जल प्रबंधन और बाढ़ के खतरे: कुलभूषण उपमन्यु, अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

इस वर्ष असम, मध्य प्रदेश और गुजरात में भी बांध ही बड़ी बाढ़ का कारण रहे हैं। कुछ वर्ष पहले ओडीशा में भयानक बाढ़ का कारण भी हीराकुड बांध से अचानक भारी मात्रा में पानी छोड़ा जाना ही था। पंजाब भी यह त्रासदी कई बार झेल चुका है। इस अनुभव से यह साबित होता है कि बांधों में जल प्रबंधन और नियंत्रण लापरवाही पूर्ण है, जिसके लिए जल आयोग जैसी संस्थाओं को पूर्णतः वैज्ञानिक तरीके से मौसम विभाग की जानकारियों से तालमेल बना कर बांध जल प्रबंधन करना चाहिए। बांधों को बरसात से पहले खाली कर दिया जाना चाहिए…

भारतीय संस्कृति में नदियों को बहुत श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता रहा है। यहां तक कि नदी को माता का स्थान देकर महिमा मंडित किया गया है। सच भी है क्योंकि जल के बिना जीवन संभव ही नहीं है और धरती पर जल वितरण कार्य नदियों द्वारा ही किया जाता है। वर्षा के जल को लेकर पहाड़ों से समुद्र तक पहुंचाने की यात्रा में नदी पूरे देश में पानी वितरण कार्य करती हुई आगे बढ़ती है। सब तरह के जीवन को पालती-पोसती हुई, तो उसे मां क्यों न कहें? प्रकृति ने इस जल निकास प्रणाली को कारगर बनाने के उपाय के रूप में नदियों के उद्गम और किनारों पर सुंदर सघन वनों की व्यवस्था की है, जिससे वृक्षों की जड़ों द्वारा जल संरक्षित होकर वर्ष भर धीरे-धीरे रिसता रहता है और सारे जीव जगत की जरूरतों को पूरा करता रहता है।

धीरे-धीरे मनुष्य के लालच ने वनों के विनाश का क्रम शुरू किया और नदियां अपना धर्म निभाने में असमर्थ होती गईं। सदा नीरा, पुण्य-सलिला नदियां बाढ़ की विभीषिका का कारण बनने लगीं। मानव ने प्रकृति मित्र तकनीकों से जल संरक्षण तो काफी पहले ही सीख लिया था। कुएं, बावडि़यां, तालाब और छोटी-छोटी जल संग्रह इकाइयां बनाई जाने लगीं, जिससे भूजल भरण का कार्य भी होता और सतही जल भी उपलब्ध रहता। धीरे-धीरे औद्योगिक संस्कृति के विकास के साथ-साथ बिजली की जरूरतों में बढ़ोतरी होती गई और वन क्षेत्र वनाधारित उद्योगों के प्रसार के चलते घटता गया। अब जल विद्युत के विकास के लिए बड़े बांधों के निर्माण का दौर शुरू हो गया, जिनमें जल संग्रह करके धीरे-धीरे वर्ष भर बिजली बनाने और सिंचाई की बृहद योजनाएं संचालित करने की योजनाएं बनने लगीं। इनका एक लक्ष्य बाढ़ नियंत्रण भी था। इसके साथ पर्यटन, भू-क्षरण रोकना और मछली पालन भी बड़े बांधों के लक्ष्य रखे गए। केंद्रीय जल आयोग का गठन किया गया, जिसका कार्य था राज्यों की सहायता और सहमति से पानी के नियंत्रण, संरक्षण और उपयोग की योजनाएं बनाना और समन्वय करना। वैसे तो बाढ़ें शुरू से ही आती रही हैं, इन्हीं से फैलाई गई मिट्टी से गंगा और सिंध के मैदान बने हैं। किंतु काल क्रम में नदियों ने अपने मार्ग विकसित और निश्चित कर लिए और बाढ़ें भी कम होती गईं। इसी वजह से मैदानों में बड़ी-बड़ी बस्तियां बनती गईं, किंतु उन प्रक्रियाओं को समझे बिना नई आक्रामक समझ से जब हम आगे बढ़े तो नदियों के प्रति हमारी दृष्टि बदल गई। एक ओर हमने नदियों के उद्गम और किनारों के वन क्षेत्र नष्ट किए तो दूसरी ओर सारी शहरी गंदगी नदियों में डाल कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली। सड़कों और रेल लाइनों के जाल बनाते समय पानी के निकास मार्गों को चिन्हित करने और बनाए रखने की ओर ध्यान न देने के कारण बस्तियों और जमीनों में पानी जमा होने लग गया।

बाढ़ों को रोकने के लिए प्राकृतिक जल संरक्षण तकनीकों की ओर ध्यान देने के बजाय बड़े बांधों में पानी रोक कर बिजली बनाने, बाढ़ रोकने और बृहद सिंचाई व्यवस्थाएं खड़ी करने की दिशा में मुड़ गए। एक ओर बांध बनाए गए तो दूसरी ओर नदियों में तट बंध बनाए गए। बिहार में तट बंधों के कारण जो तबाही हुई, उसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1954 की बिहार की भयानक बाढ़ में, जब तक तट बंध नहीं बने थे, 25 लाख हेक्टेयर भूमि जलमग्न हुई थी। किंतु उसके बाद बड़े पैमाने पर तटीकरण का कार्य हुआ और 1987 में उससे काफी छोटी बाढ़ में ही 75 लाख हेक्टेयर भूमि जलमग्न हो गई। यानी मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की। 2019 में कर्नाटक का बेलागवी जिला, जो ज्यादातर सूखा ग्रस्त रहता है, भयानक बाढ़ की चपेट में आ गया। एक से सात अगस्त के बीच 652 फीसदी अधिक बारिश हुई, पूरे कर्नाटक में यह अति वृष्टि का प्रतिशत 128 रहा। हालांकि मौसम विभाग ने इसकी भविष्यवाणी की थी, किंतु बांध जल प्रबंधन में मौसम की भविष्यवाणी की ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया जाता। बांध लबालब भरे होने के बावजूद घाटप्रभा नदी पर बने हिडकल बांध से छह अगस्त तक केवल 68.8 घन मीटर प्रति सेकंड पानी ही छोड़ा जा रहा था। 7-8 अगस्त को बारिश और तेज हो गई, बांध की जल धारण क्षमता समाप्त हो गई जिसके चलते अचानक 833.3 क्यूमेक्स पानी छोड़ दिया गया और 9 अगस्त को 2858 क्यूमेक्स की दर से पानी छोड़ दिया गया।

331 गांव बाढ़ की चपेट में आ गए, 5000 घर क्षतिग्रस्त हो गए। पूरे कर्नाटक के अन्य बांधों में भी यही हालत रही और कुल 40 से 50 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। महाराष्ट्र के कोयना, वार्ना और राधा नगरी बांधों में भी जल प्रबंधन इसी तरह किया गया और भारी नुकसान हुआ। इस वर्ष असम, मध्य प्रदेश और गुजरात में भी बांध ही बड़ी बाढ़ का कारण रहे हैं। कुछ वर्ष पहले ओडीशा में भयानक बाढ़ का कारण भी हीराकुड बांध से अचानक भारी मात्रा में पानी छोड़ा जाना ही था। पंजाब भी यह त्रासदी कई बार झेल चुका है। इस अनुभव से यह साबित होता है कि बांधों में जल प्रबंधन और नियंत्रण लापरवाही पूर्ण है, जिसके लिए जल आयोग जैसी संस्थाओं को पूर्णतः वैज्ञानिक तरीके से मौसम विभाग की जानकारियों से तालमेल बना कर बांध जल प्रबंधन करना चाहिए। बांधों को बरसात से पहले खाली कर दिया जाना चाहिए और मौसम की भविष्यवाणी  के अनुरूप खाली जगह बांध में रखी जानी चाहिए ताकि अचानक आई भारी बारिश के पानी को रोक सकने की क्षमता बनी रहे। वरना ‘जल ही अमृत है’ की भावना जल के प्रति पनपने के बजाय बाढ़ग्रस्त इलाकों में पानी भय का कारण बनता जा रहा है। इसका समाधान होना ही चाहिए। बाढ़ से होने वाले नुकसान की भरपाई वर्षों तक नहीं हो पाती है। इसलिए समाधान जरूरी है।