किस्सा अमृतपाल का

हैरत की बात यह है कि आम आदमी पार्टी की सरकार मूसेवाला की निर्मम हत्या के बाद भी गैंगस्टरों पर काबू नहीं पा सकी। उसके पिता ने सार्वजनिक रूप से नाम लेकर कुछ लोगों के नाम लिए लेकिन सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगी। सरकार के इस व्यवहार से आम आदमी पार्टी पर ही इस मामले को लेकर शक की सुई घूमने लगी कि कहीं यह पार्टी इस हत्या का किसी न किसी प्रकार से राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश तो नहीं कर रही? सरकार की इस अकर्मण्यता से दुखी बलकौर सिंह से अमृतपाल सिंह के लोगों ने भी यदि सम्पर्क कर लिया हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सिद्धू मूसेवाला की बरसी पर उसके माता-पिता की बातों से यही लगता था कि सरकार यदि कुछ नहीं करती तो वे कहां जाएं? इतिहास गवाह है कि ऐसे मौके पर गैंग आशा बंधाने चले जाते हैं। लेकिन इस प्रश्न का उत्तर तो भगवंत सिंह मान को देना ही होगा कि क्या पुलिस में से ही किसी ने अमृतपाल सिंह को चलाने वालों को पुलिस के अभियान की ख़बर दे दी थी? फिलहाल जांच-पड़ताल के बाद इस पूरे षड्यंत्र की जितनी परतें खुलती जा रही हैं, उससे इतना तो पता चलता ही है कि पंजाब में इस अभियान का आधार नहीं है…

अमृतपाल सिंह के किस्से का पटाक्षेप अभी तक नहीं हुआ है। यानी वह अभी तक पुलिस की गिरफ़्त से बाहर है। कहा जा रहा है कि पुलिस उसे ढूंढ रही है। इसमें तो कोई संशय नहीं कि देर-सवेर वह पकड़ में आ ही जाएगा। कहा जा रहा है कि अमृतपाल सिंह जिस समय दुबई में वाहन चलाने का काम कर रहा था तभी वह विदेशी एजेंसियों की पकड़ में आ गया था। अमृतपाल सिंह के व्यवहार, चाल-ढाल और भाषा से अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि विदेशी एजेंसियों ने उसे प्रशिक्षित करने में काफी समय खपाया है। लेकिन एक प्रश्न सहज ही उठाया जा सकता है कि कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि यदि यह काम विदेशी एजेंसियों का ही होता तो वे कनाडा-अमेरिका से किसी अच्छे पढ़े लिखे व्यक्ति पर दांव लगातीं। दरअसल पंजाब में इन विदेशी एजेंसियों ने पंजाब में जिस काम को अंजाम देना है, उसके लिए ग्रामीण पृष्ठभूमि का कोई अर्ध शिक्षित रस्टिक व्यक्तित्व का व्यक्ति ही उपयोगी हो सकता है। उस ढांचे में अमृतपाल सिंह ही फिट बैठ सकता था। इस आन्दोलन में विदेशी एजेंसियां चाहती हैं कि उन द्वारा निर्माण किए गए हीरो के पीछे गांव के उस युवा को जोडऩा है जो एडवेंचरिजम से जल्दी प्रभावित हो जाता हो। अच्छी तरह प्रशिक्षित अमृतपाल सिंह ही इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त हो सकता था। लेकिन असली प्रश्न यह है कि जब कुछ विदेशी एजेंसियां इस सारे अभियान में लगी हुईं थीं, उस समय इसकी भनक हमारी एजेंसियों को क्यों नहीं लगी? आखिर यह सारा प्रशिक्षण और रणनीति कुछ महीनों में तो बनी नहीं होगी।

एक बात और आश्चर्यचकित करती है कि अमृतपाल सिंह को कवरिंग फायर प्रदान करने के लिए बुद्धिजीवियों का एक पूरा गिरोह योजनाबद्ध तरीके से काम कर रहा था। अमृतपाल सिंह के भाषणों की तार्किक व्याख्या कर उसे अकादमिक रूप में पेश करना उसी गिरोह का काम था जो उसने बखूबी निभाया और निभा रहा है । इस बार अमृतपाल सिंह और उसको पंजाब के मैदान में उतारने वाले लोगों ने इस बात का ध्यान रखा कि सारा खेल जन कल्याण के नाम पर खेला जाए। यही कारण है कि अभियान नशा मुक्ति केन्द्रों के आवरण में ही छेड़ा गया। इन केन्द्रों को धार्मिक स्थानों से संचालित किया गया। लेकिन समय रहते अमृतपाल सिंह ने अपने सारे अभियान का बाटम लाईन खुद ही स्पष्ट कर दी थी कि मैं अपने आप को भारतीय नागरिक नहीं मानता हूं। उसका आभामंडल स्थापित करने के लिए सार्वजनिक रूप से हथियारों का प्रदर्शन करते हुए, एक जत्था निरंतर साथ चलता रहता था। इससे आम जनता में यह भ्रम फैलता है कि सरकार स्वयं ही इस नए समूह से भयभीत रहती है। सरकार के इस रवैए से नौकरशाही संकेत ग्रहण करती है। इसका उदाहरण तो सामने है ही। पंजाब के मुख्य सचिव ने मुख्यमंत्री के आचरण और भाषा से संकेत लेते हुए प्रधानमंत्री की सुरक्षा से ही समझौता कर लिया था। जो नौकरशाही अपने स्वार्थ के लिए प्रधानमंत्री की सुरक्षा से खिलवाड़ कर सकती है, उसके लिए आम पंजाबियों की सुरक्षा भला क्या मायना रखती होगी। जो लोग अमृतपाल सिंह को आगे करके सारा खेल खेल रहे थे, उनकी रणनीति में एक ऐसा पत्ता भी था जिसके चलते ‘चित्त भी मेरी और पट भी मेरी’ वाला मामला बनता था। अजनाला में वह खेल उन्होंने श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी की पालकी को आगे करते किया। अजनाला थाने पर कब्जा करने का यह सारा प्रकरण इसी पद्धति से हुआ। पुलिस गोली चला देती तो बेअदबी का मामला बनता था। इस काम के लिए पुलिस को उत्तेजित भी किया गया। यदि पुलिस इसके बाद भी उत्तेजित नहीं होती तब थाने पर कब्जा तो पक्का ही था । दोनों स्थितियों में लाभ यह सारी व्यूह रचना करने वालों को ही होता और ऐसा हुआ भी। सिद्धू मूसेवाला की हत्या के मामले से उनके परिवार में उपजी निराशा और आम जनता में उत्पन्न भय को ‘वारिस पंजाब दे’ के साथ जोड़ कर एक नई लहर उत्पन्न करने का गहरा षड्यन्त्र था।

हैरत की बात यह है कि आम आदमी पार्टी की सरकार मूसेवाला की निर्मम हत्या के बाद भी गैंगस्टरों पर काबू नहीं पा सकी। उसके पिता ने सार्वजनिक रूप से नाम लेकर कुछ लोगों के नाम लिए लेकिन सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगी। सरकार के इस व्यवहार से आम आदमी पार्टी पर ही इस मामले को लेकर शक की सुई घूमने लगी कि कहीं यह पार्टी इस हत्या का किसी न किसी प्रकार से राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश तो नहीं कर रही? सरकार की इस अकर्मण्यता से दुखी बलकौर सिंह से अमृतपाल सिंह के लोगों ने भी यदि सम्पर्क कर लिया हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सिद्धू मूसेवाला की बरसी पर उसके माता-पिता की बातों से यही लगता था कि सरकार यदि कुछ नहीं करती तो वे कहां जाएं? इतिहास गवाह है कि ऐसे मौके पर गैंग आशा बंधाने चले जाते हैं। लेकिन इस प्रश्न का उत्तर तो भगवन्त सिंह मान को देना ही होगा कि क्या पुलिस में से ही किसी ने अमृतपाल सिंह को चलाने वालों को पुलिस के अभियान की ख़बर दे दी थी? फिलहाल जांच पड़ताल के बाद इस पूरे षड्यन्त्र की जितनी परतें खुलती जा रही हैं, उससे इतना तो पता चलता ही है कि पंजाब में इस अभियान का आधार नहीं है। विदेशों से संचालित गिरोह, विदेश से ही ज्यादा हलचल कर रहा है। भारत सरकार को यह तो पूछना ही चाहिए कि अमेरिका, कनाडा व लंदन की सरकारें इस अभियान को हवा क्यों दे रही हैं? यह राजनयिक शिष्टाचार व नियमों के खिलाफ है। पाकिस्तान को भी चेतावनी दी जानी चाहिए। अमृतपाल के संबंध पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई से बताए गए हैं। पाकिस्तान भारत में आतंकवादी गतिविधियों को प्रोत्साहन देता रहा है। इसलिए इस बार उसे कड़ी चेतावनी दी जाए। पंजाब के सीमावर्ती जिलों में पक्के सुरक्षा बंदोबस्त करने होंगे। हमें किसी आतंकवादी घटना का इंतजार करने के बजाय पहले से ही कड़े सुरक्षा प्रबंध करने हैं।

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