शिक्षक दिवस विशेष : गुरु चरणों में श्रद्धा के शब्द-सुमन

ऐसा कहते हैं और सही कहते हैं कि यदि गुरु श्रेष्ठ मिल जाए तो शिष्य श्रेष्ठतम बन सकता है। सचिन तेंदुलकर कहते हैं, ‘मैं खुद को काफी भाग्यशाली समझता हूं कि मुझे आचरेकर सर जैसे निस्वार्थ इनसान से क्रिकेट सीखने का मौका मिला।’ चंद्रगुप्त मौर्य को चाणक्य जैसा गुरु मिला, तो वह नंद वंश को उखाड़ कर मगध का राजा बन गया था। जहां माता-पिता बच्चों का लालन-पालन करते हैं, वहीं अध्यापक उसे तराशने का काम करता है। मैं अध्यापक हूं और जाहिर है छात्र भी रहा हूं। हर वर्ष जब अध्यापक दिवस आता है तो खुद को अध्यापक के रूप में देखता हूं और ऐसा करते-करते नैपथ्य में अपने छात्र जीवन का एक चलचित्र जेहन में उभर आता है। इस अवसर पर विलियम आर्थर वार्ड का ये कथन भी याद हो आता है, ‘औसत दर्जे का अध्यापक बताता है, बढिय़ा अध्यापक व्याख्या करता है, श्रेष्ठ अध्यापक प्रदर्शन करता है और महान अध्यापक प्रेरित करता है।’ मैं अध्यापन के इस मापदंड में कहां हूं, ये तो मेरे छात्र ही बेहतर बता सकते हैं।

हां, मुझे अपने छात्र जीवन से जुड़े वे अध्यापक व उनके प्रेरक कथन व प्रसंग स्मरण हो आते हैं जिनकी कक्षाओं से होकर गुजरा हूं और जिनकी कही गई बातें आज भी मेरे मानस पटल पर अंकित हैं। उनकी बातें तब प्रेरणा का सबब बनी और आज भी मुझे रोमांचित करती हैं। एक कुशल अध्यापक तरह-तरह से अपने छात्र के कौशल को संवारने का प्रयास करता है। मेरे पिता जी प्राथमिक स्कूल में अध्यापक थे और मेरे आरंभिक विद्यार्थी जीवन में मेरे अध्यापक भी रहे। मुझे याद है, एक बार मुझे ये समझ नहीं आ रहा था कि किसी समीकरण में जमा-नफी, गुणा-भाग कैसे किया जाए।

मुझे परेशान देख कर पिता जी बोले, ‘पहले कडो बलदानियां पछे कडो का, तकसीम-जर्ब को अम्ल करके जमा-नफी में हाथ लगा।’ इस सूत्र ने मेरी परेशानी दूर कर दी और ये सूत्र हमेशा के लिए मेरे दिमाग में घर कर गया। मुझे आठवीं कक्षा की एक रोचक घटना याद आती है। हमारे हॉउस इग्जाम चल रहे थे। उस दिन संस्कृत का पर्चा था। मेरे एक अध्यापक, जो शारीरिक शिक्षक थे, को शायद लगा कि मैं धीरे लिखता हूं। वे मेरे पास आए और कहने लगे, ‘बाली! यदि तुम इस पर्चे को आधे घंटे में हल कर लोगे, तो मैं तुम्हें 25 पैसे इनाम में दूंगा।’ मेरी कलम ने गति पकड़ी और पूरा पर्चा आधे घंटे में समाप्त कर लिया और 25 पैसे प्राप्त किए। 25 पैसे की गुड़ मित्रों के साथ मौज से खाई गयी। उस गुड़ की मिठास की अनुभूति आज भी होती है, परंतु उससे ज्यादा उन शिक्षक की यह चुनौती सीख दे गई कि दक्षता व क्षमता के साथ चुनौतीपूर्ण स्थिति में कार्य करने की सलाहियत भी होनी चाहिए। मेरे संस्कृत के अध्यापक तो आज भी जब मिलते हैं, तो बड़े गर्व से इस बात का जिक्र करते हैं। अध्यापक के प्रोत्साहन भरे दो शब्द सुन कर छात्र प्रेरित होकर दुगने उत्साह से आगे बढ़ता है। बहरहाल, शिक्षक दिवस पर गुरुओं को नमन करता हूं।

जगदीश बाली

शिक्षाविद

राष्ट्र निर्माता की वर्तमान दशा व दिशा

शिक्षा किसी भी राष्ट्र की बुनियाद है। मैकाले ने भारत में शासन करने के लिए इसी बुनियाद को हिला कर अपना आधार बनाया था। शिक्षा जो आधारभूत स्तम्भ है, समय-समय पर नीतियां निर्धारित कर इसे सुधारने के प्रयास करने के लिए नए-नए प्रयोग शिक्षाविदों के द्वारा किए जाते रहे हैं। इसी के तहत एक प्रयोग ये भी किया गया कि पहली कक्षा से लेकर आठवीं कक्षा तक सभी बच्चों को पास करने का प्रावधान रखा गया है। वास्तव में यह इसलिए किया गया ताकि बच्चे में ये भावना न आए कि वह फेल हो गया है। उसके साथी अगली कक्षा में चले गए हैं, क्योंकि यह माना गया कि बच्चे फेल होने पर आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते थे, उसी मृत्यु दर में सुधार लाने के लिए किया गया यह प्रयोग क्या सही मायने में सफल रहा? कोई छात्र या कोई व्यक्ति जीवन में परिस्थितयों के आगे घुटने टेक कर बैठ जाए और आत्महंता बन जाए, ऐसे छात्र को मानसिक रूप से मजबूत बनाना चाहिए या उसे फेल होने पर भी अगली कक्षा में जाने का अवसर दिया जाना चाहिए। इस पर भी विचार करना अनिवार्य हो जाता है क्योंकि विद्यालयों में छात्र केवल किताबी ज्ञान के लिए नहीं आते हैं, वे और भी बहुत कुछ सीखते हैं। यदि कोई बच्चा पढ़ाई में पिछड़ रहा है तो किसी न किसी अन्य गतिविधि में तो अपनी विशेषता भी रखता होगा जिसे पहचान कर उसे आगे बढ़ाया जाना एक उचित समाधान हो सकता है। यदि बच्चों को फेल किए बिना अगली कक्षा में भेज दिया जाता है तो वास्तव में बच्चों में सुधार की गुंजाइश पूरी तरह से समाप्त हो जाती है। ‘भारत, मैं अपनी मंजिल पर पहुंच गया हूं और आप भी’, हाल ही में चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव पर पहुंचने वाले दुनिया में पहला देश बने भारत को जब चंद्रयान-3 ने यह संदेश भेजा तो भारत का परचम विश्वपटल पर लहरा गया।

इस गौरवान्वित क्षण को हासिल करने के पीछे की संघर्ष गाथा और सफलता-असफलता, आत्मबल और साहस की कहानी पर दृष्टिपात अगर करें तो श्रेय उन शिक्षकों को अवश्य जाता है जिनसे शिक्षित होकर आज उनके छात्र हर असफलता को सीख बना कर लगातार प्रयास करते हुए इस सफलतम मुकाम को हासिल कर पाए। हमें छात्रों को समझाना होगा कि फेल होने का अर्थ है एक नए ढंग से सुधारात्मक और सकारात्मकता के साथ आगे बढऩा। आज के समय में शिक्षक द्वारा बच्चों को मारना तो बड़े दूर की बात है, यदि वह बच्चों में सुधार के लिए उन्हें डांट भी दे तो अभिभावकों का कोपभाजन बनने के लिए तैयार रहना पड़ता है। इतने पर यदि स्कूल का मुखिया भी अभिभावकों का ही पक्षधर हो तो शिक्षक की गरिमा उसके मान-सम्मान, यहां तक कि शिक्षक के आत्मसम्मान को भी कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया जाता है। सहनशीलता की चरम सीमा का अतिक्रमण तब होता है जब एक शिक्षक को यह आदेश दिया जाता है कि शिक्षक को छात्रों का सम्मान करना चाहिए, भले ही छात्र शिक्षक का सम्मान न करें। जो ऐसा नहीं करता है, वह अहंकारी शिक्षक माना जाता है या ये कहा जाता है कि अमुक अध्यापक में बहुत ईगो है। ऐसे में शिक्षक को राष्ट्र निर्माता कहा जाना वर्तमान समय में कहां तक तर्कसंगत हो सकता है?

प्रियंवदा

स्वतंत्र लेखिका