आंदोलन की राह पर खेती-किसानी

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

यह कोई अजूबा नहीं है कि सब्जी मंडी में मूली का भाव एक रुपए किलो हो और मंडी के गेट के बाहर वही मूली दस रुपए किलो के भाव से बिक रही हो। केंद्र सरकार इसे राज्य सरकार का मामला बता कर पल्ला झाड़ लेती है और राज्य सरकार इसका दोष पूरे देश की मार्केटिंग व्यवस्था पर मढ़ देती है। भाजपा ने लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने और किसानों को उनकी उपज का लागत से डेढ़ गुना दाम दिलाने का वादा किया था, पर किया कुछ नहीं…

ग्रामीण अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है। छोटे किसानों के लिए खेती अब फायदे का धंधा नहीं है। आम जनता को किसानों की समस्याओं का अंदाजा नहीं है और हमारे नीति निर्धारक कई कारणों से किसानों की समस्याओं की अनदेखी करते जा रहे हैं। कभी सूखा, कभी अकाल, कभी ओलावृष्टि और कभी बाढ़ किसानों की फसल को बर्बाद कर डालते हैं। तेज बारिश के समय फसल खराब होने के साथ-साथ किसानों और मजदूरों के कच्चे घर भी टपकने लगते हैं या ढह जाते हैं। अधिकांश छोटे किसान इस नुकसान को झेलने की हालत में नहीं होते क्योंकि वे पहले से ही कर्ज में दबे होते हैं। कृषि संकट में आत्महत्याओं के ज्यादातर मामले नकदी फसलों से जुड़े किसानों के हैं। जब तक फसल किसान के पास रहती है, उसके दाम बहुत कम होते हैं लेकिन बाजार में पहुंचने के तुरंत बाद दामों में तेजी आ जाती है। नकदी फसलों से जुड़े किसान भी अपनी जरूरत का खाद्यान्न बाजार से खरीदते हैं जो उन्हें महंगे भाव पर मिलता है, जिससे वे हमेशा कर्ज से दबे रहते हैं और सूखा या बाढ़ न होने पर भी उनका जीवन आसान नहीं होता। विभिन्न सरकारी नियमों ने धीरे-धीरे खेती को अनुपयोगी और अलाभप्रद बना दिया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अंधाधुंध प्रचार से प्रभावित किसानों ने आर्गेनिक खेती छोड़ कर विषैली खेती को अपनाया, कुछ समय तक फसल बढ़ती नजर आई पर कुछ ही दशकों में जमीन की उत्पादकता घट गई, पानी का स्तर नीचे चला गया और किसानों के बच्चे अन्य व्यवसायों में जाने के लिए विवश हुए, किसानों की आत्महत्याएं हुईं और यह कह दिया गया कि चूंकि कृषि क्षेत्र में नए रोजगार संभव नही हैं इसलिए उद्योग को बढ़ावा देना आवश्यक है। परिणाम यह हुआ कि औद्योगीकरण के लिए पूंजी और संसाधनों को खेती से उद्योगों के पक्ष में स्थानांतरित किया जाने लगा। इसे समझने के लिए हमें कृषि लागत और मूल्य आयोग के कीमतें तय करने के फार्मूले को समझना होगा। नियम यह है कि खेती को अकुशल कार्य माना गया है और यह कहा गया है कि किसान साल में केवल 160 दिन काम करता है। इस तरह खेती की उपज का हिसाब बनाते समय उसकी मजदूरी कम लगाई जाती है। टै्रक्टर, कल्टीवेटर, हार्वेस्टर चलाने वाला, मौसम को समझकर खेती के फैसले करने वाला, फसलों की किस्मों और बीजों को समझने वाला, सिंचाई के उपाय करने वाला, पैदावार को बाजार ले जाकर बेचने और हिसाब-खाता रखने वाला किसान तो अकुशल है जबकि सफाई कर्मचारी, ड्राइवर, चपरासी, चौकीदार आदि को ‘कुशल कर्मचारी’ माना गया है। इन सब लोगों को साल में 180 दिन की छुट्टियां मिलती हैं, यानी साल के 185 दिन काम करने के बावजूद पूरे 365 दिन का वेतन, महंगाई भत्ता और सालाना इन्क्रीमेंट मिलती है जबकि किसान को बिना किसी छुट्टी के अपनी फसल की चौकीदारी हर दिन करनी पड़ती है तो भी वह केवल 160 दिन की मजदूरी पाता है और वह भी अकुशल के ठप्पे के कारण कम दाम पर। यही नहीं, सरकार इनके लिए जो न्यूनतम मूल्य घोषित करती है, अकसर वह भी इन्हें नहीं मिलता क्योंकि किसान खुद फसलों की खरीद करने के बजाय उन्हें दलालों-आढ़तियों के भरोसे छोड़ देता है जो हर तरह से उनका शोषण करते हैं।

किसानों की आमदनी घटकर अलाभप्रद हो गई है। सन् 2013 में बासमती धान पर किसानों को 4500 रुपए क्विंटल मिलते थे, आज उसी पर 2000 रुपए क्विंटल के दाम मिल रहे हैं, कपास 7000 रुपए क्विंटल के बजाय 4000 रुपए क्विंटल में बिक रही है, गन्ने पर 350 रुपए क्विंटल की जगह 180 रुपए क्विंटल मिल रहे हैं। यही हाल आलू, टमाटर, सेब और दालों का भी है। किसानों को कम पैसे मिल रहे हैं जबकि खुदरा मूल्य बढ़े हैं। इसका दोहरा नुकसान हुआ है। आम जनता की खरीददारी की हैसियत में कमी आई है और किसानों की आर्थिक हालत और ज्यादा बिगड़ी है। एक और तथ्य यह है कि दालों के लिए हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा उत्पादक, उपभोक्ता व आयातक है। दुनिया की कुल दाल की खेती के एक तिहाई भाग में हम दाल की खेती करते हैं। दुनिया के दाल उत्पादन का 20 प्रतिशत उत्पादन हमारे यहां होता है। परंतु हमारे नेताओं ने दाल को दूसरे दर्जे का अनाज मानकर इसके विकास पर समुचित ध्यान ही नहीं दिया। हम गेहूं-चावल में ही लगे रहे और दाल की कमी को आयात के सहारे पूरा करते रहे। सरकारी उपेक्षा के कारण किसान इस फसल की ओर आकर्षित नहीं हुए क्योंकि लंबी अवधि की फसल होने के साथ इसमें कीटों व बीमारियों का खतरा अधिक था, अच्छे बीजों की कमी थी और किसान को बाजार में दलहन की फसल के खरीददार भी नहीं मिलते थे। 2008 से सरकार ने दालों के समर्थन मूल्य की घोषणा शुरू तो कर दी, परंतु सरकार द्वारा खरीद न करने के कारण किसान को व्यापारियों पर ही आश्रित रहना पड़ता है। विवश होकर किसान दलहन की फसलों से किनारा करते रहे। नतीजतन 1980-81 मे 22.46 मिलियन हेक्टेयर में 10.63 मिलियन टन के उत्पादन को 35 वर्ष बाद 2013-14 में हम 19.7 मिलियन टन तक ही पहुंचा पाए।

सरकारी नियमों में इतने सारे झोल हैं कि चौतरफा कार्रवाई के बिना इस समस्या का पार पाना संभव नहीं है। यह कोई अजूबा नहीं है कि सब्जी मंडी में मूली का भाव एक रुपए किलो हो और मंडी के गेट के बाहर वही मूली दस रुपए किलो के भाव से बिक रही हो। केंद्र सरकार इसे राज्य सरकार का मामला बता कर पल्ला झाड़ लेती है और राज्य सरकार इसका दोष पूरे देश की मार्केटिंग व्यवस्था पर मढ़ देती है। भाजपा ने लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने और किसानों को उनकी उपज का लागत से डेढ़ गुना दाम दिलाने का वादा किया था, पर किया कुछ नहीं। यह समझना भी आवश्यक है कि कृषि के पक्ष की बात करने का मतलब यह नहीं है कि हम उद्योगों के विरुद्ध काम करना शुरू कर दें। सच तो यह है कि यदि आप विश्व की सौ सबसे बड़ी आर्थिक शक्तियों की सूची बनाएं तो पहले 63 स्थानों पर भिन्न-भिन्न देशों का नाम आता है और शेष 37 स्थानों पर आईबीएम, माइक्रोसॉफ्ट तथा पेप्सिको जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं। विश्व के शेष देश भी इन कंपनियों से बहुत छोटे हैं। इनमें से बहुत सी कंपनियां शोध और समाजसेवा पर नियमित रूप से बड़े खर्च करती हैं। इन कंपनियों के सहयोग से बहुत से क्रांतिकारी आविष्कार हुए हैं, जो शायद अन्यथा संभव ही न हुए होते। अतः औद्योगिकीकरण का विरोध करने के बजाय हमें ऐसे नियम बनाने होंगे कि बड़ी कंपनियां हमारे समाज के लिए ज्यादा लाभदायक साबित हों तथा उनके कारण आने वाली समृद्धि सिर्फ एक छोटे से तबके तक ही सीमित न रह जाए, बल्कि वह समाज के सबसे नीचे के स्तर तक प्रवाहित हो। उद्योगों और कृषि में संतुलन लाना हमारी आवश्यकता है वरना किसानों की आत्महत्याओं पर सिर्फ राजनीति होती रहेगी, कोई हल कभी नहीं निकलेगा। 1

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