर्ण रूप से परिभाषित है। सर्वाधिक मान्य बुनियादी विशेषताएं केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य सरकार के मामले में 1973 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में न्यायमूर्ति सिकरी द्वारा बताई गई पांच विशेषताएं हैं: संविधान का प्रभुत्व, गणतंत्रवादी और लोकतांत्रिक सरकार, धर्मनिरपेक्षता, संघवाद, और शक्तियों का पृथ्थकरण। इस निर्णय में पीठ ने 7-6 के साधारण बहुमत से कहा कि संसद संविधान को संशोधित तो कर सकती है, पर इसकी बुनियादी संरचना को बदल नहीं सकती।

परंतु इन विशेषताओं पर एक राय नहीं है। कोई बहुमत का निर्णय समस्त बुनियादी विशेषताएं सामने नहीं रखता। न्यायाधीशों ने अपनी व्यक्तिगत पसंद पर कई विशेषताएं विभिन्न प्रकार से, जैसे ‘‘बुनियादी विशेषताएं,’’ ‘‘तत्त्व’’, ‘‘ढांचा’’ या ‘‘चरित्र’’ के रूप में पेश की हैं। कुछ उदाहरणों पर गौर करें कि न्यायाधीशों ने संविधान के विषय में क्या-क्या अपरिवर्तनीय माना है: ‘‘एक कल्याणकारी राज्य,’’ ‘‘स्थिति और अवसर की समानता,’’ ‘‘एक समानाधिकारवादी समाज,’’ ‘‘बुनियादीभूत अधिकारों और निर्देशक सिद्धांतों के मध्य संतुलन,’’ और ‘‘समाजवाद’’।

यहां तक कि केशवानंद केस में प्रगणित पांच बुनियादी विशेषताओं में भी समस्या है, क्योंकि वे खराब तरीके से परिभाषित हैं। उदाहरणस्वरूप, ‘‘शक्तियों का पृथ्थकरण’’ स्पष्ट रूप से नहीं बताता कि इसे हासिल कैसे करना है। मैं पहले भी लिख चुका हूं कि क्योंकि भारत की संसदीय प्रणाली कार्यकारी और विधायी शक्तियों को एक अधिकारी को सौंपती है, इसलिए सख्त पृथ्थकरण उपलब्ध करवाने वाली अमरीकी राष्ट्रपति प्रणाली इस मूल विशेषता के लिए अधिक सही होगी। इसी प्रकार, एक अन्य मूल विशेषता, ‘‘संविधान का संघीय चरित्र,’’ स्वतंत्र राज्य सरकारों वाली अमरीका-सदृश व्यवस्था के साथ ज्यादा ठीक बैठती है। न्यायमूर्ति सिकरी की विशेषताओं की सूची में, ‘‘संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र’’ संरचनात्मक है ही नहीं, क्योंकि इसके लिए कई कानून बनाने की आवश्यकता है।

भारत में ‘बुनियादी संरचना सिद्धांंत’ की आवश्यकता इसलिए महसूस हुई कि भारतीय संविधान उपयुक्त संस्थागत क्रम, शक्तियों का निरूपण, और नियंत्रणों व संतुलनों को स्पष्ट रूप से बताने में असफल रहा है।

इन उदाहरणों पर विचार करें: राष्ट्रपति सर्वोच्च पदाधिकारी है, परंतु संविधान उन्हें प्रधानमंत्री के अधीन बनाता है। शक्तियां केंद्र व राज्य सरकारों के मध्य विभाजित हैं, परंतु 50 से अधिक विषय समवर्ती सूची में हैं जिससे दोनों सरकारें जिम्मेदारी से पल्लू झाड़ सकती हैं। संसद के पास विधायी निरीक्षण का अधिकार है, परंतु दलबदल विरोधी कानूनों के तहत संविधान सरकार को बहुमत की गारंटी देता है।

स्वयं ‘बुनियादी संरचना सिद्धांत’ पहली बार 1967 में गोलक नाथ केस में लागू किया गया था। कारण था न्यायिक समीक्षा की शक्ति के प्रति संविधान की अस्पष्टता। यह मामला मूल अधिकारों को संशोधित करने की संसद की शक्तियों से संबंधित था। आज बुनियादी संरचना को न्यायपालिका एक ढाल के रूप में इस्तेमाल कर रही है क्योंकि संविधान न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए उपयुक्त व्यवस्था उपलब्ध करवाने में असफल रहा है।

‘बुनियादी संरचना सिद्धांत,’ या ऐसा कोई भी अस्पष्ट नियम, संविधान में नहीं होना चाहिए। एक संविधान का मुख्य कार्य सरकारी संस्थाओं के ढांचे और शक्तियों को परिभाषित करने में स्पष्ट व सटीक होना है। समय आ गया है कि भारत के संविधान को भी ऐसा करने के लिए ठीक किया जाए।

अंग्रेजी में स्क्रॉल डॉट इन में प्रकाशित (5 मार्च, 2023)

भानु धमीजा

सीएमडी, दिव्य हिमाचल