गवर्नर का पद भारतीय लोकतंत्र को खतरा

गवर्नरों पर संविधान की खामोशी पर बीआर अंबेडकर इतने उत्तेजित थे कि उन्होंने संपूर्ण दस्तावेज की भत्र्सना कर दी। संविधान अंगीकृत करने के मात्र तीन वर्ष उपरांत उन्होंने राज्यसभा में तर्क दिया कि गवर्नरों को स्पष्ट अधिकार देने के लिए संविधान संशोधित किया जाए। ‘‘हमें यह विचार विरासत में मिला है कि गवर्नर के पास कोई शक्ति नहीं होनी चाहिए, कि उसे रबड़ स्टैंप होना चाहिए’’, उन्होंने कहा, ‘‘लोकतंत्र के प्रति यही हमारी धारणा है जिसे हमने इस देश के लिए विकसित किया है।’’ जब कुछ सदस्यों ने यह कहकर अंबेडकर को चिढ़ाया कि उन्होंने स्वयं संविधान लिखा है तो उन्होंने तपाक से कहा, ‘‘मैं इसे जला देने वाला पहला व्यक्ति हूंगा। मैं इसे नहीं चाहता। यह किसी के लिए अनुकूल नहीं।’’ गवर्नर के खतरों को सीमित करने के लिए गुजरे समय में कई प्रस्ताव सामने लाए गए। स्वयं भाजपा ने 80 के दशक में सुझाव दिया था कि अनिवार्य परामर्श के उपरांत ही राज्य विधायिका द्वारा तैयार एक पैनल में से गवर्नर का चयन होना चाहिए…

गवर्नरों और भारत की विपक्षी पार्टियों द्वारा शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों के बीच झड़पें सामान्य हो चली हैं। महाराष्ट्र, तेलंगाना, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, पंजाब और दिल्ली में ऐसे संघर्ष सामने आए हैं। जब पंजाब के गवर्नर और मुख्यमंत्री के मध्य विधानसभा सत्र बुलाने को लेकर ताजा खींचतान सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची, तो न्यायाधीशों ने दोनों पार्टियों को यह कहकर लताड़ा कि उनका संवाद देश को ‘‘निम्नतम स्तर’’ पर ले जाएगा। कुछ दिन पहले आठ विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र भेजा जिसमें आरोप लगाया गया कि केंद्र की बीजेपी सरकार गवर्नर के पद का ‘‘दुरुपयोग’’ कर रही है।

भारतीय संघ के आरंभ से ही ऐसे संघर्ष सामने आते रहे हैं। नेहरू के शासन काल में वर्ष 1956 में गवर्नरों की काउंसिल ने स्वीकार किया था कि कुछ परिस्थितियों में ‘‘गवर्नर भारत सरकार के एजेंट के तौर पर काम कर सकता है।’’ वर्ष 1988 में सरकारिया आयोग ने केंद्र-राज्य संबंधों पर पाया कि ‘‘अपने राजनीतिक हित साधने के लिए’’ कुछ राज्यपालों की कुर्सियां केंद्र द्वारा इस्तेमाल की जा रही थीं। वर्ष 1990 में पूर्व गवर्नर सी. सुब्रह्मणियन ने स्पष्ट कहा कि गवर्नर का पद ‘‘पार्टी की नियुक्ति’’ बन गया था।

यहां तक कि जब संविधान लिखा जा रहा था, यह स्पष्ट था कि गवर्नर का पद केंद्र की सत्ताधारी पार्टी द्वारा नियंत्रित होगा। यही मुद्दा नेहरू और वल्लभभाई पटेल के मध्य टकराव का प्रथम स्रोत बना। दरअसल पटेल जनता द्वारा गवर्नर का प्रत्यक्ष निर्वाचन चाहते थे। आरंभ में पटेल के दृष्टिकोण का पक्ष लिया गया। इन दो नेताओं की अध्यक्षता में बनी दो सर्वोच्च समितियों की संयुक्त बैठक में निर्णय लिया गया कि ‘‘गवर्नर राज्य द्वारा नियुक्त किया जाना चाहिए, केंद्र सरकार की ओर से नहीं।’’ पटेल का आदर्श ‘प्रांतीय संविधान’, जिसमें यह व्यवस्था थी कि हर राज्य का गवर्नर ‘‘जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचित होगा’’, उसे संविधान सभा से स्वीकृति भी मिल गई।

परंतु दो साल बाद, बड़ा निर्णय वापस लेने के एकमात्र घटनाक्रम में, सभा ने गवर्नर के चयन का तरीका ‘‘निर्वाचित’’ से बदलकर ‘‘सीधे राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त’’ कर दिया। नेहरू ने स्वयं निर्णय बदलने के लिए तर्क दिए। उनका कहना था कि एक निर्वाचित गवर्नर ‘‘अलगाववादी प्रांतीय प्रवृत्ति को बढ़ावा देगा’’ और ‘‘प्रांत की सरकार के लिए एक प्रकार से प्रतिद्वंद्वी तैयार करेगा।’’ कई सदस्यों ने चिंता जताई कि गवर्नरों पर केंद्र के नियंत्रण ने भारतीय लोकतंत्र के लिए जोखिम पैदा कर दिया है। सर्वेंट्स ऑफ इंडिया नामक एक स्वतंत्र संगठन के अध्यक्ष हृदयनाथ कुंजरू ने सार्वजनिक रूप से कहा : ‘‘अगर आप प्रांतों को नियंत्रित करने की शक्तियों सहित केंद्रीय कार्यकारी थोपते हैं… तो देश में तानाशाही का गंभीर खतरा पैदा हो जाएगा।’’

हमारे लोकतंत्र के लिए इससे भी अधिक खतरनाक यह है कि संविधान गवर्नरों की शक्तियों को लेकर अस्पष्ट है। यह गवर्नर को बाध्य करता है कि वह राज्य से सीएम की ‘‘सलाह’’ का पालन करे। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस स्थिति की बार-बार पुष्टि की है। परंतु गरमाई राजनीति के समय में, जब इस पद की सर्वाधिक आवश्यकता है, संविधान तीन अहम बिंदुओं पर खामोश है : सरकार बनाने के लिए निमंत्रण किसे दिया जाना है, विधानसभा का सत्र कब बुलाया जाए या सत्रावसान कब हो, और विधेयक को मंजूरी कब दी जाए। इन सभी क्षेत्रों में शक्तियों का दुरुपयोग वर्ष 1952 में ही आरंभ हो गया, जब विपक्ष से कम सीटें पाने के बावजूद कांग्रेसी गवर्नर ने मद्रास में अपने साथियों को सरकार बनाने का निमंत्रण दे दिया जबकि पार्टी की सीटें कम थीं।

गवर्नरों पर संविधान की खामोशी पर बीआर अंबेडकर इतने उत्तेजित थे कि उन्होंने संपूर्ण दस्तावेज की भत्र्सना कर दी। संविधान अंगीकृत करने के मात्र तीन वर्ष उपरांत उन्होंने राज्यसभा में तर्क दिया कि गवर्नरों को स्पष्ट अधिकार देने के लिए संविधान संशोधित किया जाए। ‘‘हमें यह विचार विरासत में मिला है कि गवर्नर के पास कोई शक्ति नहीं होनी चाहिए, कि उसे रबड़ स्टैंप होना चाहिए’’, उन्होंने कहा, ‘‘लोकतंत्र के प्रति यही हमारी धारणा है जिसे हमने इस देश के लिए विकसित किया है।’’ जब कुछ सदस्यों ने यह कहकर अंबेडकर को चिढ़ाया कि उन्होंने स्वयं संविधान लिखा है तो उन्होंने तपाक से कहा, ‘‘मैं इसे जला देने वाला पहला व्यक्ति हूंगा। मैं इसे नहीं चाहता। यह किसी के लिए अनुकूल नहीं।’’

गवर्नर के खतरों को सीमित करने के लिए गुजरे समय में कई प्रस्ताव सामने लाए गए। स्वयं भाजपा ने 80 के दशक में सुझाव दिया था कि अनिवार्य परामर्श के उपरांत ही राज्य विधायिका द्वारा तैयार एक पैनल में से गवर्नर का चयन होना चाहिए। सरकारिया कमीशन ने अनुशंसा की कि राज्यपाल प्रतिष्ठित व्यक्ति होना चाहिए, परंतु दूसरे राज्य से। इसने यह भी सुझाव दिया कि ‘‘नई दिल्ली में राज कर रही पार्टी के राजनेता को किसी अन्य पार्टी द्वारा शासित प्रदेश में गवर्नर नहीं बनाना चाहिए।’’

जब तक भारत में संसदीय प्रणाली है, गवर्नरों और मुख्यमंत्रियों के दरमियान गहरे राजनीतिक मतभेद रहेंगे ही रहेंगे। इस प्रणाली में उच्चतम पद पर ऐसा नेता होना आवश्यक है जो वास्तव में किसी पार्टी से न हो, जैसे कि सम्राट। परंतु कोई निर्वाचन या नियुक्ति का तरीका ऐसा नेता तैयार नहीं कर सकता। इसलिए हमारे देश का लोकतंत्र तभी सुरक्षित रहेगा जब दोनों जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित हों।

अंगे्रजी में ‘द वायर’ में प्रकाशित

(8 अप्रैल, 2023)

भानु धमीजा

सीएमडी, दिव्य हिमाचल