भू-जल का बढ़ता महत्त्व

जलवायु परिवर्तन के दौर में पूरी दुनिया में जल आपूर्ति अपने आप में एक चुनौती के रूप में उभरती दिख रही है। पृथ्वी का 71 प्रतिशत हिस्सा पानी से ढका हुआ है। कुल उपलब्ध जल का 97 फीसदी भाग सागरों में है, जो खारा है, इसलिए पीने या सिंचाई के काम नहीं आ सकता है। केवल तीन प्रतिशत ही प्रयोग के योग्य है, जिसमें 2.4 प्रतिशत ग्लेशियरों में है। केवल 0.6 प्रतिशत जल ही नदियों, झीलों आदि में है। पृथ्वी पर कुल 32 करोड़ 60 लाख खरब गैलन पानी है। यह मात्रा घटती-बढ़ती नहीं है। सागरों से पानी भाप बन कर बादलों के रूप में बरसता है। इसमें से कुछ ही ग्लेशियरों और बर्फ, नदी जल, भूजल के रूप में धरती पर रुक जाता है, बाकी बह कर फिर समुद्र में चला जाता है। जो पानी धरती पर रुक गया वही हमारे उपयोग के योग्य बचता है। जलवायु परिवर्तन से जमीन पर गर्मी बढ़ रही है और इससे ग्लेशियर और बर्फ के रूप में रुकने वाला जल ग्लेशियर और बर्फ के पिघलने की गति बढऩे के कारण घटता जा रहा है। अति वृष्टि और अनावृष्टि का चक्र चल पड़ा है। वर्षा वाले दिन कम हो रहे हैं और वर्षा की बौछार बढ़ती जा रही है।

कई कई दिन होने वाली बारीक बारिश की फुहार गए जमाने की बात हो गई है, जिससे भूजल पुनर्भरण ज्यादा होता था। ग्लेशियर पिघलने की दर तेज होने से आकलन के मुताबिक 2050 तक हिमालय के ग्लेशियर लगभग समाप्त हो जाएंगे, जिससे नदी जल की वर्ष भर की सतत आपूर्ति बाधित हो जाएगी। इससे भूजल पर निर्भरता बढ़ती जाएगी। इस समय भी देश में 61.6 फीसदी भूमि सिंचाई के लिए भूजल पर निर्भर है। केवल 24.5 फीसदी ही नहरों से सिंचित है। शेष अन्य पारंपरिक साधनों से सिंचाई होती है। कुल निकाले गए भूजल का 89 फीसदी सिंचाई के लिए, 2 फीसदी उद्योगों के लिए और 9 फीसदी घरेलू उपयोग के लिए प्रयोग हो रहा है। भूजल के अत्यधिक दोहन से भूजल स्तर लगातार नीचे जा रहा है, जिस कारण भूजल दोहन के लिए ऊर्जा का खर्च बढ़ता ही जा रहा है और देश के लगभग एक-तिहाई जिलों में स्थायी भूजल भंडार भी समाप्त हो गए हैं। हमें उतना ही भूजल निकालना चाहिए जितना हर वर्ष पुनर्भरण से इकठ्ठा होता है।

यदि उससे ज्यादा दोहन करेंगे तो स्थायी भूजल भंडार खत्म होते जाएंगे। इस आसन्न संकट को देख कर ही हमें भूजल विकास कार्यक्रम बनाने चाहिए और उनका अनुश्रवण करना चाहिए। भूजल के मामले में एक तो हमारे पास वर्तमान तकनीकों से मेल खाने वाले कानूनों का भी अभाव था, दूसरे व्यवस्थित अनुश्रवण व्यवस्था भी नहीं थी। 2005 के कानून ने इस कमी को कुछ हद तक पूरा किया है। उससे पहले 1882 का एक कानून था जिसके अनुसार कोई भी अपनी जमीन के नीचे से भूजल दोहन कर सकता था। जाहिर है कि उस समय ऊर्जा चालित गहरे कुएं बनाने की तो कोई सुविधा ही उपलब्ध नहीं थी। लोग रेहट, कुओं आदि से भूजल दोहन करते थे जिससे भूजल स्तर पर कोई प्रभाव पडऩे की संभावना ही नहीं रहती थी। आज जब एक डेढ़ हजार फुट नीचे तक से भूजल का निकास संभव हो गया है तो सोचना जरूरी है। भूजल भंडार कोई निजी जमीन तक सीमित रहने वाली संरचना नहीं है। भूगर्भ विज्ञान के विकास के साथ हमें पता चल गया है कि भूजल भंडार तो मीलों तक आपस में जुड़े हो सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि भूजल को निजी भूमि से जुड़े व्यक्तिगत अधिकार के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती है। भूजल एक सामुदायिक संसाधन है। इसलिए सामुदायिक हितों के दृष्टिगत ही इसका प्रबंधन होना चाहिए।

वर्तमान कानून में इस दिशा में रास्ता बना है किन्तु मौके पर कानून के प्रावधानों को लागू करने की लचर व्यवस्थाओं से काम चलने वाला नहीं है। 2005 के कानून के अंतर्गत भूजल प्राधिकरण को भूजल नियंत्रण और विनियमन की पर्याप्त शक्तियां मिली हैं। उनका सम्यक उपयोग किया जाना चाहिए। हिमाचल के सन्दर्भ में एक नजर डालने का प्रयास करते हैं। हिमाचल में दोहन योग्य भूजल 0.97 बिलियन घन मीटर वार्षिक है, जिसमें से 0.36 बिलियन घन मीटर ही निकाला जा रहा है। 2019 तक प्रदेश में 39085 हैंड पंप जलशक्ति विभाग द्वारा लगाए गए हैं और 8000 सिंचाई कुएं लगे हैं किन्तु यह आंकड़ा विश्वसनीय बिल्कुल भी नहीं है, क्योंकि बिना मंजूरी और पंजीकरण के कितने हैंडपंप और सिंचाई कुएं लगे हैं, इसकी कोई जानकारी किसी के पास नहीं है। विभाग ने कई बार पंजीकरण के आदेश भी दिए हैं। उनका क्या असर हुआ, कोई नहीं जानता। नियमों का उल्लंघन करके ट्यूबवेल लगाने के लिए 5 साल जेल और 10 लाख तक जुर्माने का प्रावधान 2005 के कानून में था, जिसे संशोधित करके जेल की सजा को हटा दिया गया है। यह अच्छा कदम है, किन्तु जुर्माने के साथ अवैध लगाये गए भूजल दोहन संयंत्रों को बंद करवाने का प्रावधान होना चाहिए ताकि डर रहे और मौके पर वास्तविक जानकारी के लिए पूरे प्रदेश में फैले जल शक्ति विभाग के फिटर से लेकर सहायक अभियंता तक के स्टाफ को जिम्मेदारी दी जानी चाहिए ताकि वस्तुस्थिति की जानकारी हो और वैज्ञानिक आकलन के अनुरूप व्यवस्था बनाई जा सके। गैर पंजीकृत ठेकेदारों के काम करने की भी चर्चा है। 2019 में नए बोर करने पर अगले आदेशों तक प्रतिबन्ध लगा था किन्तु इसके बावजूद बोर लगाने का काम ऐसे ही लोगों द्वारा चलता रहा।

इससे लगता है कि विभाग और सरकारें भूजल को गंभीरता से नहीं ले रही हैं। न ही वैज्ञानिक सर्वेक्षण को विधिवत अपनाया जा रहा है, जोकि इस बात से साबित होता है कि भटियात तहसील में लगे 50 फीसदी से ज्यादा हैंडपंप सूखे पड़े हैं। अन्य जगहों में भी इस तरह की स्थितियां देखने में आती हैं। अति दोहन से कई जगह प्राकृतिक जलस्रोत सूखने के भी मामले सामने आये हैं जिनका सर्वेक्षण किया जाना चाहिए, ताकि इसका गलत असर छोटे नदी-नालों के जल स्तर पर न पड़े। इससे हमारी सतही जल पर निर्भर पेयजल योजनाओं पर भी बुरा असर पड़ेगा। यह भी समझ से परे है कि 2017 के आकलन के अनुसार कांगड़ा का इंदौरा, सिरमौर का काला अंब, सोलन का नालागढ़ और ऊना क्षेत्र में भूजल दोहन स्तर पुनर्भरण क्षमता से ज्यादा था या अति दोहन की श्रेणी में था, किन्तु 2020 के बाद के आकलन में इन क्षेत्रों को भी सुरक्षित घोषित किया गया है, जबकि उसके बाद दोहन का स्तर तो बढ़ता ही गया है। आशा की जानी चाहिए कि सरकार इस दिशा में गंभीर पहल करेगी। यह विषय चिंतन की मांग करता है।

कुलभूषण उपमन्यु

पर्यावरणविद