जनता का प्रतिनिधि कौन

पीके खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार

मुद्दों को लेकर चर्चा के मामले में मीडिया में कोई ज्यादा उत्साह नजर नहीं आता। उसके बजाय मीडिया की ओर से भी ऐसी कोशिशों की कमी नहीं है, जहां अनावश्यक और अप्रासंगिक बातों को मुद्दा बनाया जा रहा है। मीडिया तो जनता का प्रतिनिधि हुआ करता था, फिर आखिर मीडिया का यह क्षरण क्यों है? इस क्षरण का सबसे बड़ा कारण यह है कि मीडिया उद्योग एक कैपिटल इंटेंसिव यानी, पूंजी सघन उद्योग है और अब अगर राष्ट्रीय स्तर का एक टीवी चैनल शुरू करना हो, तो उसमें ही हजारों करोड़ रुपए लग जाते हैं। किसी चैनल को चलाने के लिए तो विशाल पूंजी की आवश्यकता है ही, उसे चलाए रखने के लिए भी इतने ईंधन की आवश्यकता है कि व्यापारिक समझौते करना मीडिया मालिकों की आवश्यकता बन गई है…

देश की राजनीति का बुरा हाल है। कहीं कुनबे की लड़ाई, तो कहीं जात-पात की चर्चा, कहीं हिंदू-मुसलमान में गुम मुद्दे, तो कहीं झूठ से गढ़े गए आंकड़े। इन सब में देश और विकास कहीं पीछे छूट गया है और पूरे परिदृश्य पर राजनीतिक अश्लीलता हावी हो गई है। देश के चौदहवें राष्ट्रपति के चुनाव के समय विपक्ष ने पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को अपना उम्मीदवार बनाया, तो मोदी बिहार के तत्कालीन राज्यपाल रामनाथ कोविंद को उनके मुकाबले में ले आए। मीरा कुमार दलित और रामनाथ कोविंद दोनों ही दलित समाज से आते हैं। उस दौरान मीडिया में जितनी बार भी बहस हुई, हर बहस घूम-फिर कर इस बात पर आ जाती थी कि दलित के मुकाबले में दलित है और परिचर्चा में शामिल होने वाले पार्टी प्रवक्ताओं, बुद्धिजीवियों तथा टीवी एंकरों ने इसे दो दलितों के बीच की लड़ाई के रूप में बदल दिया। मीरा कुमार कहती रह गईं कि मेरी काबिलीयत पर बात कीजिए, मेरे मुद्दों पर बात कीजिए, परंतु न तो परिचर्चा में शामिल होने वाले लोग माने और न ही मीडिया। राजनीतिज्ञ लोग अपने निहित स्वार्थ के लिए मुद्दाहीन बातों को मुद्दा बनाएं, यह तो समझ आता है, लेकिन मीडिया भी उसी राह पर चल पड़े, यह सचमुच खेद का विषय है।

उसी तर्ज पर अब बेगूसराय से चुनाव लड़ रहे कन्हैया कुमार के खिलाफ घृणा का अभियान जारी है, जिसमें कहा जा रहा है कि वह तो भूमिहार परिवार से हैं, फिर वह दलितों के प्रवक्ता कैसे हो गए? सोशल मीडिया पर ऐसी बातें फैलाई जा रही हैं कि वह ऊंची जाति से हैं, तो उन्हें ‘सामाजिक न्याय’ के बारे में बात करने का हक कैसे मिल गया? सामाजिक न्याय की शुरुआत तो इसी तरह हो सकती है कि सवर्ण समाज, दलितों को बराबरी का दर्जा दे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह आवश्यक है कि सामाजिक न्याय के आंदोलन में सवर्ण समाज के प्रतिनिधि सक्रिय रूप से शामिल हों और यदि इसी पर कुठाराघात किया जा रहा है, तो यह आंदोलन खुद-ब-खुद ही सीमित होकर मर जाएगा या यह दलितों और सवर्णों के बीच की खाई को और भी चौड़ा कर देगा।

कन्हैया कुमार को वोट देना या न देना, हर मतदाता का विशेषाधिकार है। उसके लिए पैमाना यह होना चाहिए कि उनके मुद्दे क्या हैं, उनकी उपलब्धियां क्या हैं, उनका इतिहास क्या है, उनका नजरिया क्या है आदि-आदि। कन्हैया कुमार यदि भूमिहार होकर भी दलितों के समर्थन में आवाज उठाते हैं, उसमें कुछ भी गलत नहीं है और मीडिया का यह कर्त्तव्य है कि जात-पात की बहस को वह मुद्दों की तरफ मोड़ दे, उसके बाद मतदाता तय करें कि वे किसके पक्ष में मतदान करना चाहते हैं। मुद्दों को लेकर चर्चा के मामले में मीडिया में कोई ज्यादा उत्साह नजर नहीं आता। उसके बजाय मीडिया की ओर से भी ऐसी कोशिशों की कमी नहीं है, जहां अनावश्यक और अप्रासंगिक बातों को मुद्दा बनाया जा रहा है। मीडिया तो जनता का प्रतिनिधि हुआ करता था, फिर आखिर मीडिया का यह क्षरण क्यों है? इस क्षरण का सबसे बड़ा कारण यह है कि मीडिया उद्योग एक कैपिटल इंटेंसिव यानी, पूंजी सघन उद्योग है और अब अगर राष्ट्रीय स्तर का एक टीवी चैनल शुरू करना हो, तो उसमें ही हजारों करोड़ रुपए लग जाते हैं। किसी चैनल को चलाने के लिए तो विशाल पूंजी की आवश्यकता है ही, उसे चलाए रखने के लिए भी इतने ईंधन की आवश्यकता है कि व्यापारिक समझौते करना मीडिया मालिकों की आवश्यकता बन गई है। आज मीडिया के आकार और विविधता में इतना विस्तार हुआ है कि व्यापारिक समझौतों के बिना मीडिया उद्योग में जमे रहना ही मुश्किल हो गया है। सरकार किसी भी दल की हो, सरकार आलोचना बर्दाश्त नहीं करती। आलोचना करने वालों पर रोक लगाने के लिए प्रलोभन और सजा, दोनों का प्रयोग खुलकर किया जाता रहा है। शायद ही कोई सरकार इसका अपवाद रही हो। अब यह स्थिति जरूरत से ज्यादा खराब हो गई है।

टीवी चैनलों में आज स्थिति यह है कि परिचर्चा की योजना ही इस तरह से बनाई जाती है कि वह स्वस्थ संवाद के बजाय किसी एक दल का प्रचार बन जाती है। इससे राजनीतिक विमर्श का ध्रुवीकरण हो गया है। कुछ चैनलों ने खुलेआम सत्तारूढ़ दल का अंधसमर्थन शुरू कर दिया। समर्थन तक बात रहती, तो भी ठीक था, समर्थन से आगे बढ़कर और मर्यादा की लक्ष्मण रेखा लांघकर उन चैनलों के एंकरों ने विपक्ष पर भी प्रहार आरंभ कर दिया। दिल्ली में मोदी सरकार आने के बाद से यह ध्रुवीकरण सारी सीमाएं पार कर गया है। पूंजी सघन उद्योग होने के कारण मीडिया क्षेत्र में कारपोरेट घरानों और राजनीतिक दलों, राजनीतिक नेताओं या राजनीति की पृष्ठभूमि वाले लोगों की तूती बोल रही है, इससे मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का चरित्र ही बदल गया है। राजनेताओं को जनता का प्रतिनिधि माना जाता है, लेकिन दलबदल विरोधी कानून बन जाने के बाद से दल के मुखिया के हाथ में असीम शक्ति आ गई और राजनीतिक दल का अध्यक्ष एक प्रकार से दल का मालिक बन गया। राजनीतिक दल के नाम पर मिलने वाले वोटों की विवशता के कारण दल के सभी सदस्य, दल के मुखिया के गुलाम बन गए। वे जनता के प्रतिनिधि न होकर, अपने दल के प्रतिनिधि बन गए और सिखाए हुए तोतों की तरह रटी-रटाई बातें बोलने के लिए विवश हो गए। दलबदल विरोधी कानून के इस अकेले संविधान संशोधन ने राजनीति के चरित्र को बदल दिया। इसी तरह मीडिया उद्योग में पूंजी के प्रभाव ने मीडिया को विस्तार दिया, उसकी पहुंच को बढ़ाया, मीडिया की शान-ओ-शौकत को बढ़ाया, पर मीडिया कर्मियों और मीडिया उद्योग के चरित्र को हमेशा के लिए बदल दिया। भारत की जनता के सामने आज यह समस्या नहीं है कि राजनीति से जुड़े लोग झूठ बोल रहे हैं या यह कि मीडिया अनर्गल मुद्दों से भरा पड़ा है, बल्कि असली समस्या यह है कि उसकी आवाज कौन उठाएगा, उसके कठिन समय में उसका साथी कौन होगा? जनता और सरकार के बीच पुल बनकार जनता की राय सरकार तक कौन पहुंचाएगा। आज कौन है, जो जनता का प्रतिनिधि होगा? आज हमें इस महत्त्वपूर्ण सवाल का जवाब तलाशने की आवश्यकता है।

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