पंजाब भाजपा का नया अध्याय

2022 के विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले अकाली दल ने भाजपा से अपने संबंध तोड़ लिए। इसलिए भाजपा ने यह चुनाव अपने बलबूते पर लड़ा। वैसे उसने पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह, जिन्होंने चुनाव से कुछ समय पहले ही सोनिया कांग्रेस छोड़ कर पंजाब लोक कांग्रेस के नाम से अपनी पार्टी बना ली थी, से समझौता कर लिया था। इसके अतिरिक्त उसने अकाली दल के ही 87 वर्षीय सुखदेव सिंह ढींढसा से भी समझौता कर लिया था जिसने अपना अलग अकाली दल बना रखा था। लेकिन कुल मिला कर ये समझौते हवा में ही थे क्योंकि इन दोनों दलों का जमीन पर आधार नहीं था। व्यावहारिक रूप से भाजपा यह चुनाव अपने बलबूते ही लड़ रही थी। पार्टी ने 73 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे लेकिन कुल मिला कर उसे 2 सीटें और 6.6 प्रतिशत वोट हासिल हुए। लेकिन इन चुनावों में अकाली दल भी तीन सीटों पर सिमट आया। इस पृष्ठभूमि में भाजपा को अपनी आगे की यात्रा को ध्यान में रखते हुए पंजाब में नए सारथी को चुनना था। उसने इसलिए पूर्व में पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके सुनील जाखड़ का चुनाव किया है। वे कुछ समय पहले ही भाजपा में शामिल हुए थे…

कुछ अरसे से चर्चा चल रही थी कि पंजाब में भारतीय जनता पार्टी के संगठनात्मक ढांचे में बदलाव किया जा रहा है। दरअसल पिछले कुछ महीनों में भारतीय जनता पार्टी में अनेक ऐसे लोग शामिल हुए हैं जो इससे पहले अकाली दल अथवा कांग्रेस पार्टी में सक्रिय ही नहीं थे बल्कि वहां नेतृत्व प्रदान कर रहे थे। इस कारण से पंजाब भाजपा का संगठनात्मक ढांचा असंतुलित हो गया था। स्पष्ट ही उसमें दो समूह दिखाई देने लगे थे। पहला समूह ऐसे भाजपाइयों का जो दशकों से पार्टी के साथ थे और दूसरा समूह ऐसे भाजपाइयों का जो हाल ही में परिवार में शामिल हुए थे। जरूरी था कि नए-पुराने भाजपाइयों में तालमेल स्थापित किया जाता ताकि पार्टी एक ही समूह के रूप में दिखाई देती। इतना ही नहीं, धरातल पर भी भाजपा का संगठनात्मक विस्तार हो पाता। यदि यह विस्तार धरातल पर दिखाई देने लगता, तभी पार्टी में नए आने वालों की उपयोगिता स्थापित हो सकती थी। अन्यथा पार्टी की प्रदेश कार्यकारिणी में दिखाई देने वाले नए चेहरों के अतिरिक्त बाहर से आने वाले ‘वरिष्ठ नेताओं’ का धरातल पर कोई लाभ न होता। लेकिन संगठनात्मक संरचना में बदलाव करते समय यह देखना जरूरी था कि ये दोनों काम अर्थात धरातल पर कार्य विस्तार और नए-पुरानों को साथ लेकर चलना, यह काम कौन कर सकता था? सबसे पहले पंजाब में भाजपा के कार्य विस्तार का मामला। क्या यह काम पुराने भाजपाइयों के जिम्मे लगाया जा सकता था या फिर इसके लिए बाहर से आने वाले नए लोगों को आगे करके नया प्रयोग किया जाए? इस प्रश्न पर चर्चा करने से पहले यह देखना होगा कि अभी तक धरातल पर पंजाब में भाजपा के विस्तार की सीमाएं क्या रही हैं और उसके कौन से कारण हैं? 1952 से लेकर 1992 तक के चालीस साल के कालखंड में पंजाब विधानसभा के लिए जितने भी चुनाव हुए उनमें जनसंघ/भाजपा को 0 से लेकर 9 के बीच ही सीटों पर जीत मिली। कम से कम 0 और ज्यादा से ज्यादा 9 सीटें। 1977 को अवश्य अपवाद माना जा सकता है जब उस समय की प्रधानमंत्री इन्दिरा गान्धी द्वारा आंतरिक आपात स्थिति घोषित किए जाने के परिणामस्वरूप प्रमुख राजनीतिक दलों ने विलय कर जनता पार्टी बना ली थी। तब पंजाब में जनता पार्टी/अकाली/सीपीएम सभी मिल कर पंजाब विधानसभा का चुनाव लड़े थे। तब जनता पार्टी ने पच्चीस सीटें जीती थीं। लेकिन उनमें समाजवादी पृष्ठभूमि के, कांग्रेस फार डैमोक्रेसी के, सिंडीकेट इत्यादि सभी प्रकार के लोग थे। तब जनसंघ की पृष्ठभूमि वाले 12 प्रत्याशी जीते थे। लेकिन 1977 के चुनाव की विशेष स्थितियों को देखते हुए उसके परिणाम को किसी सामान्य विश्लेषण में शामिल नहीं किया जा सकता।

इसलिए किस्सा कोताह यह कि इन चालीस साल की भाजपा की कमाई पंजाब विधान सभा की 0 से 9 सीटें के भीतर ही सिमटी हुई है। पंजाब में अपने इस सीमित आधार के चलते या अन्य कारणों से 1997 से भाजपा ने अपनी आगे की यात्रा अकाली दल से मिल कर करने का निर्णय ले लिया। यह समझौता 2017 के चुनाव तक चला। यानी बीस साल का कालखंड। इन बीस साल में हुए चुनावों में भाजपा को 1997 में 18, 2002 में 3, 2007 में 19, 2012 में 12 और 2017 में 3 सीटों पर जीत हासिल हुई। यानी 2017 तक आते आते अकाली दल से समझौते के बावजूद भारतीय जनता पार्टी अपनी उसी यानी 0 से 9 वाली पुरानी स्थिति पर पहुंच गई थी। थोड़ा अध्ययन को और गहरा करने के लिए इन चुनावों में भाजपा को मिले वोट प्रतिशत का हिसाब भी देख लेना लाभकारी होगा। 1997 में भाजपा को 8.33 प्रतिशत, 2002 में 5.67 प्रतिशत, 2007 में 8.28 प्रतिशत, 2012 में 7.18 प्रतिशत और 2017 में 5.39 प्रतिशत वोट मिले। 2022 के विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले अकाली दल ने भाजपा से अपने संबंध तोड़ लिए। इसलिए भाजपा ने यह चुनाव अपने बलबूते पर लड़ा। वैसे उसने पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह, जिन्होंने चुनाव से कुछ समय पहले ही सोनिया कांग्रेस छोड़ कर पंजाब लोक कांग्रेस के नाम से अपनी पार्टी बना ली थी, से समझौता कर लिया था। इसके अतिरिक्त उसने अकाली दल के ही 87 वर्षीय सुखदेव सिंह ढींढसा से भी समझौता कर लिया था जिसने अपना अलग अकाली दल बना रखा था। लेकिन कुल मिला कर ये समझौते हवा में ही थे क्योंकि इन दोनों दलों का जमीन पर आधार नहीं था।

व्यावहारिक रूप से भाजपा यह चुनाव अपने बलबूते ही लड़ रही थी। पार्टी ने 73 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे लेकिन कुल मिला कर उसे 2 सीटें और 6.6 प्रतिशत वोट हासिल हुए। लेकिन इन चुनावों में अकाली दल भी तीन सीटों पर सिमट आया। इस पृष्ठभूमि में भाजपा को अपनी आगे की यात्रा को ध्यान में रखते हुए पंजाब में नए सारथी को चुनना था। उसने इसलिए पूर्व में पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके सुनील जाखड़ का चुनाव किया है। वे कुछ समय पहले ही भाजपा में शामिल हुए थे। साफ-सुथरी छवि के जाखड़ पंजाब की राजनीति में गहरी पैठ रखते हैं। बड़े कद के नेता हैं और अपने व्यवहार के कारण सभी को साथ लेकर चलने की उनमें क्षमता है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि वे प्रदेश में भाजपा को पोलिटिकल प्रेशर ग्रुप की स्थिति से निकाल कर सचमुच समूह पंजाबियों की पार्टी में परिवर्तित करने का प्रयास करेंगे। भाजपा के वरिष्ठ नेता हरजीत सिंह ग्रेवाल ने उनका समर्थन करते हुए कहा है कि उनको प्रधान बनाने से यदि कहीं पुराने भाजपा कार्यकर्ता नाराज भी हैं तो वे स्वयं उनको मनाने जाएंगे। आशा करनी चाहिए कि पंजाब में यह नया प्रयोग केवल भाजपा के लिए ही नहीं, बल्कि देश के लिए भी लाभदायक सिद्ध होगा। दूसरी ओर पंजाब में एक और प्रयास फिर से हो रहा है। अकाली बादल से भाजपा ने संपर्क साधना शुरू कर दिया है। अकाली दल बादल के नए प्रमुख से भाजपा के केंद्रीय नेताओं की बातचीत हुई है। पहले की तरह गठबंधन करने के प्रयास हो रहे हैं। अगर गठबंधन होता है तो पंजाब की सियासत बदलेगी।                                                                                 ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार