अराजकता पर आत्ममंथन करे ‘आप’

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

अगर भाजपा को जीत मिली है, तो इसका एक ही कारण है कि कांग्रेस जनता का विश्वास दोबारा पाने में तो असफल रही ही है, आम आदमी पार्टी ने भी लोगों का विश्वास खोया है। केजरीवाल और उनके साथी अभी हार के बहाने ढूंढ़ रहे हैं जो और हानिकारक सिद्ध होगा। उन्हें आत्ममंथन करना होगा, अपनी रणनीति फिर से परिभाषित करनी होगी अन्यथा आम आदमी पार्टी का प्रयोग इतिहास के अंधेरों में गर्त होते देर नहीं लगेगी। इस नज़रिये से अगले दो साल सचमुच रुचिकर होंगे…

अगस्त, 1968 में जन्मे 48 वर्षीय अरविंद केजरीवाल पिछले दो साल से भी अधिक समय से दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं। उनके मुख्यमंत्रित्व काल में पहली बार दिल्ली नगर निगम के चुनाव संपन्न हुए हैं। उत्तरी दिल्ली, दक्षिणी दिल्ली और पूर्वी दिल्ली की तीनों नगरपालिकाओं में भाजपा को फिर से बहुमत मिला है, जो पिछले 10 वर्षों से नगरपालिका में सत्ता में थी। लेकिन नगरपालिका के चुनाव परिणाम का विश्लेषण करने से पहले थोड़ा पीछे की ओर चलना मुनासिब होगा, ताकि हम सारे घटनाक्रम को सही ढंग से समझ सकें। केजरीवाल दिल्ली के सातवें मुख्यमंत्री हैं और वह दूसरी बार दिल्ली के मुख्यमंत्री बने हैं। अरविंद केजरीवाल ने ‘इंडिया अगेन्स्ट करप्शन’ आंदोलन से सुर्खियां बटोरीं। हालांकि पहले भी वह एक आरटीआई एक्टिविस्ट के रूप में प्रसिद्धि पा चुके थे। केजरीवाल आयकर विभाग में ज्वाइंट कमिश्नर रह चुके हैं। सरकारी सेवा में रहते हुए ही उन्होंने ‘परिवर्तन’ नामक एनजीओ स्थापित किया। ‘परिवर्तन’ एक आंदोलन बना और इसने पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम को लेकर काफी काम किया। बाद में सन् 2005 में उन्होंने ‘कबीर’ नामक एनजीओ की स्थापना की। उन्होंने आयकर विभाग में पारदर्शिता लाने के लिए भी आंदोलन चलाया, जिसकी काफी चर्चा हुई। सन् 2005 में अरुणा रॉय, शेखर सिंह और अन्ना के साथ रहते हुए सूचना के अधिकार को आंदोलन का रूप देने में उनका योगदान उल्लेखनीय था। इसी के फलस्वरूप उन्हें रैमन मैगसेसे पुरस्कार से नवाजा गया। सन् 2010 में उन्होंने राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी में हुए भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन किया और मंत्रियों के भ्रष्टाचार के मामलों की जांच के लिए लोकपाल की नियुक्ति का तर्क दिया। सन् 2011 में अन्ना हजारे, डा. किरण बेदी आदि भी उनसे आ मिले और अन्ना हजारे इंडिया अगेन्स्ट करप्शन आंदोलन का प्रमुख चेहरा बने। अरविंद केजरीवाल उस आंदोलन के प्रमुख रणनीतिकार थे।

इस आंदोलन को मीडिया और जनता का खुला समर्थन मिला और देश को पहली बार लगा कि यह जनता के सशक्तिकरण का उदाहरण है, जिसने सरकार को हिला रखा है। लेकिन जब सारे प्रयत्नों के बावजूद भी सरकार ने आंदोलनकारियों के मनमाफिक का लोकपाल बिल पेश नहीं किया तो अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी के नाम से राजनीतिक दल का गठन किया और राजनीति में प्रवेश की घोषणा की। डा. किरण बेदी ही नहीं, खुद अन्ना हजारे ने भी तब केजरीवाल को बुरा-भला कहा और उनमें कटुतापूर्ण अलगाव हो गया। सन् 2013 खात्मे पर था और दिल्ली विधानसभा का कार्यकाल पूरा होने को था। केजरीवाल की पार्टी ने दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ा और सारे विशेषज्ञों की भविष्यवाणियों को धत्ता बताते हुए 28 सीटों पर विजय प्राप्त की। सबसे बड़ी बात थी कि उन्होंने नई दिल्ली विधानसभा सीट से तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को हराकर इतिहास रचा था। भाजपा ने 31 सीटें लीं और सबसे बड़ी पार्टी बनी, लेकिन उसके पास बहुमत नहीं था और सारे प्रयासों के बावजूद वह अन्य दलों के विधायकों को तोड़ नहीं पाई, इसलिए उसने विपक्ष में बैठने का ऐलान किया। आम आदमी पार्टी को हालांकि बहुमत नहीं मिला था, लेकिन उसकी इस विजय ने भाजपा और कांग्रेस के खेमों में हलचल मचा दी। अंततः कांग्रेस के बाहरी समर्थन से केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी की सरकार का गठन किया और 8 दिसंबर, 2013 को वे दिल्ली के मुख्यमंत्री बने। तब वह केवल 49 दिनों तक ही मुख्यमंत्री रहे, लेकिन इस दौरान उनका क्रांतिकारी रवैया सदैव खबरों का कारण बनता रहा।

उन्होंने रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी के विरुद्ध एफआईआर दर्ज करवाई, बिजली कंपनियों को घुटने टेकने पर मजबूर किया, रैन बसेरों की स्थापना की शुरुआत की। लेकिन जनलोकपाल बिल पास न करवा पाने का बहाना बनाकर उन्होंने इस्तीफा दे दिया। केजरीवाल को उम्मीद थी कि इस कदम से उन्हें ‘शहीद’ मान लिया जाएगा और वे राष्ट्र के हीरो बन जाएंगे, लेकिन जनता ने उन्हें भगोड़ा माना। इससे केजरीवाल का ग्राफ एकदम से गिरा। केजरीवाल ने 2014 को लोकसभा चुनाव वाराणसी से लड़ा और उन्हें उम्मीद थी कि वह नरेंद्र मोदी को हराकर प्रधानमंत्री बन जाएंगे, लेकिन उन्हें भगोड़ा मान चुकी जनता ने आम आदमी पार्टी को पूरी तरह से नकार दिया। केवल पंजाब ऐसा प्रदेश रहा जहां उन्हें चार सीटों पर इसलिए विजय मिली, क्योंकि जनता बादल परिवार के भ्रष्टाचार से बहुत तंग थी और लोगों को कांग्रेस पर भी विश्वास नहीं था।ऐसे में आम आदमी पार्टी एक विकल्प के रूप में उभरी और उसे जनता का समर्थन भी मिला। लेकिन देश भर से मिली करारी हार को सबक मानकर केजरीवाल ने रणनीति बदली और पूरी तरह से दिल्ली पर फोकस किया। दिल्ली विधानसभा के दोबारा चुनाव हुए और आम आदमी पार्टी ने 70 में से 67 सीटें जीत कर फिर इतिहास रचा। इस दौरान डा. किरण बेदी भाजपा में शामिल हो गई थीं और उन्हें बीच चुनावों में भाजपा की मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार घोषित किया गया। बड़ी बात यह रही कि एक बहुत सुरक्षित मानी जाने वाली सीट से लड़ रहीं डा. बेदी भी चुनाव हार गईं। केजरीवाल दोबारा मुख्यमंत्री बने लेकिन इस बार उन्होंने विज्ञापनबाजी के अलावा कुछ ऐसा नहीं किया जिसे जनता याद रखती। राष्ट्रीय दल बनने और दिल्ली से बाहर निकल कर किसी और राज्य का मुख्यमंत्री बनने की उनकी ललक ने ‘आप’ की लुटिया डुबोई और नगरपालिका चुनावों में जनता ने उन्हें अस्वीकार कर दिया। उल्लेखनीय है कि लोकसभा चुनाव हारने के बाद केजरीवाल तो विनम्र हो गए और प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी को खुद पर अति आत्मविश्वास हो गया। परिणामस्वरूप दिल्ली में भाजपा का विजय रथ रुक गया। वे सूट-बूट की सरकार के रूप में पहचाने जाने लगे।

जनता ने उन्हें भी सबक सिखा दिया। अब मोदी ने भी खुद को बदला और अपनी रणनीति में भी परिवर्तन किया। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की बड़ी जीत ने उन्हें जनता का निर्विविद नेता बना दिया। योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और अपने क्रांतिकारी फैसलों से वे खबरों का केंद्र बन गए। सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबंदी आदि के कारण मोदी की लोकप्रियता बढ़ी थी और योगी आदित्यनाथ के फैसलों से जनता को यह लगा कि मोदी और उनके साथी काम करना चाहते हैं। दिल्ली नगर निगम में भाजपा के दस साल भ्रष्टाचार और निकम्मेपन की कहानी सुनाते हैं, इसके बावजूद अगर भाजपा को जीत मिली है तो इसका एक ही कारण है कि कांग्रेस जनता का विश्वास दोबारा पाने में तो असफल रही ही है। आम आदमी पार्टी ने भी लोगों का विश्वास खोया है। मतदाताओं को लगता है कि अब भाजपा बेहतर काम करके दिखाएगी, क्योंकि दो साल बाद ही लोकसभा चुनाव फिर होने वाले हैं और मोदी उस चुनौती से पार पाने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ दिखते हैं। केजरीवाल और उनके साथी अभी हार के बहाने ढूंढ रहे हैं जो और हानिकारक सिद्ध होगा। उन्हें आत्ममंथन करना होगा, अपनी रणनीति फिर से परिभाषित करनी होगी अन्यथा आम आदमी पार्टी का प्रयोग इतिहास के अंधेरों में गर्त होते देर नहीं लगेगी। इस नजरिए से अगले दो साल सचमुच रुचिकर होंगे।

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