सच जानने का अधिकार

तुर्रा यह कि खुद सत्तासीन दल के सांसदों के उन स्वीकृत सवालों का जवाब देने से मना कर दिया जाता है जो सरकार की परेशानी का सबब बन सकते हैं। भाजपा सांसद सुब्रहमण्यन स्वामी भी सरकार की इस नीति का शिकार हो चुके हैं। पिछले साल 2 दिसंबर की सुबह उन्हें सूचित किया गया कि उनके सवाल का जवाब नहीं दिया जा सकेगा। उनका सवाल था कि क्या चीनी सेनाओं ने नियंत्रण रेखा का उल्लंघन किया है। सरकार ने इस सवाल का जवाब देने से मना कर दिया। इसी तरह कुछ विपक्षी सांसदों के सवालों को, जिनका जवाब आज ही दिया जाना था, अस्वीकृत कर दिया गया है…

गांवों के विकास से संबंधित आंकड़ों और खातों में पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से सन् 1990 का मज़दूर किसान शक्ति संगठन का आंदोलन इतना प्रेरणादायक रहा कि अंततः जून 2005 में भारतवर्ष में सूचना के अधिकार का कानून बन गया जो 13 अक्तूबर 2005 को पूर्णतः लागू हो गया। लोकतंत्र को कुछ और समर्थ बनाने के लिए लागू किए गए इस कानून ने बहुत से काम किए हैं। सूचना का अधिकार एक ऐसा हथियार साबित हुआ है जिसने नागरिकों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता का भाव पैदा किया है। सभी राजनीतिक दल और नौकरशाही इससे डरते हैं, सवालों का जवाब देने से बचने की भरसक कोशिश करते हैं। सूचना के अधिकार के कारण भ्रष्टाचार के कई किस्से सामने आए हैं और जवाबदारियां तय होती रही हैं। नेतागण किसी की बात सिर्फ तभी सुनते हैं जब उन्हें लगे कि फरियादी किसी वोट बैंक का हिस्सा है। शासन-प्रशासन में जनता की कोई भागीदारी नहीं है। परिणाम यह है कि चुनाव के समय तक मतदाता इतना खीझा हुआ होता है कि वह तत्कालीन सरकार के भ्रष्टाचार और निकम्मेपन के खिलाफ वोट देता है।

 मतदान के समय एंटी-इन्कंबेंसी का यही कारण है। हम अपनी मजऱ्ी से अपने जनप्रतिनिधि चुनते हैं, लेकिन दलबदल कानून और पार्टी ह्विप से बंधे जनप्रतिनिधि अपनी मजऱ्ी से वोट नहीं दे सकते, कानून बनवा नहीं सकते, रुकवा नहीं सकते, बदल नहीं सकते। नौकरशाही इतनी ताकतवर है कि मंत्रियों तक को उनकी चिरौरी करनी पड़ती है। हमारे संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मान्यता दी गई थी, इसीलिए पत्रकारों को कुछ विशिष्ट सुविधाएं मिलती थीं, विभिन्न सरकारें उन्हें मान्यता देती थीं जिनके कारण वे बहुत सी सुविधाओं का उपभोग करते थे। सन् 2014 से पहले तक मीडियाकर्मियों का बहुत दबदबा था और बहुत से पत्रकार माफिया की तरह सरकारी निर्णयों को प्रभावित करते थे। मनचाही खबरें छपवाने के लालच में राजनीतिज्ञ और नौकरशाह इन पत्रकारों से मित्रता बनाकर रखना आवश्यक समझते थे। मोदी ने सब कुछ उलट-पलट कर दिया और मीडिया को घुटनों पर ला दिया। अब मीडिया सत्ता का भजनीक बनकर रह गया है। कुछ गिने-चुने लोग ही हैं जो आज भी अपनी आवाज़ बुलंद किए हुए हैं, लेकिन उनकी पहुंच बहुत सीमित है और आस्था के प्रभाव के चलते अधिकांश नागरिक उनकी बात को समझने की कोशिश तक नहीं करते।

वर्तमान शासन में मीडियाकर्मियों की आवाज़ को दबाने का सिलसिलेवार काम शुरू हुआ और सरकारी विज्ञापनों तथा समर्थक उद्यमियों की कंपनियों के विज्ञापन के दम पर मीडिया पर अंकुश लगाए गए। मीडिया घरानों के मालिक जल्दी ही समझ गए कि पानी में रहकर मगर से बैर नहीं किया जा सकता और वे झुकने के बजाय लंबे लेट गए। अपने मालिकों का यह हाल देखा तो बेचारे पत्रकारों की औकात क्या रही। सुविधाभोगी जीवन जी रहे पत्रकार भी बेशर्म चापलूसी पर उतर आए। अब सरकार ने पत्रकारों को मान्यता देने के लिए जारी नीति के माध्यम से उनकी मुश्कें कुछ और कस दी हैं। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा बनाई गई इस नीति की घोषणा प्रेस सूचना कार्यालय ने की है। नैतिकता, राष्ट्रवाद आदि कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनकी कोई स्थायी परिभाषा नहीं है और सरकार मनचाहे ढंग से इनकी व्याख्या कर सकती है। पत्रकारों की आवाज़ दबाने का यह नया प्रयास मानसिक गुलामी की ओर एक और कदम है। पत्रकारों की बात तो छोडि़ए। संसद तक को इससे अछूता नहीं रखा गया। वैसे तो संसद को बेमानी कर देने की प्रक्रिया तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ही आरंभ कर दी थी जब उन्होंने बहुचर्चित बयालिसवें संविधान संशोधन के माध्यम से संविधान की प्रासंगिकता समाप्त कर दी थी। संविधान को एक और बड़ा झटका तब लगा जब राजीव गांधी ने स्वयं को सर्वशक्तिमान बनाने की नीयत से दलबदल विरोधी कानून पास करवाया। जनता इसे मात्र दलबदल विरोधी कानून के रूप में ही जानती है, पर इसने राजनीतिक परिपाटियों में एक बड़ा परिवर्तन यह किया कि राजनीतिक दल के मुखिया को दल के संचालन के लिए तानाशाही शक्तियां सौंप दीं, जिससे राजनीतिक दल का मुखिया सिर्फ मुखिया न रहकर दल का मालिक बन गया।

 ह्विप से बंधे सांसद अपने-अपने दलों के गुलाम हो गए, संसद अथवा विधानसभाओं में बिलों पर पार्टी की नीति के अनुसार वोट देना उनकी मजबूरी हो गई और कानून बनाने की प्रक्रिया में किसी सार्थक बहस की गुंजाइश ही खत्म हो गई। मोदी सरकार अब कुछ और नई परंपराएं गढ़ रही है। संसद के दोनों सदनों के सदस्यों का किसी भी मंत्रालय के कामकाज अथवा निर्णय के बारे में सवाल पूछने और आवश्यक जानकारी लेने का अधिकार है। साधारणतया सांसदों के सवालों की सूची बहुत लंबी होती है और हर सवाल की जांच बारीकी से की जाती है। इस जांच के बाद इन्हें संबंधित मंत्रालय में जवाब के लिए भेजा जाता है। जवाब आ जाने पर एक बार फिर सवाल की जांच की जाती है ताकि राष्ट्रीय महत्त्व की कोई संवेदनशील जानकारी सार्वजनिक न हो जाए। इस जांच के बाद सवाल को संबंधित मंत्री को भेजा जाता है जिसके आधार पर मंत्री तय करता है कि उसका जवाब क्या हो। इस तरह से स्वीकृत सवालों की सूची बनती है जिसकी सूचना सांसदों को दे दी जाती है। लेकिन अब यह एक रूटीन बन गई है कि स्वीकृत हो जाने के बाद भी सवालों को अचानक अस्वीकार कर दिया जाता है। तुर्रा यह कि खुद सत्तासीन दल के सांसदों के उन स्वीकृत सवालों का जवाब देने से मना कर दिया जाता है जो सरकार की परेशानी का सबब बन सकते हैं। भाजपा सांसद सुब्रहमण्यन स्वामी भी सरकार की इस नीति का शिकार हो चुके हैं। पिछले साल 2 दिसंबर की सुबह उन्हें सूचित किया गया कि उनके सवाल का जवाब नहीं दिया जा सकेगा।

 उनका सवाल था कि क्या चीनी सेनाओं ने नियंत्रण रेखा का उल्लंघन किया है। सरकार ने इस सवाल का जवाब देने से मना कर दिया। इसी तरह कुछ विपक्षी सांसदों के सवालों को, जिनका जवाब आज ही दिया जाना था, अस्वीकृत कर दिया गया है। सरकार के इस रवैये पर टिप्पणी करते हुए शशि थरूर ने पहले भी ट्वीट किया था कि सरकार क्या सोचती है कि संसद किसलिए है? यह चुने हुए जनप्रतिनिधियों की संस्था है जहां राष्ट्रीय महत्त्व के विषयों पर विमर्श होता है। कभी सरकार चीन से संबंधित सवालों पर और कभी किसानों से संबंधित सवालों पर जवाब देने से इन्कार कर देती है। यदि आप सवालों के जवाब नहीं दे सकते तो फिर संसद है ही किसलिए? लोकतंत्र का तो मतलब ही यही है कि शासन-प्रशासन में जनता की भागीदारी हो और सरकार का काम पारदर्शी हो। जनता को सच जानने का अधिकार है और वर्तमान सरकार इसके दमन के लिए हर ओर से आक्रमण कर रही है। यह एक ऐसी परंपरा है जिसका खामियाज़ा देश दशकों तक भुगतता रहेगा। अब समय आ गया है कि हम राष्ट्रवाद के नाम पर जनता को उसके मूल अधिकार से वंचित रखने की परंपरा का विरोध करें, पुरजोर विरोध करें और लोकतंत्र में लोक के महत्त्व को फिर से स्थापित करें।

पी. के. खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार

ईमेलःindiatotal.features@gmail.com