मुसलमानों को नागरिकता की मांग का औचित्य

राम मनोहर लोहिया ने बहुत अरसा पहले यह प्रस्ताव रखा था। इसके बाद यदि मुसलमानों को लगे कि उनकी पाकिस्तानी और बांग्लादेशी नागरिकता के कोई मायने नहीं बचे हैं तो फिर वे स्वयं एकीकृत भारत की मांग उठाएं। तभी उन्हें नागरिकता मिलेगी…

जब से भारत सरकार ने नागरिकता अधिनियम में संशोधन के बाद यह प्रावधान किया है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश के प्रताडि़त हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन और ईसाई भारत की नागरिकता प्राप्त करने के अधिकारी होंगे, तब से कांग्रेस, मुस्लिम लीग और कम्युनिस्टों की मांग है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश के मुसलमानों को भी भारतीय नागरिकता लेने का अधिकार मिलना चाहिए। इसका मोटा अर्थ यह है कि जो लाखों बांग्लादेशी और पाकिस्तानी अवैध ढंग से भारत में घुस आए हैं, उनको भी घुसपैठिए न मान कर शरणार्थी माना जाए और मांग पर भारतीय नागरिकता दी जाए। उनका कहना है कि भारत पंथनिरपेक्ष है, इसलिए किसी पंथ या मजहब के आधार पर किसी को न तो सुविधा दी जा सकती है और न ही भेदभाव किया जा सकता है। लेकिन इसके साथ ही ये यह भी मांग करते हैं कि जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 इसलिए लागू किया जाए क्योंकि वहां इस्लाम पंथ को मानने वाले बहुसंख्यक में हैं। नागरिकता के प्रश्न पर इन्होंने भारत के दोनों प्रकार के मुसलमानों को सडक़ों के प्रदर्शन में जोडऩे का प्रयास किया है और कुछ सीमा तक उन्हें जोडऩे में सफल भी हुए हैं। इन मुसलमानों में से अधिकांश तो भारतीय मुसलमान ही हैं जिनके पुरखे सल्तनत काल या मुगल काल में मतांतरित होकर मुसलमान बन गए थे। लेकिन एक-आध प्रतिशत अरब, मंगोल, तुर्क या फिर मुगल मुसलमान भी हैं, जिनके पुरखे इन देशों से अरसा पहले आए थे। ये या तो हमलावर थे या फिर देश पर अरबों या तुर्कों का कब्जा हो जाने के बाद यहां आ बसे थे। इन एक-आध प्रतिशत मुसलमानों का भारत की मस्जिदों और जियारतखानों पर कब्जा है। मौलाना अबुल कलाम आजाद, जो भारत के पहले शिक्षा मंत्री थे, वे इन मुसलमानों की संख्या पांच प्रतिशत बताया करते थे।

उनके स्वयं के पुरखे भी अरब से आए थे। लेकिन उनका कहना था कि ये पांच प्रतिशत बाबरी मुसलमान अब इस देश की मिट्टी में रच-बस गए हैं। लेकिन मौलाना आजाद के वक्त भी यही पांच प्रतिशत भारतीय मुसलमानों को भडक़ाया करते थे और आज उनके गुजर जाने के इतने दशकों बाद भी यही भारतीय मुसलमानों को बहका, डरा और धमका रहे हैं। अलबत्ता दारा शकोह ने इस देश की मिट्टी में घुल-मिल जाने की प्रक्रिया शुरू की थी, लेकिन उसको उन्हीं मुल्लाओं ने निपटा दिया। आज भी नागरिकता संशोधन अधिनियम के सवाल पर इन्हीं पांच प्रतिशत ने, मस्जिदों से आम भारतीय मुसलमानों को बहकाया या भडक़ाया और दोनों मिल कर कांग्रेस, कम्युनिस्ट और मुस्लिम लीग की राजनीति के मोहरे बन कर सडक़ों पर तांडव करने लगे। वैसे कांग्रेस, कम्युनिस्ट शायद समझ रहे हों कि वे इन दोनों प्रकार के ही मुसलमानों को अपनी राजनीति का मोहरा बना रहे हैं, जबकि हो सकता है सडक़ों पर उतर रहे भारतीय और अरब तुर्क मुसलमान इन राजनीतिक दलों को अपनी बड़ी योजना के लिए इस्तेमाल कर रहे हों। लेकिन इन दोनों प्रकार के मुसलमानों को सडक़ों पर उतार कर कांग्रेस, कम्युनिस्ट और मुस्लिम लीग जो प्रश्न उठा रहे हैं, उस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। उनका कहना है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम में भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान पाकिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई अल्पसंख्यकों के लिए किया गया है, जबकि वह पाकिस्तान से आने वाले मुसलमानों के लिए भी किया जाना चाहिए। पाकिस्तान और बांग्लादेश के मुसलमान, यदि वे भारत में आ जाते हैं, तो उनकी मांग पर, उनकी भारतीय नागरिकता उन्हें वापस देनी चाहिए। वापस देने का प्रसंग इसलिए उठ रहा है क्योंकि 1947 से पहले इन सभी के पास भारतीय नागरिकता ही थी। यदि भारत विभाजन न होता तो आज इनके पास वही भारतीय नागरिकता बनी रहती। अब यदि पाकिस्तान और बांग्लादेश के लाखों मुसलमान फिर से अपनी भारतीय नागरिकता प्राप्त करना चाहते हैं तो भारत के विभाजन के प्रश्न पर पुन: विचार करना होगा।

यदि विभाजन के सत्तर साल बाद भी पाक-बांग्लादेश के मुसलमान नागरिकों को भी यह लगता है कि इससे अच्छी भारत की नागरिकता ही थी, तब देश विभाजन के औचित्य पर तो प्रश्नचिन्ह लगेगा ही। यदि पाकिस्तान के नागरिकों को अंतत: भारत की नागरिकता ही वापस लेनी थी तो भारत का विभाजन कर एक नई पाकिस्तानी नागरिकता सृजित करने की जरूरत ही क्या थी? लेकिन इस विवाद के इस मोड़ पर एक और प्रश्न भी खड़ा होता है। पाकिस्तान के इन मुसलमान नागरिकों ने, जो समग्र भारतीय विरासत का हिस्सा ही थे और उनके पूर्वज भी हिंदू ही थे, स्वेच्छा से पाकिस्तानी नागरिकता के लिए संघर्ष किया था। इस संघर्ष में कम्युनिस्टों ने उनका साथ दिया था। कम्युनिस्ट जो मजहब के जनक ईश्वर के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करते, वे ही मजहब के आधार पर पाकिस्तान के निर्माण का समर्थन कर रहे थे। कांग्रेस शुरू में तो मजहब के आधार पर विभाजन का विरोध करती थी, लेकिन कांग्रेस कार्यसमिति ने 12 जून 1947 को भारत विभाजन का समर्थन करते हुए प्रस्ताव पारित कर दिया था। इसके बाद कांग्रेस के बड़े अभिकरण एआईसीसी यानी आल इंडिया कांग्रेस कमेटी के 14 जून को आहूत अखिल भारतीय अधिवेशन में इस प्रस्ताव का अनुमोदन कर दिया गया। लेकिन इन दोनों प्रस्तावों के पारित करने से भी पहले 3 जून 1947 को कांग्रेस, मुस्लिम लीग और उस समय के ब्रिटिश भारत के वायसराय लार्ड माऊंटबेटन ने संयुक्त प्रेस कान्फ्रेंस में ब्रिटिश भारत के विभाजन और एक नए देश पाकिस्तान के निर्माण की घोषणा की। इस प्रकार कांग्रेस ने मुस्लिम लीग की अलग पाकिस्तानी नागरिकता की मांग के आगे हथियार डालते हुए अंतिम दिनों में उनके सहयोगी की भूमिका को स्वीकार किया था। मुस्लिम लीग शुरू से ही भारतीय मुसलमानों के लिए पाकिस्तानी नागरिकता की मांग कर रही थी। लेकिन अब वही कांग्रेस और वही मुस्लिम लीग मानसिकता के संगठन यह कह रहे हैं कि पाकिस्तान (बांग्लादेश उसी का हिस्सा था) के नागरिकों को भी पुन: उनकी भारतीय नागरिकता वापस देनी चाहिए।

यदि कांग्रेस, कम्युनिस्टों और मुस्लिम लीग को सचमुच यह लगता है कि पाक-बांग्लादेश के मुसलमानों को भी उनकी भारतीय नागरिकता वापस मिलनी चाहिए तो जिन मुसलमानों को सडक़ों पर लाकर वे तोडफ़ोड़ और आगजनी कर रहे हैं, पाकिस्तान, बांग्लादेश के हिंदू, सिख और बौद्ध शरणार्थियों को उनकी पुरानी भारतीय नागरिकता देने का विरोध कर रहे हैं, उनको साथ लेकर पहले कदम के तौर पर पाकिस्तान-बांग्लादेश और भारत के एक परिसंघ के निर्माण की मांग उठाएं। जाहिर है कि इसकी शुरुआत कांग्रेस को और ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे हजार, इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह’ के नारे लगा रहे मुसलमानों को ही करनी होगी। यदि अरब, तुर्क, मंगोल और मुगल मूल के मुसलमान इससे न भी सहमत हों तो केवल भारतीय मुसलमानों को ही सडक़ों पर भारत विभाजन समाप्त करने के लिए नारे ही नहीं लगाने होंगे, बल्कि उसके लिए प्रयास भी करना होगा। राम मनोहर लोहिया ने बहुत अरसा पहले यह प्रस्ताव रखा था। इसके बाद यदि मुसलमानों को लगे कि उनकी पाकिस्तानी और बांग्लादेशी नागरिकता के कोई मायने नहीं बचे हैं तो फिर वे स्वयं एकीकृत भारत की मांग उठाएं। लेकिन क्या कांग्रेस सचमुच ह्रदय से भारत विभाजन की अपनी मूर्खता को स्वीकार कर पाक, बांग्लादेश के नागरिकों को उनकी पुरानी भारतीय नागरिकता वापस दिलवाना चाहती है या एक बार फिर उनका अपनी सत्ता वापसी के लिए सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करना चाहती है, यह देखने वाली बात होगी।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

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