संविधान बदलना जरूरी

पीके खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार

 

संविधान देश को सुचारू रूप से चलाने के लिए बनाए जाते हैं। अतः संविधान आस्था का नहीं, सुचारू प्रशासन का विषय है और संविधान की उन धाराओं पर खुली बहस होनी चाहिए, जो लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को कमजोर करती हों और उन्हें बदलकर जनहितकारी संविधान बनाया जाना चाहिए। आवश्यक होने पर इसके लिए पूरा संविधान ही नए सिरे से लिखना पड़े, तो भी कुछ गलत नहीं है…

महाराष्ट्र की महिला व बाल विकास मंत्री पंकजा मुंडे ने अपनी बहन प्रीतम मुंडे के लिए बीड संसदीय क्षेत्र में प्रचार करते हुए एक बड़ी बात कही है। उन्होंने कहा कि यदि भाजपा दोबारा सत्ता में आई, तो हम वर्तमान संविधान को बदल देंगे। उन्होंने आगे यह भी कहा कि संविधान बदला जा सके, इसके लिए मजबूत लोगों को संसद में भेजा जाना चाहिए। हमें उनके इस बयान को भाजपा व संघ के अलग-अलग लोगों के अलग-अलग समय पर दिए गए बयानों के परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है, ताकि हम बात की गहराई तक जा सकें। पंकजा मुंडे के इस बयान से पहले भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने कहा था कि यदि भाजपा ने यह चुनाव जीत लिया, तो इसके बाद चुनाव की जरूरत ही नहीं होगी। इसलिए 2024 का लोकसभा चुनाव नहीं कराया जाएगा और यह अंतिम चुनाव है। साक्षी महाराज के बयान से भी पहले खुद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि भाजपा अगले 50 साल तक शासन करेगी। तब भी यह सवाल उठा था कि क्या भाजपा इसके बाद चुनाव नहीं कराएगी। चुनाव होंगे या नहीं होंगे, यह एक मुद्दा है, पर बड़ा मुद्दा यह है कि या तो चुनाव हों ही नहीं या फिर हों, तो इस तरह का जुगाड़ हो कि भाजपा का पलड़ा हर हालत में भारी रहे, इसके लिए संविधान बदलने की आवश्यकता है। सन् 2004 में वाजपेयी सरकार के पतन और कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए द्वारा शासन संभालने के लगभग दो वर्ष बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक केएन गोविंदाचार्य ने कहा था कि ‘हम नया संविधान लिखेंगे, जो भारतीयता को दर्शाता हो’।

उल्लेखनीय है कि उन्होंने संविधान संशोधन की नहीं, बल्कि नया संविधान लिखने की बात कही थी। क्या ये बयान यूं ही आते रहे हैं? क्या यह किसी रौ में कही गई बातें हैं? या यह हमें यह देखना चाहिए कि ये बयान किसी खास विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं? इतिहास को देखें, तो यह स्पष्ट है कि भाजपा और संघ इसी विचारधारा के हैं और समय और साधन होते ही वे संविधान बदल देंगे। यह सच है कि भाजपा की मातृ संस्था, यानी संघ की कभी भी भारतीय संविधान में आस्था नहीं रही। संघ का मानना है कि भारतीय संविधान विदेशी विचारों से प्रभावित है और इसमें भारतीयता का समावेश नहीं है। दरअसल, संघ ने तो भारतीय संविधान पारित होने के तीन दिन बाद 30 नवंबर, 1949 को ही इसे अस्वीकार कर दिया था। संघ के मुखपत्र आर्गेनाइजर में छपे संपादकीय में संविधान की जगह ‘मनुस्मृति’ को लागू करने की वकालत की गई थी। संघ के दूसरे मुखिया, सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘ए बंच आफ थॉट्स’ में यही कहा था कि हमारा संविधान पश्चिमी देशों के अलग-अलग संविधानों से से उठाई गई बेमेल चीजों को एक जगह रख कर तैयार किया गया है और यह हमारे राष्ट्रीय मिशन को निर्देशित करने वाले मूलभूत सिद्धांतों की बात नहीं करता है। उन्होंने यहां तक कहा कि संघ का राष्ट्रवाद देश के राष्ट्रवाद या संभावित संविधान के राष्ट्रवाद से अलग है और दोनों में कोई समानता नहीं है। यह कोई रहस्य नहीं है कि भाजपा और संघ को अलग-अलग निगाह से नहीं देखा जा सकता, दोनों में कोई अंतर नहीं है, सिर्फ काम का बंटवारा है। यह सही है कि हमारा वर्तमान संविधान उलझनों का ढेर मात्र है। इस संविधान में सवा सौ के लगभग संशोधन होने के अलावा इसके मूल स्वरूप में भी कई बार कई बदलाव हो चुके हैं। यह संविधान इस हद तक रोगग्रस्त और अनुपयोगी है कि इसमें कोई संशोधन इसकी मूलभूत कमियों को दूर नहीं कर सकता, इसलिए संविधान को तो बदला ही जाना चाहिए। देश के बहुत से विद्वान, लेखक, उद्यमी और राजनीतिज्ञ समय-समय पर इसकी वकालत कर चुके हैं, लेकिन जिन विद्वानों, लेखकों, उद्यमियों और राजनीतिज्ञों का हम जिक्र कर रहे हैं, वे संघ द्वारा प्रतिपादित मनुस्मृति के विचार से सहमत नहीं हैं और न ही वे संघ के इस विचारधारा वाले संविधान की हिमायत करते हैं। इसके बजाय उनका मानना यह है कि हमारा संविधान अत्यधिक केंद्रीकृत है और यह एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करता है, जिसमें जनता की कोई सुनवाई नहीं है। देश में लोकतंत्र होने के बावजूद संविधान में ‘लोक’ कहीं नहीं है, सिर्फ तंत्र ही तंत्र है।

यह समझना आवश्यक है कि पांच साल में एक बार वोट डाल देने के बाद मतदाताओं की भूमिका तो समाप्त हो ही जाती है, चुन लिए जाने के बाद विधायकों और सांसदों की भूमिका भी नहीं है। नागरिकों को अपना प्रतिनिधि चुनने के लिए अपनी मर्जी से वोट देने का अधिकार है, लेकिन चुने गए प्रतिनिधियों को संसद अथवा विधानसभा में अपनी मर्जी से वोट देने का अधिकार नहीं है, चाहे वे अपनी पार्टी के स्टैंड से सहमत हों या नहीं। पार्टी की ओर से ह्विप जारी होने के कारण संसद अथवा विधानसभाओं में किसी भी मुद्दे पर वोटिंग से पहले ही हमें पता होता है कि उसके पक्ष अथवा विपक्ष में कितने वोट पड़ेंगे और यह भी कि कौन किस तरफ वोट देगा। इससे मतदान की प्रासंगिकता ही समाप्त हो जाती है और सांसद या विधायक पिंजरे के उस तोते की तरह बन कर रह जाते हैं, जो केवल सिखाए गए शब्द ही बोल सकते हैं। परिणाम यह है कि सरकार द्वारा पेश किए गए बिलों पर सार्थक बहस नहीं होती, जनहित के कानून नहीं बनते, कानूनों में भाषा की बेशुमार गलतियां होने लग गई हैं और कानूनों का स्तर लगातार गिरता चला जा रहा है। यदि प्रधानमंत्री के पास अपने ही दल का पूर्ण बहुमत हो और वह मजबूत हो, तो यह संविधान प्रधानमंत्री को असीमित शक्तियां प्रदान करता है। इंदिरा गांधी ने आपातकाल घोषित कर दिया, वीपी सिंह ने मंडल आयोग का पिटारा खोल डाला और नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी लागू कर दी। तीनों प्रधानमंत्रियों ने इसके लिए संसद की मंजूरी लेना तो दूर, अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों तक से बात नहीं की थी। यह खेद का विषय है कि हमारे संविधान ने खुद ही लोकतंत्र को मजाक बना डाला है।

संविधान देश को सुचारू रूप से चलाने के लिए बनाए जाते हैं। अतः संविधान आस्था का नहीं, सुचारू प्रशासन का विषय है और संविधान की उन धाराओं पर खुली बहस होनी चाहिए, जो लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को कमजोर करती हों और उन्हें बदलकर जनहितकारी संविधान बनाया जाना चाहिए। आवश्यक होने पर इसके लिए पूरा संविधान ही नए सिरे से लिखना पड़े, तो भी कुछ गलत नहीं है।

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