संविधान समीक्षा का समय

पीके खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार

यह खेद का विषय है कि हमारे संविधान ने खुद ही लोकतंत्र को मजाक बना डाला है। इस स्थिति से बचने का एक ही उपाय है कि अमरीकी शासन प्रणाली की तर्ज पर विधायिका और कार्यपालिका को बिलकुल अलग किया जाए। यानी संसद का सदस्य मंत्री न बन सके और मंत्रिपरिषद के सदस्यों को कानून बनाने का अधिकार न हो। इससे मंत्रिमंडल में अनपढ़ सांसदों को शामिल करने के बजाय विशेषज्ञों के लिए रास्ता भी खुल जाएगा…

हम भारतीय यह मानते हैं कि हमारा संविधान अपने आप में एक संपूर्ण दस्तावेज है, यह विश्व के सर्वश्रेष्ठ संविधानों में से एक है और हमारे यहां प्रचलित संसदीय प्रणाली सर्वश्रेष्ठ है, जिसके माध्यम से सरकार के तीनों अंगों में शक्तियों का तर्कसंगत विभाजन होता है तथा चुने हुए जनप्रतिनिधियों के माध्यम से देश का शासन-प्रशासन चलता है। संसद कानून बनाती है और सरकार उसके अनुसार शासन करती है। अब समय आ गया है कि संविधान का विश्लेषण किया जाए और यह देखा जाए कि वस्तुस्थिति क्या है, क्या इसमें किसी सुधार की आवश्यकता है? यह समझना आवश्यक है कि हमारे संविधान में सौ से भी अधिक, अब तक कुल 124, संशोधन हो चुके हैं और इन संशोधनों के कारण न केवल संविधान का मूल स्वरूप समाप्त हो गया है, बल्कि यह संविधान हमारे देश की आवश्यकताओं के लिए सर्वथा अनुपयुक्त साबित हुआ है। संविधान का 24वां संशोधन 5 नवंबर, 1971 को लागू हुआ, जिसमें यह प्रावधान था कि संसद किसी भी तरह का कोई कानून बना सकती है और संसद द्वारा पास किए गए बिल पर राष्ट्रपति को सहमति देनी ही होगी। इस संशोधन में दो मुख्य बातें शामिल थीं। पहली, संसद कुछ भी कानून बनाने के लिए अधिकृत और स्वतंत्र है और दूसरी, संसद द्वारा पास किए गए बिल पर राष्ट्रपति सहमति देने से इनकार नहीं कर सकते। अड़तीसवें संविधान संशोधन के माध्यम से अध्यादेश जारी करने के लिए राष्ट्रपति और राज्यपालों की शक्ति में विस्तार किया गया। संविधान के 52वें संशोधन से दलबदल विरोधी कानून लागू किया गया और राजनीतिक दलों के मुखिया को असीमित शक्तियां दे दी गईं, जिससे राजनीतिक दलों में आंतरिक स्वतंत्रता जाती रही और पार्टी के आका सर्वशक्तिमान हो गए। संविधान के 42वें संशोधन से निर्देशक सिद्धांत अस्तित्व में आए और मूलभूत अधिकारों की महत्ता समाप्त हो गई। न्यायालयों से चुनाव से संबंधित याचिकाएं सुनने का अधिकार छीन लिया गया।

यही नहीं, न्यायालय अब संविधान संशोधन पर भी विचार नहीं कर सकते थे, न ही वे संविधान के मूल रूप में परिवर्तन पर ऐतराज कर सकते थे। लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं की कार्यावधि पांच साल से बढ़ाकर छह साल कर दी गई। संसद में कोरम की आवश्यकता खत्म कर दी गई, जिसका अर्थ था कि यदि पूरे सदन में सिर्फ एक ही सांसद उपस्थित हो और वह किसी सरकारी बिल पर अपनी सहमति दे, तो उस बिल को पूरे सदन द्वारा पास किया मान लिया जाएगा। यह प्रावधान भी किया गया कि राष्ट्रपति, मंत्रिपरिषद की राय मानने के लिए बाध्य हैं। इस अकेले संशोधन ने न केवल राष्ट्रपति को पूरी तरह से रबड़ की मोहर बना डाला, बल्कि एक मजबूत प्रधानमंत्री को पूरी तरह से तानाशाह बनने का अवसर भी दे दिया। इस संशोधन के लागू हो जाने से अंतर यह आया कि यदि सत्तारूढ़ दल के पास दो-तिहाई बहुमत हो, तो उसे किसी भी तरह का कानून बना सकने, सरकार की किसी भी संस्था अथवा अंग को गैर जरूरी घोषित करने, किसी विपक्षी दल पर प्रतिबंध लगाने की अथाह शक्ति मिल गई। सन् 1977 में जनता पार्टी की सरकार केंद्र में सत्ता में आई। जनता सरकार ने 43वें संविधान संशोधन के माध्यम से इनमें से कई संशोधन पलट दिए और लोकतांत्रिक संस्थाओं को बहाल किया, लेकिन राष्ट्रपति के अधिकारों की कटौती जारी रही, उसमें सिर्फ इतना सा परिवर्तन आया कि राष्ट्रपति चाहें तो संसद द्वारा पारित किसी बिल को पुनर्विचार के लिए लौटा सकते हैं और यदि संसद उसे दोबारा पास कर दे, तो राष्ट्रपति उस पर सहमति से इनकार नहीं कर सकते। यहां न तो संविधान के सभी संशोधनों की चर्चा संभव है और न ही उन संशोधनों के हर प्रावधान और उसके परिणामों का विश्लेषण हो सकता है। इंदिरा गांधी ने अपनी गद्दी बचाने के लिए संविधान को ही अप्रासंगिक बना डाला था, राजीव गांधी ने दलबदल विरोधी कानून के माध्यम से राजनीतिक दलों का चरित्र हमेशा के लिए बदल दिया, तो विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपनी गद्दी बचाने के लिए मंडल कमीशन का पिटारा खोल दिया था। हाल ही में मोदी सरकार ने 124वें संविधान संशोधन के माध्यम से आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का कानून बनाया है। संविधान कोई धार्मिक पुस्तक नहीं है कि इसमें संशोधन न हो सकें, संविधान में संशोधन होना कोई असामान्य बात नहीं है। असामान्य बात यह है कि हमारे संविधान में हुए अधिकांश संशोधनों का जनहित से कोई लेना-देना नहीं है। चिंता की बात यह है कि हम जिस संविधान के गुण गाते हैं, वह खुद को ही नहीं बचा पाया था, गनीमत यह रही कि जनता ने मौका मिलते ही उन सरकारों को पलट दिया और संविधान की कुछ विकृतियां दूर हो गईं। संविधान के साथ बार-बार होने वाले बलात्कारों का कारण यह है कि विपक्ष के पास दरअसल कोई शक्ति है ही नहीं।

चूंकि विपक्ष किसी कानून को बनने से रोक नहीं सकता और न ही अपनी मर्जी का कोई कानून बनवा सकता है, क्योंकि उसके पास बहुमत नहीं है। इसलिए वह शोर मचाता है, वॉकआउट करता है, सदन में माइक और कुर्सियां तोड़ता है, ताकि मीडिया और जनता का ध्यान आकर्षित कर सके। सत्तापक्ष बहुमत के बल पर हर बिल पास करवा लेता है और विपक्ष शोर मचाता रह जाता है। संसद या विधानसभा में किसी भी मुद्दे पर वोटिंग के समय पार्टियां व्हिप जारी करती हैं, जिसके कारण सांसद और विधायक पार्टी के आदेशों के अनुसार वोट देने के लिए विवश हो जाते हैं। इसका मतलब यह है कि चुने हुए जनप्रतिनिधियों को अपनी मर्जी से वोट देने का अधिकार नहीं है, चाहे वे अपनी पार्टी के स्टैंड से सहमत हों या नहीं।

संसद अथवा विधानसभाओं में किसी भी मुद्दे पर वोटिंग से पहले ही हमें पता होता है कि उसके पक्ष अथवा विपक्ष में कितने वोट पड़ेंगे और यह भी कि कौन किस तरफ वोट देगा। इससे मतदान की प्रासंगिकता ही समाप्त हो जाती है। यह खेद का विषय है कि हमारे संविधान ने खुद ही लोकतंत्र को मजाक बना डाला है। इस स्थिति से बचने का एक ही उपाय है कि अमरीकी शासन प्रणाली की तर्ज पर विधायिका और कार्यपालिका को बिलकुल अलग किया जाए। यानी संसद का सदस्य मंत्री न बन सके और मंत्रिपरिषद के सदस्यों को कानून बनाने का अधिकार न हो। इससे मंत्रिमंडल में अनपढ़ सांसदों को शामिल करने के बजाय विशेषज्ञों को लेने का रास्ता भी खुल जाएगा और सरकार का कामकाज बेहतर हो जाएगा व अनावश्यक संविधान संशोधनों से भी मुक्ति मिल जाएगी।

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