लोकतांत्रिक संस्थाओं की हो हदबंदी

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

यदि हमने भ्रष्टाचार नियंत्रित करने की मंशा से न्यायपालिका को मनमानी करते रहने की छूट दे दी, तो कभी ऐसा हो सकता है कि न्यायपालिका सर्वशक्तिमान बन जाए और ऐसे में न्यायपालिका भी वह सब कुछ कर सकती है जो हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में वहां की सेना कर रही है। अभी समय है कि हम सोचें कि इस स्थिति से बचने के लिए हम क्या कर सकते हैं। इसका सीधा सा समाधान तो यही है कि सरकार के तीनों अंगों की शक्तियों और सीमाओं का विस्तृत विवेचन हो…

न्यायमूर्ति ओपी सैनी ने 2जी मामले में सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया है। उन्होंने कहा है कि सात साल तक वह इंतजार करते रहे कि उन्हें अभियुक्तों पर लगे आरोपों को सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण उपलब्ध करवाया जाए, ताकि वह फैसला कर सकें। उनका यह भी कहना है कि इस दौरान वह छुट्टियों में भी इस उम्मीद पर अदालत खोलकर बैठते थे कि कभी न कभी तो प्रमाण मिलेगा ही, लेकिन उन्हें कोई भी प्रमाण नहीं मिला। ऐसे में उनके पास सभी अभियुक्तों को बरी करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था।

न्यायमूर्ति सैनी की इस टिप्पणी से कई सवाल उठना जायज है। मसलन, इस दौरान केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने इस मामले में ढील क्यों दिखाई और आरोपियों को दोषमुक्त हो जाने का मौका क्यों दिया? कुछ और सवाल हैं जो इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं और उन पर चर्चा होना और भी ज्यादा आवश्यक है। न्यायमूर्ति ओपी सैनी की अदालत सीधे सर्वोच्च न्यायालय की देखरेख में काम कर रही थी। सर्वोच्च न्यायालय ने 2जी मामला प्रकाश में आने पर 122 लाइसेंस रद्द किए थे, जिसका सीधा सा मतलब है कि माननीय न्यायालय के पास किसी घोटाले के कुछ ऐसे प्रमाण अवश्य रहे होंगे जिनके कारण लाइसेंस रद्द करने की नौबत आई। फिर ऐसा क्यों हुआ कि सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति ओपी सैनी को वे दस्तावेज उपलब्ध नहीं करवाए? अब न्यायमूर्ति ओपी सैनी की अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया है, तो रद्द किए गए उन लाइसेंसों का भविष्य क्या होगा? क्या वे दोबारा बहाल किए जाएंगे? यदि ए. राजा उच्च न्यायालय में दोषी पाए जाएं और वह सर्वोच्च न्यायालय में दोबारा अपील करें तो उस मुकदमे का भविष्य क्या होगा, क्योंकि तब खुद सर्वोच्च न्यायालय ही उसमें एक पक्ष होगा? सर्वोच्च न्यायालय ने 122 लाइसेंस रद्द किए हैं, तो ए. राजा की उस अपील के वक्त सर्वोच्च न्यायालय को हर कीमत पर अपने इस फैसले को सही ठहराना होगा। तब क्या वह एक संवैधानिक संकट नहीं होगा?

मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि यदि ऐसा हो गया, तो यह स्थिति रुचिकर होगी या कि संकट? हमारी अदालतें अब ‘एक्टिविस्ट’ बन गई हैं। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और सोवियत रूस के राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचोव ने सन् 1988 में सोवियत रूस की सहायता से भारतवर्ष में दो न्यूक्लियर पावर प्लांट लगाने के लिए करार किया, लेकिन रूस में राजनीतिक उथल-पुथल और अमरीका के एतराज के कारण इस पर सन् 2001 में काम शुरू हुआ। तमिलनाडु के जिला तिरुनवेली के कुडानकुलम में जब जून, 2012 में पहला न्यूक्लियर पावर प्लांट कामकाज के लिए तैयार हो गया, तो स्थानीय लोगों और विभिन्न संगठनों ने आंदोलन प्रारंभ कर दिया और मद्रास उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर दी। यह याचिका पहले मद्रास उच्च न्यायालय ने निरस्त की और बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने। यानी, न्यायालय ने यह मान लिया कि यह न्यूक्लियर रियेक्टर सुरक्षित है। यदि कभी वहां कोई दुर्घटना हो जाए तो क्या सरकार और इंजीनियर यह नहीं कहेंगे कि इस पावर प्लांट के सुरक्षित होने की गवाही तो खुद सर्वोच्च न्यायालय ने भी दे रखी है? इससे भी आगे बढ़ते हैं तो हमारे पास ऐसे भी उदाहरण हैं, जहां नीति संबंधी मामलों में भी सर्वोच्च न्यायालय ने दखलअंदाजी की है। मसलन, कुछ समय पूर्व सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को निर्देश दिया था कि वह खाद्य पदार्थों के फालतू स्टॉक को कम कीमत पर बेच दे। इस आदेश के  बाद यदि अगले वर्ष भयंकर सूखा पड़ जाए और अकाल की स्थिति हो तो सरकार को सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के कारण अपनी जिम्मेदारी से बचने का मौका मिल जाएगा।

जब कभी भी ऐसा होता है कि जनहित को ध्यान में रखकर न्यायपालिका कोई निर्देश देती है, तो हम खूब खुश होते हैं। आप जानते हैं कि ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है कि हमारे संविधान में सरकार के तीन अंगों में शक्तियों का बंटवारा तर्कसंगत नहीं है और न ही उनमें संतुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक प्रावधान किए गए हैं। यह माना जाता है कि हमारा संविधान संसद की सर्वोच्चता के नियम पर चलता है, लेकिन व्यवहार में यह नियम पूर्णतः असफल है। ऐसा इसलिए क्योंकि जिस दल अथवा गठबंधन को बहुमत मिलता है, उसकी सरकार बनती है और उस सरकार को चलाने वाले बड़े नेतागण ही तय करते हैं कि संसद का सत्र कब बुलाया जाए। यहां तक कि वे संसद को उसकी अवधि पूरी होने से पहले ही भंग करने की सिफारिश भी कर सकते हैं। चूंकि संसद में सत्तारूढ़ दल अथवा गठबंधन का बहुमत होता है, अतः उस दल अथवा गठबंधन के बड़े नेताओं की सहमति से पेश किए जाने वाले बिल ही कानून बन पाते हैं। यानी दरअसल, कानून बनाने का काम संसद नहीं, बल्कि सरकार करती है। इससे भी आगे बढ़ें तो यह भी स्पष्ट है कि सरकार ही कानून बनाती है और सरकार ही कानून लागू करती है। इस अजीबो-गरीब स्थिति के कारण संसद की शक्तियां सिमट कर सरकार के हाथ में आ जाती हैं। सब जानते हैं कि सरकार चलाने का असली काम दल के दो-तीन बड़े नेता ही करते हैं। यूपीए के समय में अंतिम निर्णय सोनिया गांधी और राहुल गांधी की सहमति से होता था और वर्तमान भाजपा सरकार में नरेंद्र मोदी, अमित शाह और अरुण जेटली की मर्जी चलती है। इसका अर्थ यह है कि कुछ लोगों का छोटा सा गुट पूरे संसद को नियंत्रित करता है। जब किसी एक व्यक्ति या गुट के हाथ में सारी शक्तियां आ जाएं तो उस व्यक्ति या गुट की तानाशाही चलती है। इस प्रकार लोकतांत्रिक ढंग से चुना गया व्यक्ति भी तानाशाह की तरह व्यवहार करने लगता है। ऐसे में जब प्रशासन बेखबर हो जाता है, जनता की सुनवाई नहीं होती तो न्यायालय का एक्टिविस्ट हो जाना भी हमें अच्छा लगता है।

समस्या यह है कि आज हम इसके दूरगामी परिणामों पर ध्यान नहीं दे रहे हैं और खेद इस बात का है कि शिक्षित और बुद्धिजीवी समाज भी इसके खतरों से अनजान नजर आता है। यदि हमने भ्रष्टाचार नियंत्रित करने की मंशा से न्यायपालिका को मनमानी करते रहने की छूट दे दी, तो कभी ऐसा हो सकता है कि न्यायपालिका सर्वशक्तिमान बन जाए और ऐसे में न्यायपालिका भी वह सब कुछ कर सकती है जो हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में वहां की सेना कर रही है। अभी समय है कि हम सोचें कि इस स्थिति से बचने के लिए हम क्या कर सकते हैं। इसका सीधा सा समाधान तो यही है कि सरकार के तीनों अंगों की शक्तियों और सीमाओं का विस्तृत विवेचन हो। देश भर में उन पर बहस चले, कानूनविद अपनी राय दें, जनता अपनी राय दे, जनप्रतिनिधि अपनी राय दें और फिर ऐसे संविधान की रचना की जाए जिसमें न केवल सरकार के तीनों अंगों की शक्तियां और सीमाएं स्पष्ट रूप से परिभाषित हों, बल्कि सरकार का हर अंग, शेष दोनों अंगों पर कुछ नियंत्रण रख सके, ताकि कोई एक अंग भी भ्रष्ट या तानाशाह न बन सके। समाधान यह है कि हमारे वर्तमान संविधान की विशद समीक्षा हो और इसमें शामिल कमियों को दूर किया जाए। यह भी आवश्यक है कि संविधान की समीक्षा के समय कोई सीमा न हो। हम विश्व के हर संविधान की खामियों और खूबियों पर खुलकर विचार करें और फिर तय करें कि हमारा नया संविधान संसदीय प्रणाली का हो, राष्ट्रपति प्रणाली का हो या मिश्रित प्रणाली से बनाया जाए। इसी में देश का भला है।

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