जातीय समीकरण में पिछड़ गया विकास

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

भाजपा जानबूझ कर मुस्लिम व ईसाई समाज से दूर रहना चाहती है, क्योंकि इससे हिंदुओं को संतोष रहता है कि भाजपा उनकी अपनी पार्टी है। यदि हिंदुओं में से दलित छिटक जाएं और मुस्लिम समाज के साथ जा मिलें, तो वोट बैंक की सेंध भाजपा को हराने के लिए काफी है। मुस्लिम समाज की नाराजगी से भाजपा को लाभ होता है, लेकिन दलित समाज के भी नाराज होकर उनके साथ जा मिलने से भाजपा के वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा ही टूट जाता है। भाजपा यह खतरा दोबारा मोल नहीं लेना चाहती…

भाजपा और दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को छोड़ दें, तो लगभग हर राजनीतिक दल ने अनुसूचित जातियों / अनुसूचित जनजातियों, पिछड़ा वर्ग तथा मुस्लिम और ईसाई समाज को अपने वोट बैंक के रूप में प्रयोग किया। इससे निश्चय ही सवर्ण हिंदुओं में रोष था और वे भारतवर्ष में स्वयं को उपेक्षित मान रहे थे। भाजपा ने हालांकि घोषित रूप से कभी भी अनुसूचित जातियों / अनुसूचित जनजातियों अथवा पिछड़े वर्ग को हिंदू समाज से बाहर नहीं माना, लेकिन तो भी इसकी बहुसंख्या सवर्ण हिंदुओं की है। व्यापारी वर्ग और सवर्ण हिंदू, भाजपा के वोट बैंक रहे हैं और राम मंदिर का मुद्दा उठाकर भाजपा इसी वर्ग की भावनाओं को पोषित करती रही है। यही कारण है कि हिंदू समाज यह उम्मीद लगाए बैठा था कि भाजपा सत्ता में आई, तो धारा 370 समाप्त होगी, मुस्लिम समाज का तुष्टिकरण बंद होगा, राम मंदिर बनेगा और आरक्षण हटेगा। जी हां, हिंदू समाज के इस वर्ग को यह भरोसा था कि आरक्षण भी हटेगा। यह चुनाव का वर्ष है। भाजपा फूंक-फूंक कर कदम रख रही है। वह अपना हर मोहरा ठीक से चलना चाहती है। धर्म, विकास आदि चुनावी बातें हैं। मुद्दा यह है कि अधिक से अधिक लोगों को, खासकर समाज के संगठित वर्गों को अपना वोट बैंक कैसे बनाया जाए। उत्तर प्रदेश के हालिया चुनावों की हार से मोदी-शाह ने बड़ा सबक लिया है।

पिछड़ा वर्ग और मुस्लिम समाज के गठजोड़ ने मोदी की हर तिकड़म को पटकनी दे दी और मुख्यमंत्री तथा उपमुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्र में भी भाजपा को धूल चाटनी पड़ी। यह सिर्फ हार नहीं थी, घोर अपमान भी था। पर मोदी-शाह की जोड़ी राजनीतिज्ञ ही नहीं, खांटी कूटनीतिज्ञ भी है। दोनों ने समझ लिया कि मायावती-अखिलेश के गठजोड़ ने ही उनकी हवा निकाल दी, अब तो सभी विपक्षी दल एक हो गए हैं, राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री पद का दावा तक छोड़ने का इशारा दे दिया है, ममता बनर्जी सबको एक झंडे तले लाने के लिए प्रयासरत हैं और अरविंद केजरीवाल तक को इस गठबंधन में शामिल किया जा सकता है। ऐसे में यह आवश्यक था कि दलित-मुस्लिम गठजोड़ को तोड़ा जाए। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार देश में अनुसूचित जातियों की जनसंख्या 16.6 प्रतिशत, अनुसूचित जनजातियों की संख्या 8.6 प्रतिशत और मंडल आयोग के अनुसार अन्य पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या 52 प्रतिशत है। इस प्रकार देश का हर चौथा नागरिक, यानी कुल जनसंख्या का 25 प्रतिशत भाग दलित की श्रेणी में आ जाता है। मुस्लिम समाज की जनसंख्या 14.2 प्रतिशत है। दलित-मुस्लिम गठजोड़ 40 प्रतिशत मतदाताओं का ऐसा सघन संगठन है, जो भाजपा को हराने के लिए काफी है। मोदी-शाह की चिंता यहीं से शुरू होती है। भाजपा के हालिया तीनों फैसले इसी चिंता का प्रमाण हैं। भाजपा ने एससी-एसटी एट्रोसिटी प्रिवेंशन एक्ट को फिर से मूल स्वरूप में लाने के लिए कानून बनाने की घोषणा की है। यह एक विशेष कानून है, जिसमें भारतीय दंड संहिता, यानी, आईपीसी के मुताबिक अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ जाति के आधार पर होने वाले अपराधों में तत्काल मुकद्दमा दायर होने और तत्काल गिरफ्तारी और अग्रिम जमानत के निषेध का प्रावधान है। सर्वोच्च न्यायालय ने इसी वर्ष 20 मार्च को इन तीनों प्रावधानों को निरस्त कर दिया था, लेकिन अब संविधान में संशोधन करके सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया जाएगा। आरक्षण को लेकर सवर्ण हिंदुओं में रोष था ही, प्रमोशन में भी आरक्षण तो इस वर्ग की बर्दाश्त के बाहर था, लेकिन अब सरकार सर्वोच्च न्यायालय में प्रमोशन में आरक्षण की वकालत कर रही है। मोदी सरकार ने इससे संबंधित संविधान के अनुच्छेद 16(4) की वकालत का निर्णय लिया है। एससी-एसटी एट्रोसिटी प्रिवेंशन एक्ट तथा प्रमोशन में आरक्षण के साथ-साथ मोदी सरकार का तीसरा बड़ा कदम राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने का है। सरकार ने संसद से यह कानून पास करवा लिया है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग संविधान के तहत बने थे, लेकिन पिछड़ा वर्ग आयोग संविधान के तहत न होकर एक सरकारी आदेश से गठित हुआ था, इसे सिर्फ पिछड़ी जातियों की सूची बनाने और सुधार के लिए सिफारिश करने का अधिकार था। नया आयोग अब पिछड़े वर्गों के विकास के लिए भी उपाय सुझाएगा, उनके विकास पर नजर रखेगा और इन जातियों की शिकायतों की सुनवाई भी करेगा।

मायावती और अखिलेश यादव के एक साथ आ जाने से दलित-मुस्लिम गठजोड़ ने आकार ले लिया था और भाजपा को हार का अपमान सहना पड़ा था। भाजपा जानबूझ कर मुस्लिम व ईसाई समाज से दूर रहना चाहती है, क्योंकि इससे हिंदुओं को संतोष रहता है कि भाजपा उनकी अपनी पार्टी है। यदि हिंदुओं में से दलित छिटक जाएं और मुस्लिम समाज के साथ जा मिलें, तो वोट बैंक की सेंध भाजपा को हराने के लिए काफी है। मुस्लिम समाज की नाराजगी से भाजपा को लाभ होता है, लेकिन दलित समाज के भी नाराज होकर उनके साथ जा मिलने से भाजपा के वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा ही टूट जाता है। भाजपा यह खतरा दोबारा मोल नहीं लेना चाहती। इसलिए मोदी-शाह ने सवर्णों की नाराजगी का खतरा मोल लेकर भी दलितों को खुश करने का प्रयास किया है। उन्हें विश्वास है कि वे सवर्ण हिंदुओं को मना लेंगे, क्योंकि विपक्ष में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं है, जो हिंदुओं का एकछत्र नेता बन सके। हिंदू यूं भी सॉफ्ट या नरम माने जाते हैं, जल्दी मान जाते हैं, उन्हें मनाना आसान है। इसलिए इतना-सा जोखिम लेना जरूरी था, क्योंकि यह खतरे की हदों को पार नहीं करता। इसके विपरीत मुस्लिम समाज का विरोध भाजपा के लिए लाभप्रद है, क्योंकि इससे हिंदुओं का गठजोड़ पक्का होता है।

पिछले कई महीनों से भाजपा ही नहीं, खुद मोदी ने भी विकास की बात नहीं की है, वे समझ चुके हैं कि उनके विकास की हवा पहले ही निकल चुकी है। लगभग हर भाजपा मुख्यमंत्री के खिलाफ एंटी-इनकंबेंसी फैक्टर था, जो अब भी जारी है। हिंदू एकता के बिना वोट नहीं मिल सकते और हिंदुओं की बहुसंख्या वाले समाज में दलितों का प्रतिशत इतना ऊंचा है कि उसकी उपेक्षा संभव नहीं है। यही कारण है कि मोदी-शाह की जोड़ी ने यह जोखिम लिया है। यह एक सोचा-समझा जोखिम है। सोशल मीडिया पर सवर्ण हिंदुओं की नाराजगी को वे खतरा नहीं मानते। हिंदू समाज को कुछ महापुरुषों की जयंती, फोटो, मूर्ति आदि प्रतीकों से भी संतुष्ट किया जा सकता है, तो फिर ज्यादा प्रयत्न की क्या आवश्यकता है। वोटों की खातिर अब मोदी मंडलीकृत हो गए हैं और विकास गया भाड़ में!

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