जलवायु परिवर्तन और हिमनद के खतरे

इन झीलों को कम खतरनाक नहीं आंका जा सकता और उत्तराखंड जैसी त्रासदी कहीं और न हो, इसके लिए इन झीलों की सतत निगरानी हो…

जलवायु परिवर्तन आज के युग की वास्तविकता बन चुकी है। प्रचलित विकास मॉडल के लिए ऊर्जा की अत्यधिक आवश्यकता है और यह जरूरत लगातार बढ़ती ही जा रही है। वही  ज्यादा विकसित माना जाता है जो ऊर्जा की खपत ज्यादा करता है। ऊर्जा पैदा करने के प्रमुख साधन कोयला, पेट्रोलियम और बांध आधारित जल विद्युत भी हरित प्रभाव गैसों का उत्सर्जन करने वाले हैं। इन गैसों का वायु मंडल में एक सीमा से ज्यादा जमा हो जाना सूर्य की गर्मी को परावर्तित नहीं होने देता है, वायु मंडल में ही पकड़ कर रखता है। इससे भूमि की सतह पर तापमान वृद्धि हो रही है। पिछली सदी के मुकाबले तापमान में एक डिग्री सेंटीग्रेड वृद्धि हो चुकी है। हिमालय सहित पर्वतीय क्षेत्रों में मुकबलतन ज्यादा वृद्धि हुई है। इसी का परिणाम है कि हिमालय के हिमनद तेजी से पिघल रहे हैं। हिमरेखा लगातार पीछे हट रही है। इसी प्रक्रिया के फलस्वरूप पिघलते हिमनद टूट कर अपने साथ अन्य मलबा लेकर जब संकरी घाटियों में गिरते हैं तो उससे बर्फ  के बांध बन जाते हैं और उनमें पिघलते हिमनदों का पानी जमा होकर छोटी-छोटी झीलें बन जाती हैं। इन झीलों के बर्फानी बांध जब पिघल कर कमजोर हो जाते हैं तो टूट जाते हैं। इस तरह झीलों का अथाह जल अपने साथ बाढ़ में आसपास की मिट्टी, पत्थर बहा कर ले जाता है और भयानक बाढ़ का कारण बनता है।

 90 के दशक में सतलुज की अभूतपूर्व बाढ़ जिसमें पार्छू नदी पर बनी झील के टूटने से ही सतलुज के दोनों किनारों की आबादियों को भारी नुकसान हुआ था। 2013 की केदारनाथ त्रासदी को कौन भूल सकता है, जिसके जख्म अभी भी भरे नहीं हैं। हजारों की संख्या में जनजीवन की  हानि हुई। बस्तियां उजड़ गईं। हंसते खेलते परिवार काल के ग्रास बन कर धूल में मिल गए। राष्ट्रीय संपत्ति की भारी हानि हुई, जिसकी भरपाई आज तक करना कठिन हो रहा है। उस त्रासदी से अभी उबरे भी नहीं थे कि 7 फरवरी 2021 को चमोली जिले की ऋषिगंगा में तबाही का भयानक मंजर पेश हो गया। सैकड़ों जानें चली गईं। रास्ते, पुल, आवास, सड़कें मटियामेट हो गईं। अभी तक भी इस दुर्घटना के कारणों की सटीक जानकारी नहीं है। भू-वैज्ञानिक भी इतनी भारी मात्रा में जल प्रवाह के स्रोत का पता लगाने का प्रयास कर रहे हैं।

धौली गंगा घाटी में इतनी बड़ी जल राशि का इकट्ठा होना अनुदर्शन प्रणाली से कैसे छुपा रहा? हिमालय की संवेदनशील भू-वैज्ञानिक स्थिति के समुचित अध्ययन का न होना भी चिंता का कारण है। हिमालय में विकास योजनाएं केवल इंजीनियरिंग की समझ से बना देना अधूरी वैज्ञानिकता का उदाहरण है, जबकि  हिमालय में भूकंप के खतरे और अन्य संवेदनशीलताओं के चलते बहुत सावधानी से परिस्थिति-विज्ञान के सब पहलुओं को ध्यान में रख कर योजना बनाने की जरूरत है। हिमालय जो तीसरा ध्रुव कहा जाता है, इसमें ऐसी असावधानियां न केवल हिमालयी क्षेत्रों को बल्कि पूरे भारत को महंगी पड़ने वाली हैं। देश को हिमालय से प्राप्त होने वाली पर्यावरणीय सेवाओं पर खतरा मंडरा सकता है। समय-समय पर हिमालय में पर्वत विशिष्ट विकास मॉडल की बात योजना आयोग और अब नीति आयोग में भी उठती रही है, किंतु उस पर कोई अमल होते हुए दिखाई नहीं देता है और अर्ध-वैज्ञानिक समझ से योजनाएं बनती जा रही हैं जिसका परिणाम देश भोग रहा है। योजना निर्माण कार्यों में बरती जा रही लापरवाहियों का ही उदाहरण है कि ऋषि गंगा और विष्णुगाड़ परियोजनाओं में कार्यरत कामगारों के परिवारों के पते तक नहीं हैं।

सुरंग में कितने लोग फंस गए, उनकी संख्या तक का पता नहीं है। निर्माणकर्ता कंपनियां स्थानीय लोगों के हितों और कामगारों की सुरक्षा के प्रति कितनी गंभीर हैं, इसी से पता चल जाता है। हिमाचल प्रदेश भी इन खतरों से अछूता रहने वाला नहीं है। हिमाचल प्रदेश राज्य जलवायु परिवर्तन केंद्र द्वारा इसरो के सहयोग से किए गए अध्ययन में हिमाचल प्रदेश के सतलुज, ब्यास, रावी और चेनाब जलागमों के बारे में तकनीकी रपट जारी हुई है, जिसमें यह बात सामने आई है कि हिमनदों के आकार-प्रकार में तेजी से परिवर्तन आ रहा है, जिससे बर्फानी मलबे से बने बांधों से झीलें बन रही हैं, जो टूटने पर बड़ी तबाही का कारण बन सकती हैं। हिमालय में बड़े भूकंपों की संभावना बनी ही रहती है। ऐसी स्थिति में इन हिमनद झीलों के फटने का खतरा और भी बढ़ जाएगा। इसलिए आपदा प्रबंधन की तैयारी के लिए इन झीलों की सतत निगरानी की जरूरत है, ताकि तदनुरूप सुरक्षा की दृष्टि  से उचित व्यवस्थाएं की जा सकें। जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारक मानवीय विकास गतिविधियां हैं, जिसके कारण हरित प्रभाव गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। ये गैसें ही वैश्विक तापमान वृद्धि का कारण हैं।

 21वीं सदी में वैश्विक तापमान 1.1 डिग्री सेंटीग्रेड से 2.9 डिग्री तक बढ़ सकता है। हिमालय और इसके पड़ोस के मैदानी क्षेत्रों के विश्लेषण से यह बात सामने आई है कि मैदानी इलाकों के मुकाबले हिमालय में तापमान की वृद्धि दर अधिक है। इसलिए पर्वतीय क्षेत्रों का परिस्थिति तंत्र सबसे ज्यादा प्रभावित होगा। बर्फबारी के क्रम में बदलाव, सर्दियों का देर से शुरू होना और जल्दी समाप्त होना, गर्मियों में तापमान की वृद्धि, जिसके कारण ग्लेश्यरों के पिघलने की बढ़ती दर और इसके कारण नदियों के जल बहाव का तरीका बदल गया है। उत्तर पश्चिमी हिमालय की नदियों में पानी की मात्रा में गिरावट दर्ज की गई है। 1866 से 2006 के बीच सर्दियों की बारिश में ज्यादा अंतर नहीं आया है, किंतु बरसात की बारिश में कमी की ओर बदलाव हो रहा है। बड़ा शिन्ग्री ग्लेशियर हिमाचल का सबसे बड़ा ग्लेशियर है जिसका क्षेत्रफल 137 वर्ग किलोमीटर है। इसके क्षेत्रफल में 1906 से 1995 के बीच 4.33 वर्ग किलोमीटर की कमी आई है।

इस समय ग्लेशियर पिघलने की दर में 10 फीसदी वृद्धि के कारण 3.4 फीसदी अधिक पानी उपलब्ध हो रहा है, किंतु 40 वर्षों बाद तक ये ग्लेशियर समाप्त हो चुके होंगे। तब दक्षिण एशिया को जल संकट का सामना करना पड़ेगा। 2018 में किए गए एक विश्लेषण में यह सामने आया कि सतलुज जलागम में कुल 769 झीलें हैं जिनमें से अधिकांश 5 हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल की हैं, जबकि 57 झीलें 5 से 10 हेक्टेयर और 49 दस हेक्टेयर से बड़ी हैं। यह संख्या 2017 के मुकाबले 127 झील ज्यादा है। चेनाब जलागम में 2018 में 254 झीलें पाई गईं जो 2015 में 192 थीं, जबकि ब्यास में 2018 में 65 झीलें पाई गईं जो 2017 के मुकाबले 8 फीसदी कम हैं। इसका कोई स्थानीय कारण हो सकता है। ग्लेशियर से बनने वाली झीलों की संख्या बढ़ रही है। अतः खतरे की दृष्टि से इन झीलों को कम खतरनाक नहीं आंका जा सकता और उत्तराखंड जैसी त्रासदी कहीं और न हो, इसके लिए इन झीलों की सतत निगरानी की सख्त जरूरत है।