अध्यात्म की सीढिय़ां

निश्चल बैठ कर सांसों पर नियंत्रण और साथ में मौन, मानो सोने पर सुहागा है। मौन रहने का अभ्यास हमें अंतर्मन की यात्रा में ले चलता है, हम बाहरी जगत की ओर से ध्यान हटाकर अपने ही भीतर जाने लगते हैं। पूजा, भजन, कीर्तन आदि क्रियाएं अच्छी हैं, पर ये शुरुआती साधन हैं। आध्यात्मिकता में आगे बढऩे के लिए माइंडफुलनेस, गहरी लंबी सांसें और मौन बहुत लाभदायक हैं। अध्यात्म की अगली सीढ़ी है निश्छल प्रेम, हर किसी से प्रेम, बिना कारण, बिना आशा के हर किसी से प्रेम। मानवों से ही नहीं, पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों से भी प्रेम, जीवित लोगों से ही नहीं, जीवन रहित मानी जाने वाली चीजों से भी प्रेम। एक बार जब हम प्रेममय हो गए तो आध्यात्मिकता की गहराइयों में चले जाते हैं…

सनातन धर्म हमारे जीवन को चार भागों में बांटता है। पहला भाग है ब्रह्मचर्य और शिक्षित होने का, जीवन के दूसरे भाग में हम गृहस्थ जीवन को अपनाते हैं और धन उपार्जन करते हैं, जीवन के तीसरे मोड़ पर हम गृहस्थ में रहते हुए, धन उपार्जन करते हुए, दुनियादारी से संबंधित अपनी सभी जिम्मेदारियां निभाते हुए भी उन कर्मों में संलिप्त नहीं होते, और गीता में दिए गए भगवान कृष्ण के उपदेश के अनुसार निष्काम कर्म करते हुए समाज की भलाई का प्रयत्न करते हैं। वानप्रस्थी होने का यही मतलब है। उसके लिए वन में जाने की आवश्यकता नहीं है, यह जीवन की तीसरी अवस्था है। चौथी अवस्था संन्यास की है। संन्यास को लेकर हमारे समाज में बहुत सी गलतफहमियां हैं। हम संन्यास का एक ही मतलब समझते हैं कि आदमी ने घर छोड़ दिया, परिवार छोड़ दिया, दुनिया छोड़ दी और जंगल में चले गए, हिमालय पर चले गए और तपस्या करने लग गए। हां, यह संन्यास है, पर संन्यास का और भी एक रूप है, और हम संन्यास के उसी रूप की बात करेंगे। प्राचीन काल के हमारे ऋषि-मुनि विवाहित थे, बाल-बच्चों वाले थे। महर्षि गौतम की धर्मपत्नी अहिल्या की कहानी कौन नहीं जानता? महर्षि वशिष्ठ की धर्मपत्नी अरुंधती थीं, महर्षि अगस्त्य की धर्मपत्नी लोपामुद्रा थीं। प्राचीन काल के गुरुकुलों में आने वाले विद्यार्थियों को शिक्षा तो किसी ऋषि से मिलती थी, लेकिन उन विद्यार्थी बालकों के खानपान आदि का ध्यान ऋषि की धर्मपत्नी, यानी गुरुमाता रखती थीं। ऐसे अनेकों-अनके उदाहरण हमारे सामने हैं। हिमालय पर जाकर, एकाकी जीवन जीते हुए कोई व्यक्ति निर्वाण तो पा सकता है, पर समाज का भला करने के लिए तो समाज के बीच रहकर ही काम करना होगा।

दुनियादारी की अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए यूं मानना है कि सारी दुनिया एक फिल्म है, इसमें अलग-अलग किरदार हैं, जो अपना-अपना रोल निभा रहे हैं, हम भी उनमें से एक हैं। हमने लालच छोड़ा, झूठ छोड़ा, बेईमानी छोड़ी, कपट छोड़ा, निंदा छोड़ी, घृणा छोड़ी, भेदभाव छोड़ा, तो हम संन्यासी ही हैं। इसके अलावा हम जो भी करें वो पूरी तन्मयता से करें, पूरे फोकस से करें, पूरी अवेयरनेस से करें। इसे मांइडफुलनेस कहा जाता है, यानी, हम जो भी काम कर रहे हैं हमारा पूरा ध्यान सिर्फ उसी तरफ हो, उसके अलावा कोई और डिस्ट्रैक्शन न हो। उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि हम भोजन कर रहे हैं और भोजन में चपाती के साथ मटर-मशरूम की सब्जी है। अब जब हमने एक कौर लिया तो मटर भी, मशरूम भी और ग्रेवी भी ली और उसके स्वाद का पूरा आनंद लिया। फिर अगले कौर में हमने सिर्फ मटर और ग्रेवी ली, उसके स्वाद में जो फर्क आया, उसका आनंद लिया। अगले कौर में सिर्फ मशरूम और ग्रेवी का स्वाद लिया, और उसके बाद सिर्फ ग्रेवी के स्वाद की अनुभूति की। यह है मांइडफुलनेस, कि हम भोजन करते हुए भोजन के एक-एक कंपोनेंट का पूरा आनंद ले रहे हैं। हम जो भोजन कर रहे हैं उसे अच्छी तरह से चबा रहे हैं ताकि हमारे मुंह की लार उसमें पूरी तरह से मिल जाए और भोजन ही दवा का काम करे। मान लीजिए कि हम कोई मनपसंद गाना सुन रहे हैं तो गाने का आनंद लेने के साथ-साथ यह भी देखें कि गाने की कौनसी ऐसी खूबी है जो हमें सबसे ज्यादा आकर्षित कर रही है। क्या यह गायक की आवाज है, संगीत है, गाने के बोल हैं या कुछ और? गीत में समाये संगीत पर फोकस करेंगे तो हम अनुभव कर सकेंगे कि कौन-कौन से साज बज रहे हैं, कब बांसुरी बज रही है, कब शहनाई मुखर हो उठी है, कब तबला अपना रंग दिखा रहा है, आदि-आदि। हम इस तरह से एक-एक चीज पर फोकस करेंगे तो हम उस गीत का और भी ज्यादा आनंद ले पाएंगे। ऐसे ही हम जो भी काम करें, हमारा ध्यान पूरी तरह से सिर्फ उसी काम की तरफ हो। यह माइंडफुलनेस ही तपस्या है, यह माइंडफुलनेस ही भक्ति है, यह माइंडफुलनेस ही अध्यात्म है, कि हम प्रकृति की दी हर सौगात का पूरा आदर कर रहे हैं। प्रकृति की हर सौगात परमात्मा की देन है और उनका आदर भी भक्ति ही है।

अध्यात्म की अगली सीढ़ी सांसों की अनुभूति है। सांस लेते हुए हमें कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। सांस अपने आप चलती रहती है। सांस लेने और छोडऩे की क्रिया में अगर माइंडफुलनेस नहीं है, अवेयरनेस नहीं है तो यह एक तरह से बेहोशी की हालत है। सांसों को अध्यात्म से जोडऩे का पहला चरण है, सांसों पर ध्यान देना। कुछ करना नहीं, बस सांसों पर ध्यान देना। हर आती-जाती सांस पर फोकस करना। कोई विचार मन में आए तो उसे रोकना नहीं, उसे रोकने की कोशिश नहीं करनी, पर किसी विचार की तरफ ध्यान भी नहीं बंटाना, बस सांस पर फोकस करना। निश्चल होकर, बिना कोई और काम किए, सिर्फ सांसों पर फोकस करना, यह पहला चरण है। अगले चरण में सांसों पर सक्रिय ध्यान दिया जाता है। नासिका से लंबी गहरी सांस ली जाती है, उसे जितना संभव हो रोके रखते हैं और फिर मुंह से सांस छोड़ते हैं। इस प्रकार हम जितनी ज्यादा हवा बाहर निकाल सकें उतना ही अच्छा। सांस जितनी बाहर जाएगी, हमारे शरीर में खालीपन की उतनी ही क्षमता बढ़ेगी, स्पेस बढ़ेगी और हम अगला सांस ज्यादा गहरा ले सकेंगे, तो उतनी ही ज्यादा ऑक्सीजन शरीर में जाएगी। आम तौर पर हम एक मिनट में 16 से 18 बार सांस लेते हैं। लेकिन गहरी सांस लेने के दो लाभ हैं, पहला तो यही कि इससे हमें ज्यादा ऑक्सीजन मिलती है जो हमारे लिए स्वास्थ्यकर है और दूसरा यह कि गहरी सांस लेने से हमारी सांस लेने की गति घट जाती है, यानी हम एक मिनट में 16 से 18 बार सांस लेने के बजाय हम कम बार सांस लेते हैं जो हमें स्वस्थ तो बनाता ही है, आयु भी लंबी करता है, इसके साथ ही यह आध्यात्मिकता की सीढ़ी पर भी एक पायदान और ऊपर ले जाता है, क्योंकि सांसों पर नियंत्रण करके जब हम सांस धीमी करना सीख लेते हैं तो हम बात-बेबात क्रोध करना छोड़ देते हैं। सांसों की ही तरह मौन रहने का अभ्यास भी अध्यात्म का एक बड़ा सबक है।

निश्चल बैठ कर सांसों पर नियंत्रण और साथ में मौन, मानो सोने पर सुहागा है। मौन रहने का अभ्यास हमें अंतर्मन की यात्रा में ले चलता है, हम बाहरी जगत की ओर से ध्यान हटाकर अपने ही भीतर जाने लगते हैं। पूजा, भजन, कीर्तन आदि क्रियाएं अच्छी हैं, पर ये शुरुआती साधन हैं। आध्यात्मिकता में आगे बढऩे के लिए माइंडफुलनेस, गहरी लंबी सांसें और मौन बहुत लाभदायक हैं। अध्यात्म की अगली सीढ़ी है निश्छल प्रेम, हर किसी से प्रेम, बिना कारण, बिना आशा के हर किसी से प्रेम। मानवों से ही नहीं, पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों से भी प्रेम, जीवित लोगों से ही नहीं, जीवन रहित मानी जाने वाली चीजों से भी प्रेम। एक बार जब हम प्रेममय हो गए तो आध्यात्मिकता की गहराइयों में, या यूं कहिए कि ऊंचाइयों में जाने के काबिल हो जाते हैं। यह अध्यात्म की सबसे ऊंची पायदान है, और इसके बाद कल्याण ही कल्याण है, निर्वाण है, मोक्ष है, मुक्ति है।

पीके खु्रराना

हैपीनेस गुरु, गिन्नीज विश्व रिकार्ड विजेता

ई-मेल: indiatotal.features@gmail.com