लोकतंत्र की दशा-दिशा

पीके खुराना

वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार

 

सन1945 में विश्व भर में कुल 12 देशों में लोकतंत्र था। बीसवीं सदी की समाप्ति के समय यह संख्या बढ़कर 87 तक जा पहुंची लेकिन उसके बाद लोकतंत्र का प्रसार रुक गया। कुछ देशों में दक्षिणपंथी विचारधारा ने कब्जा कर लिया है या पोलैंड, हंगरी, फ्रांस, ब्रिटेन, इटली, ब्राजील, अमरीका और भारत जैसे देशों में यह लगातार शक्तिशाली हो रही है…

यह एक तथ्य है कि मानव मस्तिष्क खुद ही अनुशासन में रहने के लिए नहीं बने हैं। हमें कोई बाहरी शक्ति अनुशासन में रहने के लिए विवश करती है और जहां निगरानी में कमी हो, छूट हो, वहां धीरे-धीरे उच्छृखंलता पसर जाती है। हाल ही में लिस्बन में राजनीतिक मनोवैज्ञानिकों की अंतरराष्ट्रीय सोसायटी के वार्षिक अधिवेशन में बोलते हुए नामचीन प्रोफेसर शॉन रोजेनबर्ग ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि लोकतांत्रिक संस्थाओं का हृस हो रहा है और लोकतंत्र इस दिशा में बढ़ रहा है कि वह धीरे-धीरे समाप्त हो जाए। शॉन रोजेनबर्ग ने येल, आक्सफोर्ड तथा हार्वर्ड विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की है और उनकी विद्वता का सिक्का विश्व भर में चलता है। प्रोफेसर रोजेनबर्ग के इस निष्कर्ष को हम भावना का अतिरेक भी मान लें तो भी बहुत से ऐसे तथ्य हैं जिनकी उपेक्षा कर पाना संभव नहीं है।

शासन व्यवस्था तथाकथित अभिजात्य वर्ग के नियंत्रण से निकल कर सामान्य जनों के हाथ में आ गई है। बीसवीं सदी लोकतंत्र का स्वर्ण युग रही है। सन1945 में विश्व भर में कुल 12 देशों में लोकतंत्र था। बीसवीं सदी की समाप्ति के समय यह संख्या बढ़कर 87 तक जा पहुंची लेकिन उसके बाद लोकतंत्र का प्रसार रुक गया। कुछ देशों में दक्षिणपंथी विचारधारा ने कब्जा कर लिया है या पोलैंड, हंगरी, फ्रांस, ब्रिटेन, इटली, ब्राजील, अमरीका और भारत जैसे देशों में यह लगातार शक्तिशाली हो रही है।

दक्षिणपंथी विचारधारा को जहां विश्व भर में सन 1998 में सिर्फ  4 प्रतिशत लोगों का समर्थन था, सन 2018 आते-आते यह बढ़कर 13 प्रतिशत तक जा पहुंचा है। लोकतंत्र को संभालना अत्यंत बुद्धिमता और मेहनत का काम है। सामान्य जन बुद्धिमता के उस स्तर तक पहुंचने में नाकाम रहा है जहां लोकतंत्र को समझा और संभाला जा सके।

तथाकथित उदारवादियों अव्यवस्था और भ्रष्टाचार से परेशान नागरिक अंततः दक्षिणपंथ की शरण में गए हैं और इस विचारधारा से सहमत हो गए कि शासन तो डंडे से ही चलता है। यानी, खुद हम नागरिक ही इस बात का समर्थन करते हैं कि कड़े अनुशासन और सजा के प्रावधान के बिना हम नैतिकता और कानून की परवाह नहीं करेंगे। यह सिर्फ  आम जनता का विचार ही नहीं है बल्कि समाज शास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों और उच्च शिक्षित लोगों की राय का भी प्रतिनिधित्व करता है। प्रोफेसर रोजेनबर्ग का कहना है कि अगले कुछ दशकों में पश्चिमी स्टाइल का लोकतंत्र नाकाम हो जाएगा, बहुत से देश लोकतांत्रिक व्यवस्था छोड़ देंगे और जो बाकी बचेंगे वे भी अपने आप में सिमटे के रहेंगे। समस्याएं जटिल हैं और दक्षिणपंथ उनके सरल समाधान प्रस्तुत करता है, यह अलग बात है कि उनमें से बहुत से या तो व्यावहारिक नहीं हैं। हम लोग दूसरों की असहमति बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं, खुद से भिन्न विचारों से खुश नहीं होते और सूचना के समंदर में से सही और गलत का फर्क नहीं कर पाते क्योंकि हम इसके लिए आवश्यक ज्ञान, विवेक, तर्क और अनुशासन की क्षमता का विकास नहीं कर पाए हैं।

हमें इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी जैसे तेज़-तर्रार शासक कहीं ज्यादा पसंद आते हैं क्योंकि हम मानने लगते हैं कि शासन तो डंडे के जोर पर ही चलता है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि पिछले कुछ दशकों में धीरे-धीरे अल्पसंख्यकों को दी जाने वाली सुविधाओं का ढेर लग गया और बहुसंख्यक वर्ग ने स्वयं को उपेक्षित महससू करना शुरू कर दिया। तब अल्पसंख्यकों की धौंस थी, अब बहुसंख्यकों की तानाशाही है। हम यह समझ पाने में असमर्थ हैं कि संतुलित व्यवहार के बिना यह तानाशाही और ज़ोर.जबरदस्ती लंबे समय तक नहीं चल सकती। इससे सिर्फ  समाज में वैमनस्य ही बढ़ेगा और खून के बदले खून या सिर के बदले सिर की संस्कृति आम हो जाएगी। लोकतंत्र की मांग है कि अनेकता वाले समाज में सद्भाव और उदारता के साथ ही चला जा सकता है। स्पष्ट है कि हमसे भिन्न तरह से सोचने और दिखने वाले लोगों का भी देश पर उतना ही हक है जितना कि हमारा, लेकिन दूसरी कौम के लोगो के साथ सामंजस्य बनाकर रखने के बजाय उनका मजाक उड़ाना और उन्हें नीचा दिखाना ज्यादा आसान काम है और आज हम वही कर रहे हैं। इसके लिए सच की आवश्यकता नहीं है, तर्क गढ़े जा सकते हैं। देशभक्ति और धर्म के नाम पर लोगों को बरगलाया जा सकता है और उत्तेजित किया जा सकता है। ओवैसी हो या ठाकरे, सबने इस हथियार का प्रयोग बड़ी कुशलता और आसानी से किया है।

निष्ठाएं बदल गई हैं और आम भारतीय के लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं, लोकतांत्रिक संस्कृति और व्यवहार की उपेक्षा करना गर्व विषय बन गया है। रोजेनबर्ग की भविष्यवाणी कब सच्ची होगी, सच होगी भी या नहीं, यह कहना आसान नहीं है, लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं है कि हम लोग एक खतरनाक रास्ते पर तेजी से आगे बढ़ रहे हैं जिसके परिणाम शुभ होने के अवसर न के बराबर हैं। निकट भविष्य में जो काम और नीतियां हमें अपनी जीत जैसी प्रतीत होती हैं, वे ही बाद में हमारे विनाश का कारण बन सकती हैं। अभी हम जिधर दौड़ रहे हैं यहां रास्ते में कोई स्पीड-ब्रेकर नहीं है और हमारे अंदर कोई ब्रेक नहीं है। यह अंधी दौड़ हमें कहां ले जाएगी, कहना मुश्किल है। समस्या यह नहीं है कि सबसे बड़ा नेता क्या सोचता है? समस्या यह है कि आम जनता क्या सोचती है?

आम जनता उग्र विचारों के समर्थन में कितना आगे तक जा सकती है। आज हम विदेशी घुसपैठियों की बात करें या अपने देश पर आक्रामण करने वाली जातियों के पूर्वजों की बात करें, हम यह भूल जाते हैं कि यह सिर्फ  एक व्यक्ति की भूल नहीं है, यह एक विचारधारा की भूल है। व्यक्ति को बदला जा सकता है, उसे हटाया जा सकता है लेकिन विचारधारा में परिवर्तन उतना आसान नहीं है और एक बार जब हम किस विशिष्ट विचारधारा के समर्थन में उतर आए तो फिर हमारे लिए खुद को बदल पाना भी कई बार संभव नहीं हो पाता। प्रोफेसर रोजेनबर्ग इसी डर का इजहार करते हुए कहते हैं कि लोकतंत्र की सीमाएं छोटी होती जा रही हैं, सिमटती जा रही हैं और यह बहुत संभव है कि आने वाले कुछ दशकों में लोकतंत्र से चलने वाले देशों की संख्या इतनी कम हो जाएगी कि उन्हें अंगुलियों पर गिना जा सकेगा। 

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