कठघरे में मीडिया की प्रासंगिकता

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

समस्या यह है कि या तो मीडिया में इतने बड़े षड्यंत्र की ढंग से तहकीकात कर पाने की काबिलीयत वाले लोग नहीं हैं या फिर उनकी इसमें रुचि ही नहीं है। अलग-अलग दलों के नेताओं और संबंधित अधिकारियों के मशीनी बयानों से ही संतुष्ट हो जाने वाले पत्रकारों की बहुतायत है। मीडिया की खोजी प्रवृत्ति तो धराशायी हुई ही है, लगता है कि मीडिया का मेमोरी कार्ड भी गुम हो गया है और आम जनता की तरह उसकी याददाश्त भी छोटी पड़ गई है…

अकसर कहा जाता है कि जनता की याददाश्त बहुत कम होती है, लेकिन मैं कहना चाहूंगा कि अब मीडिया की याददश्त भी आवश्यकता से बहुत कम हो गई है। राजनीतिज्ञ आरंभ से ही जनता की कम याददाश्त का अनुचित लाभ लेते रहे हैं और अब सत्ता प्रतिष्ठान मीडिया की कमजोर स्मरणशक्ति का फायदा उठाकर जनता को भ्रमित रखने का कुत्सित खेल खेल रहा है। अभी सिर्फ एक सप्ताह पहले ही हम सुंजवां सेना शिविर पर पाकिस्तानी आतंकवादियों के हमले को लेकर चिंतित थे, लेकिन नीरव मोदी और मेहुल चोकसी द्वारा अंजाम दिए गए बैंक घोटाले ने हमें इस हद तक जकड़ लिया है मानो आतंकवाद का मुद्दा कभी था ही नहीं। आश्चर्य और खेद का विषय तो यह है कि जनता की याददाश्त तो कमजोर है ही, ऐसा लगता है कि मीडिया ने भी अपनी याददाश्त गंवा दी है। सुंजवां हमले के बाद भी आतंकवादियों की घुसपैठ और हमले लगातार जारी हैं और इन पर रोकथाम की कोई गंभीर कोशिश दिखाई नहीं दे रही है। सुंजवां हमले के बाद हमारी एक बड़ी कमजोरी उभर कर सामने आई, जिसे समाचारपत्रों, प्रशासन, सरकार और यहां तक कि खुद सेना ने भी नजरअंदाज कर दिया है।

किसी ने यह समझने-बताने की कोशिश नहीं की कि सुरक्षा के घेरों से लैस सेना के शिविरों में फिदायीन कैसे घुस आते हैं और सेना की निगरानी अपने ही ठिकानों पर क्यों कमजोर हो जाती है। वह भी उस हाल में जब हमें पता है कि पाकिस्तानी आतंकवादी हर रोज हमारे ठिकानों पर चोट की फिराक में हैं। वातानुकूलित कमरों में बैठकर सलाह देने वाले रक्षा विशेषज्ञ और सवाल पूछने वाले एंकर जानते ही नहीं हैं कि कमी कहां है। इसका एक बहुत छोटा सा उदाहरण सुंजवां सेना शिविर है, जहां सामने ऊंची दीवारें हैं, बड़ा सा मजबूत दरवाजा है, कंटीली तारों की बाड़ है लेकिन उसी कैंप के पिछले हिस्से में पक्की दीवार तक नहीं है। अपनी हर योजना में हम भारतीयों की ऐसी लापरवाह चूक ही घातक साबित होती है। पहली निगाह में ही नजर आ जाने वाली इस कैंप की यह कमजोरी सेना के अधिकारियों की निगाह से कैसे बची रह गई, यह एक बड़ा सवाल है। निश्चय ही सेना की तत्परता, वीरता और निष्ठा पर कोई सवाल नहीं किया जा सकता, पर यह एक बड़ी प्रशासनिक चूक है, जिसकी जांच होनी चाहिए और शेष सैनिक शिविरों की ऐसी कमजोरियों को पहचान कर उन्हें तुरंत दूर किया जाना चाहिए। सुंजवां हमले के समय भी मीडिया में जम्मू-कश्मीर विधानसभा में भाजपा विधायकों द्वारा पाकिस्तान विरोधी नारों के जवाब में नेशनल कान्फ्रेंस के विधायक अकबर लोन द्वारा ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारों की चर्चा ज्यादा रही, हमले के कारणों का विश्लेषण लगभग नदारद रहा। यह हमारी व्यवहार और नीतियों के उथलेपन का जीता-जागता सबूत है।

पंजाब नेशनल बैंक देश का दूसरा सबसे बड़ा सरकारी बैंक है, जिसे कुछ अमीर चोरों ने कंगाल बना डाला है। हैरानी की बात है कि इतने वर्षों में इस घोटाले को सरकार के बोर्ड, वित्त मंत्रालय और आडिट की तमाम औपचारिकताओं के बावजूद पकड़ा नहीं जा सका। यह हमारे सिस्टम की कमियों का शर्मनाक पर्दाफाश है। अब भी चर्चा का विषय नीरव मोदी और मेहुल चोकसी ज्यादा हैं, पंजाब नेशनल बैंक में आडिट की असफलता, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में कुप्रबंधन, सरकार द्वारा जनता के पैसे से बार-बार उनके घाटे की भरपाई, निजी बैंकों की कुल संपत्ति के मुकाबले में सार्वजनिक बैंकों की कुल संपत्ति का नगण्य होना आदि चर्चा का विषय नहीं हैं। बड़े व्यावसायिक बैंकों, बीमा कंपनियों और विकास वित्त संस्थानों का राष्ट्रीकरण सत्तर के दशक में चाहे एक अच्छा समाजवादी लक्ष्य रहा हो, अगले दो दशकों बाद ही स्पष्ट हो गया था कि वे सफेद हाथी हैं, लेकिन तत्कालीन सरकारों ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की इस कमी को नहीं पहचाना।

भारत के 21 सरकारी बैंकों की भारतीय बाजार में 55 से 60 प्रतिशत तक की हिस्सेदारी है जो देश की आर्थिक व्यवस्था के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है, लेकिन कुल बाजार पूंजी के लिहाज से देश के सबसे बड़े सरकारी बैंक यानी भारतीय स्टेट बैंक भी आईसीआईसीआई या एचडीएफसी बैंक के मुकाबले में बहुत छोटा है। सरकारी बैंकों ने कितना धन बर्बाद किया है, अगर इसकी बानगी देखनी हो तो इतना ही बताना काफी है कि यूपीए-2 में डा. मनमोहन सिंह की सरकार ने सरकारी बैंकों को डूबने से बचाने के लिए 600 अरब रुपए का अनुदान दिया था और सन् 2015 में भी ‘इंद्रधनुष’ नाम की एक योजना के तहत मोदी सरकार ने 700 अरब रुपए और दे डाले थे। इसके बावजूद अब सरकार फिर से ज्यादा बड़ी मात्रा में धन के निवेश के लिए तैयार है। सच तो यह है कि यह सिलसिला कहीं रुकने वाला नहीं है। कुछ और मुद्दे भी हैं, जो इससे भी ज्यादा दुखदायी हैं। मोटा कर्ज लेकर वापस न लौटाने वाले लोग वही हैं, जो बार-बार कर्ज लेते हैं, लेकर लौटाते नहीं हैं, और उनका कर्ज माफ हो जाता है। सरकार बैंक में अतिरिक्त धन का निवेश कर देती है। ये बड़े पूंजीपति जानते हैं कि बैंकों का शोषण कैसे किया जा सकता है और वे अपने इस चतुराईपूर्ण ज्ञान का पूरा लाभ उठाते हैं। दूसरी बड़ी बात यह है कि साढ़े ग्यारह हजार का कर्ज लेकर कई वर्षों तक न चुकाया जाए, बैंक के प्रबंधन और कई सारे बड़े अधिकारियों की मिलीभगत के बिना ऐसा कर पाना संभव नहीं है। जांच यदि जल्दी हुई और निष्पक्ष हुई, तो बहुत से बड़े नाम सामने आएंगे।

तीसरी और सबसे बड़ी बात यह है कि क्या इस बार के धन निवेश के बात सरकारी बैंकों में घोटाले होने रुक जाएंगे? इन बैंकों को दोबारा घाटा न हो, इसके लिए क्या किया जा रहा है क्योंकि 2015 में भी मोदी सरकार ने ‘इंद्रधनुष’ योजना पेश करते समय उसे बैंकिंग क्षेत्र की समस्याओं के लिए रामबाण जैसा बताया था। लेकिन इंद्रधनुष के तो सारे रंग फीके पड़ ही गए, नई योजना और नए निवेश की जरूरत आन पड़ी है। ऐसे में क्या यह आवश्यक नहीं है कि बैंकों का निजीकरण कर दिया जाए, ताकि करदाताओं का पैसा बैंकों पर बर्बाद होने से बच सके? सरकारी उपाय अकसर ऐसे ही होते हैं जिनमें स्थायित्व नहीं होता, चूक होने के उपाय पहले ही कर लिए जाते हैं, ताकि मलाई मारने का मौका मिलता रहे। समस्या यह है कि या तो मीडिया में इतने बड़े षड्यंत्र की ढंग से तहकीकात कर पाने की काबिलीयत वाले लोग नहीं हैं या फिर उनकी इसमें रुचि ही नहीं है। अलग-अलग दलों के नेताओं और संबंधित अधिकारियों के मशीनी बयानों से ही संतुष्ट हो जाने वाले पत्रकारों की बहुतायत है। मीडिया की खोजी प्रवृत्ति तो धराशायी हुई ही है, लगता है कि मीडिया का मेमोरी कार्ड भी गुम हो गया है और आम जनता की तरह उसकी याददाश्त भी छोटी पड़ गई है। इस गड़बड़ी में सरकार, मीडिया के पूंजीपति मालिक और खुद पत्रकार यानी सब शामिल हैं। मीडिया जगत के लोगों की इस लापरवाही ने मीडिया की प्रासंगिकता ही समाप्त कर दी है और लोकतंत्र का ‘चौथा खंभा’ यानी मीडिया अब खंभा ही नहीं रहा।

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