स्थिर और मजबूत रुपए की आहट

इन सब प्रयासों के मद्देनजर सरकार द्वारा प्रोत्साहित सभी क्षेत्रों में निवेश में अभूतपूर्व वृद्धि देखने को मिल रही है। इससे आयातों पर अंकुश लगेगा व निर्यातों को भी प्रोत्साहन मिलेगा…

कई दशकों की लगातार गिरावट के बाद वर्ष 2023-24 में रुपया स्थिर होने लगा है, खासकर इसकी तीसरी और चौथी तिमाही में। हम कह सकते हैं कि वर्ष 2023-24 भारतीय रुपए के लिए बहुत शुभ रहा। गौरतलब है कि वर्ष 2023-24 की पहली दो तिमाहियों में रुपए में डॉलर के मुकाबले मात्र 1.0 प्रतिशत का अवमूल्यन हुआ था। लेकिन इस वित्तीय वर्ष की अंतिम दो तिमाहियों में रुपया-डॉलर विनिमय दर 83.0 रुपए प्रति डॉलर के आसपास स्थिर हो गई। इस प्रकार की स्थिति आम तौर पर अतीत में नहीं देखी गयी है। हम देखते हैं कि 1980 के दशक से ही रुपए का मूल्य लगातार गिरता रहा है, जब हमारा देश प्रशासित विनिमय दर की व्यवस्था से हटकर बाजार द्वारा निर्धारित विनिमय दर पर आ गया था। यह उल्लेखनीय है कि रुपया-डॉलर विनिमय दर 1982 में 9.46 रुपए प्रति अमरीकी डॉलर से बढक़र 31 मार्च 2023 में 82.17 रुपए प्रति अमरीकी डॉलर हो गई थी। इसका अभिप्राय यह है कि 1982 से लेकर मार्च 2023 तक डॉलर में 868.6 प्रतिशत की गिरावट आई है, यानी पिछले 41 सालों में 5.41 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से रुपए का अवमूल्यन हुआ है। ऐसा देश में तेजी से बढ़ते आयातों और उससे कहीं कम गति से बढ़ते निर्यातों के कारण हुआ है।

घटता चालू खाता घाटा : पिछले एक साल में, हम माल और सेवाओं के निर्यात में उल्लेखनीय वृद्धि देख रहे हैं। चालू खाते पर घाटा वर्ष 2023-24 की पहली तीन तिमाहियों में घटकर केवल 28 अरब अमरीकी डॉलर रह गया है, जो भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 1.2 प्रतिशत है। चौथी तिमाही के पहले दो महीनों में घाटा अधिशेष में बदल गया है। यदि यही प्रवृत्ति जारी रहती है, तो पूरे वर्ष के लिए चालू खाते पर घाटा लगभग 30 अरब अमरीकी डॉलर तक कम हो सकता है, जो सकल घरेलू उत्पाद का एक प्रतिशत से भी कम हो सकता है, जो वर्ष 2022-23 के चालू खाते पर घाटे (66 बिलियन अमरीकी डॉलर, सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 2 प्रतिशत) से बहुत कम है। वित्तीय वर्ष 2023-24 की पहली तीन तिमाहियों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, हालांकि थोड़ा कम है, लेकिन भारतीय मूल के लोगों से आने वाले प्रेषण में वृद्धि से इसकी भरपाई हो रही है। इसी प्रकार, अमरीका और यूरोप में बढ़ती बेरोजगारी के बावजूद, भारतीय मूल के लोगों से आने वाले धन में वृद्धि जारी रही और 2022-23 में 125 अरब अमरीकी डॉलर के मुकाबले 2023-24 में इसके 135 अरब अमरीकी डॉलर होने की संभावना है।

डॉलर की बढ़ रही हैं मुश्किलें : प्रथम विश्व युद्ध के बाद से ही हम डॉलर के मूल्य में निरंतर वृद्धि देख रहे हैं। प्रथम विश्व युद्ध के बाद मित्र राष्ट्रों ने आपूर्ति के बदले में संयुक्त राज्य अमरीका को सोने में भुगतान करना शुरू कर दिया, जिसके कारण अमरीका दुनिया का सबसे बड़ा स्वर्ण भंडार बन गया। युद्ध की समाप्ति के बाद विभिन्न देशों ने अपनी मुद्राओं को डॉलर से जोड़ दिया और इसके साथ ही दुनिया में ‘गोल्ड स्टैंडर्ड’ समाप्त हो गया और इस प्रकार डॉलर दुनिया की सबसे पसंदीदा मुद्रा बन गई। सभी देश अपने विदेशी मुद्रा भंडार का अधिक से अधिक हिस्सा डॉलर के रूप में रखने लगे। लेकिन वर्ष 2000 के बाद अंतरराष्ट्रीय रिजर्व मुद्रा के रूप में डॉलर का महत्व कम होता गया और अब यह लगभग 58 प्रतिशत पर पहुंच गया है। इतिहास में दुनिया भर के देशों के डॉलर के प्रति आकर्षण के कारण, डॉलर दुनिया की अन्य मुद्राओं, विशेष रूप से विकासशील देशों की मुद्राओं के मुकाबले लगातार मजबूत होता गया। भारत में जहां 1964 में एक डॉलर केवल 4.66 रुपए के बराबर था और अब यह लगभग 83.38 रुपए प्रति अमरीकी डॉलर तक पहुंच गया है। शायद इसीलिए दुनिया के सभी देश डॉलर को आरक्षित मुद्रा के रूप में रखने और अपने सभी अंतरराष्ट्रीय भुगतान केवल डॉलर में करने में रुचि रखते हैं। डॉलर की इस बढ़ती मांग के कारण, डॉलर साल दर साल मजबूत होता रहा। हालांकि वर्ष 2000 में अंतरराष्ट्रीय रिजर्व करंसी के रूप में अमरीकी डॉलर का हिस्सा 70 प्रतिशत से घटता हुआ अभी तक मात्र 58 प्रतिशत ही रह गया है, लेकिन अमरीकी फेडरल रिजर्व का दावा है कि अमरीकी डॉलर वैश्विक स्तर पर सबसे पसंदीदा मुद्रा बनी हुई है, लेकिन समझना होगा कि डॉलर की लोकप्रियता में गिरावट निरंतर जारी है।

विडॉलरीकरण का स्पष्ट संकेत : हम देखते हैं कि अधिकांश देश धीरे-धीर,े लेकिन निश्चित रूप से डॉलर व्यापार से दूर जा रहे हैं। इसके बजाय वे व्यापार का निपटान अपनी मुद्राओं में करना चाहते हैं। उदाहरण के लिए, भारत पहली बार व्यापार निपटान के लिए रुपया-व्यापार तंत्र को बढ़ावा दे रहा है, और लगभग 20 देशों ने, जिनमें अन्य देशों के अलावा सिंगापुर, ब्रिटेन, मलेशिया, इंडोनेशिया, हांगकांग, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत, ओमान, कतर भी शामिल हैं, इसके लिए सहमति व्यक्त की है और इसे सुविधाजनक बनाने के लिए वास्ट्रो खाते खोले हैं। चीन भी युआन में व्यापार निपटान के लिए जोर दे रहा है। ये वैकल्पिक व्यापार निपटान तंत्र धीरे-धीरे गति पकड़ रहे हैं। हालांकि, डॉलर का हिस्सा अभी भी लगभग 58 प्रतिशत है, फिर भी यह बदलाव स्पष्ट और ध्यान देने योग्य है। अमरीकी डॉलर के प्रभुत्व और व्यापार के निपटान के लिए बड़ी मात्रा में अमरीकी डॉलर रखने की मजबूरी, सामान्य रूप से दुनिया और विशेष रूप से विकासशील देशों के लिए यह बहुत शुभ नहीं रही है। डॉलर का वैश्विक रिजर्व करंसी के रूप में प्रभुत्व विकासशील देशों के लिए शुभ नहीं रहा है। एक तरफ अमरीकी डॉलर की अस्थिरता और दूसरी तरफ उसके बावजूद डॉलरों के भंडार को रखने की मजबूरी ने उन्हें नुकसान पहुंचाया है। हाल ही में रूस-यूक्रन संघर्ष और दुनिया में अन्य प्रकार से अशांति और बाधाओं के कारण से कुछ विकासशील देशों और क्षेत्रीय ब्लॉकों द्वारा घरेलू मुद्राओं में व्यापार करने के प्रयासों को मदद मिली है, जिससे अमरीकी डॉलर पर निर्भरता कम हुई है। इसने अमरीकी वैश्विक वित्तीय आधिपत्य के लिए एक बड़ा झटका दिया है। कच्चे तेल के आयात में अमरीकी डॉलर की अनिवार्यता की समाप्ति, गैर-डॉलरीकरण और अंतरदेशीय व्यापार में राष्ट्रीय मुद्राओं के उपयोग में वृद्धि की दिशा में चल रहे वैश्विक रुझान को दर्शाती है। सबसे पहले, रूस से कच्चे तेल की बड़ी खरीद और रुपए और गैर-डॉलर मूल्यवर्ग के भुगतान करना, भारत-यूएई द्वारा भारतीय रुपए में समझौता, दक्षिणी विश्व के देशों के लिए एक उदाहरण स्थापित करता है। यह उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय मुद्राओं में व्यापार करने से विकासशील देशों को बड़े लाभ हुए हैं, जिसमें विनिमय दरों में कमी और अमरीकी डॉलर से जुड़ी अस्थिरता को कम करके व्यापार को अधिक पूर्वानुमानित और स्थिर बनाना शामिल है।

आत्मनिर्भर औद्योगिक नीति का भी मिल रहा लाभ : गौरतलब है कि पिछले लगभग 3 दशकों से ज्यादा समय से देश में आयात तेजी से बढ़े हैं, जबकि निर्यातों में पर्याप्त वृद्धि नहीं हुई है। देश में बढ़ती आमदनियों और औद्योगिक विकास के अभाव में देश में आयात लगातार बढ़ते गए और निर्यातों में पर्याप्त वृद्धि नहीं हुई, यह देश में रुपए के अवमूल्यन का एक बड़ा कारण बना। लेकिन वर्ष 2021 में कोरोना महामारी से सीख लेते हुए भारत ने तेजी से आत्मनिर्भरता के रास्ते पर चलना शुरू किया है। पीएलआई यानी उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन के माध्यम से अब उन सब उद्योगों को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जा रहा है, जो गैरबराबरी की विदेशी प्रतिस्पद्र्धा के कारण बंद हो गए थे। इसके साथ ही साथ नई पीढ़ी के उद्योगों जैसे सोलर विद्युत उपकरण, सेमी कंडक्टर, टेलीकॉम और ड्रोन इत्यादि को भी प्रोत्साहित करने का प्रयास चल रहा है। इन सब प्रयासों के मद्देनजर सरकार द्वारा प्रोत्साहित सभी क्षेत्रों में निवेश में अभूतपूर्व वृद्धि देखने को मिल रही है। इन सबके कारण जहां एक ओर आयातों पर अंकुश लगेगा, निर्यातों को भी प्रोत्साहन मिलेगा। इससे भारत का व्यापार घाटा और भुगतान शेष घाटा कम होंगे।

डा. अश्वनी महाजन

कालेज प्रोफेसर