ज्ञानवापी मंदिर को लेकर बढ़ता विवाद

कहते हैं इतिहास बड़ा क्रूर होता है। अंग्रेज आ गए। अशरफ समुदाय जल्दी ही अंग्रेजों के साथ खड़ा हो गया। पहले तो वह केवल देव मंदिरों को ही तोड़ता था, लेकिन उसने भारत माता को ही खंडित करने की रणनीति अपना ली। 1947 में भारत खंडित हो गया। भारतीयों की अपनी सरकार बन गई। लेकिन दुर्भाग्य से सत्ता जिन भारतीयों के हाथ में आई उन्होंने विदेशी आक्रमणकारी अरबों, तुर्कों और मुगलों को भी अपना मान कर दिल्ली में औरंगजेब, जहांगीर, शाहजहां को भारत के महापुरुष मान कर उनके नाम पर सडक़ों के नाम रखने शुरू कर दिए। इतना ही नहीं, इन द्वारा मस्जिदों के नाम पर निकाले गए गजट नोटिफिकेशनों और विजय स्तम्भों की रक्षा करनी शुरू कर दी। अब ज्ञानवापी ढांचे का सर्वेक्षण हो रहा है। अशरफ समाज के साथ-साथ औरंगजेब को अपना महापुरुष मानने वाले ‘भारतीयों’ की रात की नींद भी हराम होने लगी है। लेकिन भारत जाग गया है। देर-सवेर ज्ञानवापी पर हिंदुओं के समर्थन में फैसला आएगा…

काशी के ज्ञानवापी ढांचे को लेकर विवाद बढ़ता जा रहा है। अशरफ समुदाय के लोग इस ढांचे को मस्जिद कहते हैं और आम भारतीय इसे मंदिर मानता है। यह ढांचा काशी के ऐतिहासिक विश्वनाथ मंदिर के आधे हिस्से में बना हुआ है। नंदी बैल का तो मुंह ही ज्ञानवापी ढांचे की ओर है। कुछ समय पहले ढांचे में बजूखाना की जांच पड़ताल हुई थी। बजूखाना उस जगह को कहते हैं जहां से श्रद्धालु नमाज पढऩे से पहले हाथ मुंह आदि धोते हैं। यह जांच न्यायालय के आदेश के बाद ही हुई थी। वहां बजूखाना में से शिवलिंग होने के प्रमाण मिले। लेकिन अशरफ समुदाय इस बात पर अड़ा है कि यह शिवलिंग न होकर फव्वारा है। अब वहां पुलिस बिठा दी गई है। लेकिन मामला यहीं शान्त नहीं हुआ। न्यायालय में कुछ लोगों ने याचिका दायर कर दी कि ज्ञानवापी ढांचे के अन्दर पूजा पाठ करने का अधिकार मिलना चाहिए। उसी सिलसिले में न्यायालय ने ढांचे को बिना कोई क्षति पहुंचाए, भारत के पुरातत्व सर्वेक्षण के निदेशक को ज्ञानवापी ढांचे का सर्वे करने का आदेश दिया। अशरफ समुदाय इस सर्वे को रुकवाने के लिए उच्चतम न्ययालय तक पहुंचा। लेकिन इधर उधर घूम कर अशरफ समाज वापस ज्ञानवापी ही पहुंच गया। न्यायालय ने सर्वे को रोकने का आदेश जारी करने से इंकार कर दिया।

अब वहां सर्वे का काम चालू है। लेकिन असली प्रश्न है कि अशरफ समाज या एटीएम (अरब-तुर्क-मुगल मंगोल) मूल के मुसलमान सर्वे का विरोध क्यों कर रहे हैं? पुरातत्व विभाग ने न्यायालय में शपथ पत्र दिया है कि सर्वेक्षण के दौरान ढांचे को कोई नुकसान नहीं होगा। न ही इस दौरान ढांचे के भीतर कहीं खुदाई की जाएगी। इसके बावजूद अशरफ समुदाय को किस बात का डर है? इसमें कोई शक ही नहीं कि औरंगजेब के शासनकाल में काशी विश्वनाथ का यह मंदिर तोड़ा गया था। लेकिन जब उसकी जगह यह नया ढांचा बनाया गया तो पुराने मंदिर के इतने प्रमाण क्यों छोड़े गए? मंदिर के मलबे को पूरी तरह हटा कर वहां मस्जिद का नया ढांचा बनाया जा सकता था। वे प्रमाण ही अब अशरफ समुदाय के लिए जी का जंजाल बन गए हैं। इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए मुगल या उससे पूर्व सल्तनत काल के विदेशी शासकों की मानसिकता को समझना होगा। वे मंदिर तोड़ कर मस्जिद नहीं बना रहे थे। मस्जिद बनाने के लिए तो काशी, अयोध्या और मथुरा में बहुत जमीन पड़ी थी। मुगल शासक बन गए थे। वे कहीं भी मस्जिद बना सकते थे। वे तो इस देश में अपनी विजय का गजट नेटिफिकेशन प्रकाशित कर रहे थे। आजकल जब शासन बदलता है, नया मुख्यमंत्री बनता है तो गजट नोटिफिकेशन निकाला जाता है। जयराम ठाकुर की जगह सुखविंदर सिंह सुक्खू मुख्यमंत्री बने तो शासन ने गजट नोटिफिकेशन निकाल कर इसकी बाकायदा सूचना जारी कर दी ताकि हर आम और खास को आधिकारिक तौर पर इस परिवर्तन का पता चल जाए। लेकिन मुगल शासन काल में शासन परिवर्तन का गजट नोटिफिकेशन देश के सर्वमान्य प्रतीकों को नष्ट करके उसके स्थान पर अपने देश के प्रतीकों का निर्माण करके ही किया जाता था।

काशी विश्वनाथ मंदिर से बड़ा प्रतीक भला इस नोटिफिकेशन के लिए और क्या हो सकता था? लेकिन जब सत्ता बदल गई तो क्या बाबर, औरंगजेब द्वारा बनाए गए इन नोटिफिकेशनों को हटाने की जरूरत नहीं है? इस प्रश्न पर देश को तटस्थ मन से विचार करना चाहिए। अशरफ समुदाय को भी विचार करना चाहिए कि उनके पूर्वजों ने इस देश पर हमला करके इसको जीता था, जगह जगह मंदिरों को गिरा कर अपनी जीत के विजय स्तम्भों का निर्माण किया था, लेकिन बदले हालात में इन विजय स्तम्भों की जरूरत नहीं है। अशरफ समुदाय में से भी सैयद बिरादरी इस मामले में नेतृत्व प्रदान कर सकती है। इसी से जुड़ा हुआ दूसरा प्रश्न और गहरा है। ये विजय स्तम्भ बनाते हुए अशरफ समाज के मुगल शासकों ने मंदिरों की मूर्तियों को तोड़ कर उन्हीं का प्रयोग नवनिर्माण में क्यों किया? दरअसल मंदिर को तोडऩा और मूर्तियों को खंडित करना भारतीयों को अपमानित करने का एक तरीका भी था। औरंगजेब के सिपहसालार मंदिर तोड़ रहे हैं, संघर्ष हो रहा है, लेकिन देखते देखते मंदिर धराशायी हो जाता है। मंदिर को भगवान का घर मानने वाले भारतीय निस्सहाय देख रहे हैं। लेकिन यहीं यह प्रकरण समाप्त नहीं हो जाता। फिर देव मूर्तियां तोड़ी जा रही हैं। यदि ये खंडित देव मूर्ति भी भारतीयों के हवाले कर दी जाती तब भी वे विधि विधान से जल में प्रवाहित कर सकते थे। खंडित देव मूर्ति के बारे में यह शास्त्रीय विधान है। लेकिन विदेशी शासक ये खंडित देव मूर्तियां भी भारतीयों के हवाले नहीं करता। वह इसे मस्जिद के नाम पर बनाए जा रहे नए ढांचे की सीढिय़ों में लगा रहा है।

अशरफ समुदाय के लोग जब मस्जिद में आते हैं तो प्राकारान्तर से इन देव मूर्तियों पर चढ़ कर आगे बढ़ते हैं। पराजित जाति का इससे बड़ा अपमान क्या हो सकता था? तथाकथित मस्जिद के हर हिस्से में देव मूर्तियों के अंग समाए हुए हैं। इस प्रकार के ढांचों को देख कर ही भारतीयों के मन में मुगल शक्ति का आभास होता था। समय बदला। अरब गए, तुर्क गए और मुगल भी चले गए। कहते हैं इतिहास बड़ा क्रूर होता है। अंग्रेज आ गए। अशरफ समुदाय जल्दी ही अंग्रेजों के साथ खड़ा हो गया। पहले तो वह केवल देव मंदिरों को ही तोड़ता था, लेकिन उसने भारत माता को ही खंडित करने की रणनीति अपना ली। 1947 में भारत खंडित हो गया। भारतीयों की अपनी सरकार बन गई। लेकिन दुर्भाग्य से सत्ता जिन भारतीयों के हाथ में आई उन्होंने विदेशी आक्रमणकारी अरबों, तुर्कों और मुगलों को भी अपना मान कर दिल्ली में औरंगजेब, जहांगीर, शाहजहां को भारत के महापुरुष मान कर उनके नाम पर सडक़ों के नाम रखने शुरू कर दिए। इतना ही नहीं, इन द्वारा मस्जिदों के नाम पर निकाले गए गजट नोटिफिकेशनों और विजय स्तम्भों की रक्षा करनी शुरू कर दी। अब ज्ञानवापी ढांचे का सर्वेक्षण हो रहा है। अशरफ समाज के साथ-साथ औरंगजेब को अपना महापुरुष मानने वाले ‘भारतीयों’ की रात की नींद भी हराम होने लगी है। लेकिन भारत जाग गया है। देर-सवेर ज्ञानवापी पर हिंदुओं के समर्थन में फैसला आएगा।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

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