नई आशाओं की राष्ट्रपति प्रणाली

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

अब समय आ गया है कि हम राष्ट्रपति प्रणाली अपनाएं, ताकि देश में कुछ विवेक का संचार हो सके। यह एक संयोग ही था कि उसी दिन मैंने भी ‘वह सुबह कभी तो आएगी’ शीर्षक से ट्वीट करके लिखा कि ‘काश हमारे देश में अमरीकी पद्धति की राष्ट्रपति शासन प्रणाली होती तो मोदी शायद एक बहुत अच्छे राष्ट्रपति साबित होते। तब शायद बाकी सारे काश खत्म हो जाते, क्योंकि तब मोदी को सरकार गिरने की चिंता न होती, लोकसभा या राज्यसभा में सदस्यों की गिनती बढ़ाने की चिंता न होती और सिर्फ काम पर ध्यान होता…

यह खबर एकदम चौंकाने वाली थी कि भाजपा ने बिहार के राज्यपाल महामहिम रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद के लिए एनडीए का उम्मीदवार बनाया है। विपक्ष को झक मारकर उनके मुकाबले में मीरा कुमार को लाना पड़ा। कोविंद दलित वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसलिए विपक्ष की भी विवशता हो गई कि वह किसी जाने-पहचाने दलित नेता को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाए। मीरा कुमार विपक्ष की इसी विवशता का नतीजा थीं। मोदी ने एक दलित को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर एक बार फिर एक तीर से कई शिकार कर लिए। विपक्ष उनके इस अस्त्र के लिए तैयार नहीं था और मोदी को विपक्ष पर एक निर्णायक बढ़त मिल गई। मोदी की इस बढ़त के जवाब में विपक्ष ने उपराष्ट्रपति पद के लिए महात्मा गांधी के पौत्र गोपालकृष्ण गांधी को विपक्ष का संयुक्त उम्मीदवार बनाया है, जबकि एनडीए की ओर से भाजपा के वरिष्ठ नेता वैंकेया नायडू को उम्मीदवार बनाया गया है। इसी सप्ताह सोमवार को राष्ट्रपति पद के लिए मतदान हुआ। वोट गिनना और परिणाम घोषित करना तो औपचारिकता है। सारा देश जानता है कि केंद्र और अधिकांश राज्यों में बहुमत के कारण इस चुनाव में एनडीए उम्मीदवार को बढ़त हासिल है और वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी शीघ्र ही ‘भूतपूर्व’ हो जाएंगे। इसी प्रकार उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए होने वाला मतदान भी एक औपचारिकता मात्र है और देश के अगले उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ही होंगे।

राष्ट्रपति चुनाव में चूंकि दोनों उम्मीदवार दलित वर्ग से थे, इसलिए मीडिया ने इसे दलित बनाम दलित का मुद्दा बना दिया। विपक्ष की संयुक्त उम्मीदवार मीरा कुमार ने कहा भी कि मीडिया सिर्फ इस बात की चर्चा कर रहा है कि राष्ट्रपति पद के दोनों उम्मीदवार दलित वर्ग से हैं, लेकिन कोई भी दोनों उम्मीदवारों की योग्यता, उपलब्धियों आदि की चर्चा नहीं कर रहा है। इस जीत से मोदी को होने वाले राजनीतिक लाभ की चर्चा हो रही है, लेकिन मुद्दों की बात नहीं की जा रही है। उनके इस बयान के बावजूद मीडिया के रुख में कोई परिवर्तन नहीं आया और चर्चा दलित बनाम दलित तक ही सीमित रही। ऐसे में ‘दिव्य हिमाचल’ के चेयरमैन भानु धमीजा ने मतदान से एक दिन पूर्व 16 जुलाई को ट्वीट करके यह कहा कि ‘मोदी स्वयं राष्ट्रपति बनें, तो भारत के भविष्य के लिए अच्छा हो’ और इसके आगे जोड़ा कि ‘मोदी देश को वह संविधान दे सकते हैं, जैसा हमारे संविधान निर्माता चाहते थे’। उनकी वेबसाइट ‘प्रेजिडेंशियल सिस्टम.ओआरजी’ पर इसका खुलासा था कि ‘मोदी एक ऐसे भारतीय नेता बन सकते हैं जो भारतीय संविधान निर्माताओं की मिश्रित संसदीय-राष्ट्रपति प्रणाली की परिकल्पना को आखिरकार मूर्त रूप दे पाएं।’ उधर मुंबई से फोरम फॉर प्रेजिडेंशियल डेमोक्रेसी के सह संयोजक ओपी मोंगा ने उसी दिन ट्वीट करके कहा कि कल देश एक बार फिर एक शक्तिहीन राष्ट्रपति चुन लेगा। अब समय आ गया है कि हम राष्ट्रपति प्रणाली अपनाएं, ताकि देश में कुछ विवेक का संचार हो सके। यह एक संयोग ही था कि उसी दिन मैंने भी ‘वह सुबह कभी तो आएगी’ शीर्षक से ट्वीट करके लिखा कि ‘काश हमारे देश में अमरीकी पद्धति की राष्ट्रपति शासन प्रणाली होती तो मोदी शायद एक बहुत अच्छे राष्ट्रपति साबित होते। तब शायद बाकी सारे काश खत्म हो जाते, क्योंकि तब मोदी को सरकार गिरने की चिंता न होती, लोकसभा या राज्यसभा में सदस्यों की गिनती बढ़ाने की चिंता न होती, राज्यों में अपनी सरकारें लाने की चिंता न होती, किसी जोशी या आडवाणी को साइडलाइन करने की जुगत न भिड़ानी पड़ती और सिर्फ काम पर ध्यान होता। पर, काश ऐसा हो पाता। काश, हमारे देशवासी अमरीकी प्रणाली का गहराई से अध्ययन करते, काश विपक्ष अमरीकी प्रणाली के प्रति खुले मन से विचार को तैयार होता! काश…. ’

इन तीनों ट्वीट्स में भारतीय जनता का वह दर्द छिपा हुआ है, जिसकी हमारे राजनेता लगातार उपेक्षा कर रहे हैं। हम जानते हैं कि हमारे संविधान निर्माताओं ने विश्व के बहुत से संविधानों का अध्ययन करके एक ऐसे संविधान की रचना की कोशिश की थी, जिसमें सभी संविधानों के गुणों का मेल हो और अनेकता वाले भारतीय समाज को न केवल एक सूत्र में पिरो सके, बल्कि एक अच्छी शासन व्यवस्था भी दे सके। यह हमारा दुर्भाग्य है कि इंदिरा गांधी ने आपातकाल के समय संविधान के साथ बलात्कार किया और इसके कई अच्छे प्रावधान बदल डाले। राष्ट्रपति को रबड़ की मुहर बना दिया, राज्यों को और कमजोर कर दिया। बाद में राजीव गांधी ने दलबदल विरोधी कानून का ऐसा प्रारूप पेश किया, जिसने राजनीतिक दलों को हमेशा के लिए प्राइवेट कंपनियों में बदल दिया। अब संवैधानिक स्थिति यह है कि यदि प्रधानमंत्री के दल के पास स्पष्ट बहुमत हो, तो प्रधानमंत्री लगभग तानाशाह बन सकता है। वह खुद अकेले ही सारे निर्णय ले सकता है और संसद को नियंत्रित करके अपनी मर्जी के कानून बनवा सकता है। मौजूदा स्थिति में विपक्ष की भूमिका गौण हो जाती है और शक्तियों का बंटवारा सही न होने से सारा संतुलन गड़बड़ा जाता है। जबकि अमरीकी राष्ट्रपति प्रणाली में राष्ट्रपति शक्तिशाली होते हुए भी तानाशाह नहीं बन सकता, अपनी मर्जी के कानून नहीं बनवा सकता और अमरीकी संसद उस पर सीमित नियंत्रण भी रख सकती है। अमरीकी प्रणाली में राष्ट्रपति को सरकार गिरने का भय नहीं होता और वह सिर्फ काम की ओर ध्यान देने के लिए स्वतंत्र है, जबकि भारतीय प्रणाली में प्रधानमंत्री सर्वशक्तिमान बनने के लिए हमेशा जोड़-तोड़ की राजनीति में व्यस्त रहता है जैसा कि मोदी को करना पड़ रहा है।

मोदी के पास पूर्ण बहुमत है। सन् 1989 में भाजपा और कम्युनिस्टों के बाहरी समर्थन के बलबूते पर बनी विश्वनाथ प्रताप सिंह की अल्पमत सरकार के बाद से सन् 2009 तक लगातार गठबंधन सरकारों का दौर रहा है और अन्य छोटे दल सरकार में शामिल होकर ब्लैकमेलिंग का रवैया अपनाते थे और मनमानियां करते थे। मोदी के नेतृत्व में सन् 2014 में पहली बार भाजपा के पूर्ण बहुमत की सरकार बनी है, जिसमें कुछ छोटे दल शामिल हैं लेकिन वे विरोध करने, मोदी की बात को नकारने या मोदी की उपेक्षा करने की स्थिति में नहीं हैं। इसीलिए भानु धमीजा ने अपने ट्वीट में कहा कि यदि मोदी संविधान में उचित संशोधन करके अमरीकी प्रणाली की तर्ज पर खुद राष्ट्रपति बन जाएं तो वह एक अधिक समर्थ नेता हो सकेंगे और देश में एक बड़े क्रांतिकारी परिवर्तन के प्रणेता बन सकेंगे। खुद मैंने और ओपी मोंगा ने भी ऐसे ही विचार व्यक्त किए थे। मोदी के पहले कार्यकाल में भी अभी दो साल और बचे हैं और उनके पास ऐसा बहुमत है कि वह विपक्ष को विश्वास में लेकर देश में संसदीय-राष्ट्रपति मिश्रित प्रणाली का आगाज कर सकते हैं। यदि ऐसा हो गया तो देश के अत्यंत शुभ होगा। इसीलिए मैं कहता हूं कि हम भारत के उज्ज्वल भविष्य के प्रति आशावान हैं और हमें विश्वास है कि वह सुबह जरूर आएगी, जब देश में ऐसा संविधान लागू होगा जो जनता को उसके वास्तविक अधिकार देगा। हां, वह सुबह जरूर आएगी, उस सुबह का इंतजार है!

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