बुद्धिजीवियों की फितरत से बढ़ते मुखौटे

पीके खुराना

( लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं )

हमारे देश का बुद्धिजीवी वर्ग अत्यधिक सुविधाभोगी हो गया है और उसके अपने निहित स्वार्थ हैं। वह सिर्फ ऐसे तर्क देता है जो तर्कसंगत लगते हैं, पर यह जानना कठिन होता है कि वे तर्क हैं या कुतर्क। दूसरी समस्या यह है कि बुद्धिजीवी वर्ग सिर्फ उपदेश देने पर आमादा है, वह अपने खुद के चरित्र के बारे में बात नहीं करता और जरा सी आलोचना होने पर भी रक्षात्मक हो जाता है, अन्यथा शायद लोकतंत्र में इतने मुखौटों की आवश्यकता न होती…

मीडिया सदैव से ही जनमत बनाने की भूमिका निभाता रहा है और मीडिया यानी समाचार-पत्रों और टेलीविजन चैनलों में सोशल मीडिया भी जुड़ गया है जो हमारी विचारधारा को प्रभावित करने का एक बड़ा औजार बन गया है। स्मार्टफोन सस्ते हो गए हैं और इन फोनों पर इंटरनेट भी इतना किफायती है कि हर कोई इसका लाभ उठा सकता है। इसका सीधा-सीधा असर यह हुआ है कि लोग अपने फोन से ही फेसबुक, व्हाट्सऐप, टेलीग्राम, ट्विटर आदि के माध्यम से एक-दूसरे से जुड़ गए हैं और खबरों या अफवाहों का फैलना-फैलाना बहुत आसान हो गया है। ऐसे में विभिन्न मसलों पर चर्चा के ज्यादा आयाम सामने आने लगे हैं, फिर भी कई मुद्दे ऐसे हैं जिन पर न मीडिया का ज्यादा ध्यान गया है और न सोशल मीडिया का। इन मुद्दों पर गाहे-बगाहे चर्चा हुई तो है, लेकिन वह चर्चा मात्र एक अकेली इक्की-दुक्की घटना के रूप में समय के इतिहास में विलुप्त हो गई। हमारे देश के राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता निम्नतम स्तर पर है। मोदी समर्थकों ने झूठ और सच के घालमेल से मोदी की विश्वसनीयता बनाने और बढ़ाने का काम सतत जारी रखा है और संघ की विचारधारा से प्रभावित तथा हिंदू धर्म के पुनरोत्थान के लिए उत्सुक लोगों में इसका खासा प्रभाव है। चूंकि इसमें भी सब कुछ सच नहीं है, इसलिए हमारे लोकतंत्र में अब भी मुखौटे लगाकर काम चलाने वाले लोगों की कमी नहीं है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे देश में अंग्रेजों के बनाए बहुत से ऐसे कानून लागू हैं जिनके कारण झूठ बोलना एक विवशता बन जाती है।

हर राजनीतिक व्यक्ति जानता है कि चुनावों में एक ही चुनाव क्षेत्र में दस-बीस करोड़ का खर्च आम बात है, पर हमारे देश का कानून किसी उम्मीदवार को सच बोलने की इजाजत नहीं देता। यदि उम्मीदवार अपने चुनाव से जुड़े खर्च का सही हिसाब दें तो वे चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिए जाएंगे। मीडिया में इस पर गाहे-बगाहे चर्चा होती रहती है, लेकिन इसे हम लोकतंत्र की एक विसंगति मानकर बर्दाश्त करते चले आ रहे हैं। नोटबंदी के बाद राजनीतिक दलों को अपने सदस्यों और समर्थकों से चंदा लेने और उसका हिसाब न देने की छूट ने नई विसंगतियां पैदा की हैं। सोशल मीडिया पर विधायकों और सांसदों को सस्ता खाना, मुफ्त यात्रा तथा ऐसी अन्य सुविधाओं की चर्चा है, लेकिन चुनाव खर्च, राजनीतिज्ञों की संपत्ति और राजनीतिक दलों को मिलने वाली सुविधाओं और चंदे की बात पर कोई गहन चर्चा सिरे से नदारद है। ऐसा ही एक और उदाहरण शिक्षा संस्थानों की स्थापना का है, जहां देश का कानून व्यक्ति को झूठी सूचना देने के लिए बाध्य करता है। हमारे देश में शिक्षा संस्थान की स्थापना कोई एक अकेला व्यक्ति या परिवार नहीं कर सकता। कानून यह कहता है कि उसके लिए कोई सामाजिक संगठन अथवा ट्रस्ट होना आवश्यक है। ऐसे में कई उद्यमी ऐसी सामाजिक संस्थाएं बनाने के लिए विवश हैं, जो सिर्फ सरकारी कागजों तक सीमित हैं और उनका कहीं असल अस्तित्व नहीं है। ऐसी सोसायटी अथवा ट्रस्ट के बाकी सदस्य, यहां तक कि पदाधिकारी भी दिखावे भर के लिए होते हैं या हो सकते हैं और कोई एक परिवार अथवा व्यक्ति उन्हें चला रहा हो सकता है। बहुत से राजनीतिज्ञों के स्कूल तथा अन्य शिक्षण संस्थान ऐसे हैं, जिनके स्वामित्व के बारे में सारी दुनिया को जानकारी है, लेकिन सरकारी कागजों में उनका स्वामित्व साबित नहीं किया जा सकता।

जनता पार्टी के पतन के बाद इंदिरा कांग्रेस के समर्थन से बनी चरण सिंह सरकार बीस दिन बाद ही इंदिरा गांधी द्वारा समर्थन वापसी की घोषणा के बाद अल्पमत में आ गई। नवंबर, 1989 में यही इतिहास एक बार फिर दोहराया गया, जब सिर्फ 39 सांसदों वाली चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी की सहायता से सत्ता में आई, लेकिन चार महीने बाद ही कांग्रेस ने समर्थन वापस लेकर उसकी कब्र खोद दी। लोकतंत्र के उपहास का यह एक अजीब उदाहरण है। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस का ऐसा बहुमत था कि वे संविधान संशोधन की हिम्मत कर सकते थे। उनके बाद सत्ता में आई गठबंधन सरकारें इस सुविधा से वंचित रही हैं, क्योंकि उनके पास संविधान संशोधन के लिए अपेक्षित संख्या नहीं रही। ऐसे में अध्यादेश एक अस्थायी उपाय तो बना, पर उसके बल पर नया कानून बनवाना या पुराने कानूनों में संशोधन करवाना आसान नहीं है। ऐसे में जड़ कानूनों को बदलने का भी कोई गंभीर प्रयास नहीं हो पाता। राजनीतिक दलों के सदस्य, विधायक और सांसद तो पिंजरे के समान हैं जो सीखी-सिखाई बातें उगलने के लिए विवश हैं और अपने आकाओं के हर सही-गलत काम को जायज ठहराने ही नहीं, बल्कि जनहितकारी बताने के लिए विवश हैं। इसका दुष्परिणाम यह है कि हमारे संसदीय इतिहास में निजी बिल पास होने की संख्या अंगुलियों पर गिनी जा सकती है और पिछली आधी सदी में एक भी निजी बिल कानून नहीं बन पाया है।

आज हमें सोचना है कि हम अपने लिए कैसा लोकतंत्र चाहते हैं। क्या हमें झूठे प्रमाणों से काम करने की विवशता जारी रहनी चाहिए या इसमें बदलाव की कोई कोशिश की जानी चाहिए? क्या हम झूठ को सच प्रमाणित करते रहने के लिए विवश बने रहें या सच बता सकें। क्या हम कानून की बांह मरोड़ने और कानूनों से बच निकलने की पतली गलियां खोजने के लिए अभिशप्त हैं या इस स्थिति में सुधार का कोई गंभीर और सार्थक प्रयास होना चाहिए। यह तो हमारा दुर्भाग्य है ही कि हमारे देश के अव्यावहारिक कानून ही हमें झूठ बोलने पर विवशता करते हैं, पर हमारा दुर्भाग्य यहीं समाप्त नहीं हो जाता। हमारे देश का बुद्धिजीवी वर्ग अत्यधिक सुविधाभोगी हो गया है और उसके अपने निहित स्वार्थ हैं। वह सिर्फ ऐसे तर्क देता है जो तर्कसंगत लगते हैं, पर यह जानना कठिन होता है कि वे तर्क हैं या कुतर्क। दूसरी समस्या यह है कि बुद्धिजीवी वर्ग सिर्फ उपदेश देने पर आमादा है, वह अपने खुद के चरित्र के बारे में बात नहीं करता और जरा सी आलोचना होने पर भी रक्षात्मक हो जाता है, अन्यथा शायद लोकतंत्र में इतने मुखौटों की आवश्यकता न होती। पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के लिए मतदान या हो चुका है या जारी है। दो साल बाद ही फिर से लोकसभा चुनाव होंगे। चुनाव में ऐसे मुद्दों का चर्चा से एकदम गायब रहना अत्यंत खेद का विषय है। राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणा-पत्र झूठ के पुलिंदे से अधिक कुछ नहीं होते। इस स्थिति को बदलने की आवश्यकता है। सच कहने और सुनने की हिम्मत जुटाने की आवश्यकता है। लोकतंत्र तभी सफल होगा, तभी सार्थक होगा। उम्मीद करनी चाहिए कि हमारा मीडिया और हर जिम्मेदार नागरिक इसे एक मुहिम बनाने का प्रयत्न करेगा, ताकि हम मुखौटों-रहित जीवन के लिए तैयार हो सकें।

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