जनजातीय संस्कृति एवं सतत विकास

सतत एवं समग्र विकास के सार्वभौमिकता के सिद्धांत के अनुसार व्यक्तियों, समुदायों, गांवों, शहरों का सम्पूर्ण विकास होना आवश्यक है…

भारत में अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या देश की कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है जो कि लगभग 10.4 करोड़ के लगभग है। इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश की कुल जनसंख्या का 5.7 प्रतिशत जनजातीय लोग निवास करते हैं। एक अध्ययन के अनुसार हिमाचल में लगभग 32 प्रतिशत लोग ही जनजातीय क्षेत्रों में निवास करते हैं, बाकि 68 प्रतिशत लोग शिक्षा, नौकरी के लिए तथा भू-सम्पत्ति खरीद कर दिल्ली, चंडीगढ़ एवं समीपवर्ती जिलों सोलन, शिमला, कुल्लू, मंडी, चम्बा तथा कांगड़ा के विभिन्न भागों में बस चुके हैं। इस समय भारत में संविधान के अनुच्छेद 342 के अन्तर्गत 730 से अधिक अनुसूचित जातियां अधिसूचित हैं। जनजातीय शब्द ऐसे मानव समुदाय के लिए प्रयुक्त किया जाता है जो अपनी एक विशेष संस्कृति, खानपान, परिधान, वेशभूषा, पहचान, धर्म परम्परा तथा भाषा या बोली के लिए जाने जाते हैं तथा काफी लंबे समय से एक क्षेत्र विशेष के निवासी होते हैं।

ये लोग एक विशेष भू-भाग पर रहते हैं जिनमें संस्कृति, सामान्य निरंतर संपर्क तथा क्षेत्र विशेष के कारण एकता की भावना होती है, जिनके जीवन रीति-रिवाज और व्यवहार के तौर तरीके आदिम जातियों की विशेषताओं से युक्त रहते हैं। जनजातीय लोगों की विशेषता है कि वे अपनी संस्कृति के लिए रूढि़वादी, सख्त तथा रक्षात्मक होते हैं। जनजातीय लोग बहुत आसानी से अपनी संस्कृति में किसी बाह्य व्यक्ति का दखल स्वीकार नहीं करते। ये लोग भोले-भाले, सीधे-सादे तथा भौतिकवाद की छाया से बहुत दूर होते हैं। हिमाचल प्रदेश में मुख्यत: किन्नर, गुज्जर, लाहौली, गद्दी, स्वांगला, पंगवाली तथा खम्पा जनजातियां निवास करती हैं। इस वर्ष सिरमौर के ट्रांस गिरि में बसने वाले भाटी समुदाय को भी केन्द्र सरकार ने अनुसूचित जनजाति में शामिल किया है। ये सभी जनजातियां अपनी पृथक-पृथक तथा समृद्ध संस्कृति के लिए जानी जाती हैं। सामान्य रूप से संस्कृति मानवीय संस्कारों की एक सुंदर कृति है। यह सांस्कृतिक परिवेश संस्कारों का एक ऐसा आवरण है जिसमें हम मानसिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, संवेगात्मक एवं भावनात्मक एवं रूप से सुरक्षित पाते हैं। संस्कृति एक विशाल शब्द है। खानपान, पहरावा, रीति-रिवाज, संस्कार, परंपराएं, धार्मिक आस्थाएं, विश्वास, अविश्वास, अंधविश्वास, लोकाचार, रीतियां-कुरीतियां तथा पूजा पद्धतियां, ये सब संस्कृति को परिभाषित करते हैं।

संस्कृति के दो रूप माने गए हैं जिनमें वृक्ष रूप संस्कृति की परम्परा या स्थायित्व को प्रतिबिंबित करता है तथा नदी रूप उसकी गतिशीलता तथा निरंतरता को व्यक्त करता है। संस्कृति का परम्परागत एवं गतिशील होना आवश्यक है क्योंकि ठहरे हुए पानी में भी सड़ांध आ जाती है। नवीनता, निरंतरता, गतिशीलता तथा रचनात्मकता के कारण ही संस्कृति नित-नवीन रहती है। आज संपूर्ण विश्व सतत विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत है। सितम्बर 2015 में संयुक्त राष्ट्र संघ के 193 देशों के शीर्ष सम्मेलन में निश्चित वैश्विक एजेंडा के 17 सतत विकास के लक्ष्यों में सार्वभौमिकता के सिद्धांत में ‘कोई पीछे न छूटे’ के लक्ष्य को प्राप्त करना है। इन 17 एसडीजी लक्ष्यों यानी ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स’ में आर्थिक संपन्नता, सामाजिक समरसता, पर्यावरण संरक्षण, गरीबी, भुखमरी, शिक्षा, स्वास्थ्य और खुशहाली, लैंगिक समानता, जल स्वच्छता, ऊर्जा, आर्थिक वृद्धि, उत्कृष्ट कार्य, बुनियादी सुविधाएं, उद्योग एवं नवाचार, असमानताओं में कमी, संवहनीय शहर, उपभोग एवं उत्पादन, औद्योगिक विकास, वैश्विक समस्याएं, जलवायु, कार्यवाही, पारिस्थितिक प्रणालियां, शांति, न्याय एवं भागीदारी आदि मुख्य लक्ष्य हैं। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में उपेक्षित, वंचित तथा हाशिए पर जी रहे लोगों, परिवारों, समुदायों तथा जनजातियों को विकास की मुख्यधारा में शामिल करना है। इन लक्ष्यों में सतत विकास लक्ष्य क्रमांक ग्यारह सांस्कृतिक परम्परागत एवं प्राकृतिक विरासत के संरक्षण एवं संवर्धन तथा संवहनीय शहरों एवं समुदायों के विकास पर आधारित है। वर्तमान में जनजातीय लोगों, समुदायों तथा संस्कृतियों पर भी भौतिकवाद की चकाचौंध का प्रभाव पड़ा है।

आज जनजातीय विकास के नाम पर सांस्कृतिक व्यवसायीकरण, भौतिकवाद का प्रभावित नहीं बल्कि परम्परागत संस्कृति का संरक्षण एवं सतत विकास को बढ़ावा देना भी बहुत आवश्यक है। परम्परा एवं आधुनिकता के संगम एवं सन्तुलन बनाए रखने से ही सतत विकास संभव है। यहां पर यह विचारणीय है कि परम्परागत संस्कृति को अपनाना पिछड़ापन तथा रूढि़वादिता नहीं है तथा आधुनिकता एवं भौतिकवाद से प्रभावित होना कोई आधुनिकता नहीं है। वर्तमान में प्रत्येक व्यक्ति आर्थिक रूप से इतना सम्पन्न तथा महत्वाकांक्षी हो गया है कि वह भौतिकवाद तथा आधुनिकता की छाया से बच नहीं सकता। यह भी आवश्यक है कि जीवन में भौतिक सुखों का उपयोग एवं उपभोग करते हुए जीवन शैली में परम्परागत मूल्यों एवं आदर्शों का अनुकरण एवं अनुसरण करते हुए एक संतुलित जीवन व्यतीत किया जाना चाहिए। जनजातीय संस्कृति के संरक्षण, संकलन, संग्रहण एवं संवर्धन के लिए सरकार, व्यवस्थाओं तथा विभागों को विशेष आर्थिक प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है।

उनकी लोक कलाओं, हस्त कलाओं तथा परम्परागत व्यवसायों को संरक्षण दिया जाना चाहिए। जनजातीय लोक कलाओं को भविष्य की पीढिय़ों के प्रेषण के लिए कार्यशालाओं तथा सेमिनारों का आयोजन आवश्यक है ताकि वे अपनी बहुमूल्य संस्कृति पर गौरवान्वित महसूस कर सकें। जनजातीय जीवन शैली एकला संस्कृति, संस्कृति कर्मियों पर शोध कार्य होने के साथ लिखित रूप तथा तकनीक के प्रयोग से वीडियोग्राफी से दस्तावेजीकरण होना चाहिए। सतत एवं समग्र विकास के सार्वभौमिकता के सिद्धांत के अनुसार व्यक्तियों, समुदायों, गांवों, शहरों का सम्पूर्ण विकास होना आवश्यक है ताकि ‘कोई पीछे न छूटे’ का लक्ष्य प्राप्त हो सके। जनजातीय परिप्रेक्ष्य में सांस्कृतिक संरक्षण, संग्रहण तथा संवर्धन के लिए जनजातीय लोक भाषाओं, लोक बोलियों, लोक साहित्यों, लोक गाथाओं, लोक पहेलियों, लोक समुदायों, लोक संस्कृतियों, लोक संस्कृति कर्मियों, लोक संगीत, लोक गीतों, लोक वाद्यों, लोक नृत्यों, लोक नाट्यों, लोक दन्त कथाओं का संरक्षण एवं संवर्धन करके उसे शुद्ध रूप से भविष्य की पीढिय़ों के लिए प्रेषित करने की आवश्यकता है, तभी सतत सांस्कृतिक विकास संभव है।

प्रो. सुरेश शर्मा

शिक्षाविद