हिमालय में जलवायु परिवर्तन व पर्यावरणमित्र विकास

राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय विकास को टिकाऊ विकास का रूप देने की ओर अपना संकल्प व्यक्त करना चाहिए…

लोकसभा के चुनाव सिर पर हैं। राजनीतिक दल अपनी-अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार मतदाताओं से वादे कर रहे हैं, किंतु ज्यादातर वादे लोकलुभावन किस्म के ही होते हैं जिनमें दीर्घकालीन जनहित का अभाव देखने को मिलता है। जलवायु परिवर्तन के इस दौर में विशेषकर हिमालय और आम तौर पर पूरा देश ही संकटग्रस्त होने की स्थिति में आ गया है। बाढ़, सूखा, असमय बारिश, बर्फ बारी का कम होते जाना, ग्लेशियरों का तेज गति से पिघलना जैसे लक्षण तेज गति से फैलते जा रहे हैं। परिणामस्वरूप कई किस्म की प्राकृतिक आपदाओं से सामना करना पड़ रहा है। बाढ़-सूखा के अतिरिक्त हिमालय में भूस्खलनों से जनधन की भारी तबाही हो रही है। गत बरसात में हिमाचल, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर भारी तबाही के शिकार हुए हैं। ढांचागत विकास कार्यों में हिमालय की नाजुक पारिस्थिकी के अनुरूप वैकल्पिक विकास नीति और मॉडल के अभाव में प्राकृतिक प्रकोप की घटनाएं बढ़ भी रही हैं और उनसे होने वाली हानि की मात्रा भी बढ़ रही है। ये जो जलवायु परिवर्तन से होने वाली हानियां हैं, ये खुद बीमारी नहीं बल्कि बीमारी के लक्षण हैं।

असल बीमारी तो जलवायु परिवर्तन को प्रेरित करने और बढ़ाने वाले काम हैं, जिनमें मुख्य रूप से ऊर्जा के लिए बढ़ती मांग और ऊर्जा उत्पादन के ‘हरित प्रभाव’ गैसों का उत्सर्जन करने वाले तरीके हैं। बहुत से औद्योगिक अपशिष्ट भी इस समस्या को बढ़ाने का काम करते हैं। हमारे देश में इस समय कुल बिजली उत्पादन क्षमता 428 गीगावाट है, जिसमें से 71 फीसदी बिजली ताप बिजलीघरों द्वारा बनाई जा रही है, जिनमें टरबाइन चलाने के लिए भाप बनाने के लिए पत्थर के कोयले का प्रयोग किया जाता है। कुछ संयंत्र डीजल और प्राकृतिक गैस से भी चलते हैं। इनसे बहुत हानिकारक ‘हरित प्रभाव’ पैदा करने वाली गैसों का उत्सर्जन होता है, जिससे वैश्विक तापमान में वृद्धि होती है। यही तापमान में वृद्धि जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारक है। वातावरण में हरित प्रभाव पैदा करने वाली कार्बन डाईआक्साइड आदि गैसों का उत्सर्जन करने वाली सभी गतिविधियां जलवायु परिवर्तन में कारक की भूमिका निभाती हैं।

फिर चाहे जंगलों में लग रही या लगाई जा रही आग हो या गली मुहल्ले में जगह जगह जलाया जा रहा प्लास्टिक कचरा हो, हमारी पृथ्वी के जलवायु में बदलाव के गुनाहगार बन जाते हैं। लेकिन मुख्य गुनाहगार तो ताप बिजली ही है। इसलिए जरूरी है कि ताप बिजली उत्पादन की जगह नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन को बढ़ाया जाए और बिजली पर निर्भरता को कम करने के उपाय किए जाएं। बिजली पर निर्भरता कम करने के लिए हमें पारंपरिक ऊर्जा साधनों को भी उपयोग में लाना चाहिए। मानव ऊर्जा, पशु शक्ति का उपयोग भी बढ़ाया जाना चाहिए। कृषि क्षेत्र में बैलों से कृषि पर सब्सिडी दी जाए और छोटे पॉवर टिलर पर सब्सिडी कम की जाए तो बैलों से कृषि को प्रोत्साहित किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त बैल चालित कृषि उपकरणों के निर्माण से बैलों से कृषि को सुगम बनाने पर काम होना चाहिए। 2016 में पैरिस एग्रीमेंट के अंतर्गत देशों ने स्वघोषित उत्सर्जन कटौती के वादे किए थे, जिसमें भारत ने 2030 तक 50 प्रतिशत बिजली उत्पादन नवीकरणीय ऊर्जा से करने का वादा किया था। फिलहाल देश में 168.96 गीगावाट बिजली ही नवीकरणीय ऊर्जा से पैदा की जा रही है। हालांकि 2030 तक 500 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा का लक्ष्य रखा गया है, किंतु जिस गति से कार्य हो रहा है उससे लक्ष्य का पूरा होना कहां तक संभव होगा, यह समय ही बताएगा। 2010 में नवीकरणीय ऊर्जा का उत्पादन 15.42 गीगावाट था, जो अब 168.96 गीगावाट है। बढ़त की इस गति को लक्ष्य के अनुरूप बढ़ाना होगा, तभी लक्ष्य प्राप्त करने की आशा जगेगी।

औद्योगिक क्रांति के बाद इन हरित प्रभाव गैसों के उत्सर्जन के कारण होने वाले तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेंटीग्रेड से नीचे रखने का लक्ष्य विश्व वैज्ञानिक समुदाय द्वारा रखा गया है, किन्तु 1.2 डिग्री वृद्धि तो अभी तक हो चुकी है। आने वाले दस बीस वर्षों में यदि उत्सर्जन दर में कमी न की गई तो हिमालय के ग्लेशियर 2050 तक लगभग समाप्त प्राय: हो जाएंगे। यह एक और बड़ा खतरा भारतवर्ष पर होगा। तब हमारी नदियां ग्लेशियरों से आने वाले पानी से वंचित हो जाएंगी और मौसमी बन जाएंगी, जिनमें बरसात और सर्दियों की बारिशों के समय ही पानी होगा, बाकि समय पानी की कमी पड़ जाएगी। भारत में दुनियां की 17 प्रतिशत आबादी रहती है, किन्तु मीठे पानी का उपलब्ध प्रतिशत केवल 4 ही है। तो सोचिए जब ग्लेशियर खत्म हो जाएंगे तो कैसे जल आपूर्ति संभव होगी। ग्लेशियर पिघलने से अचानक बाढ़ों का खतरा भी बढ़ता जाएगा। ग्लेशियर पिघलने से टूट कर पहाड़ी तंग घाटियों में गिर कर ग्लेशियर-झीलों का निर्माण करते हैं। ये झीलें अचानक टूट कर भारी बाढ़ों का कारण बन जाती हैं। केदारनाथ त्रासदी, विष्णुगाड त्रासदी, 1992 की सतलुज की बाढ़ जो पारछू नदी के पनढल में स्थित ग्लेशियर झील के टूटने के कारण आई थीं, गंभीर चेतावनी के रूप में समझी जानी चाहिए। इस औद्योगिक गतिविधि के कारण जलवायु परिवर्तन के अलावा वायु प्रदूषण के खतरे की गंभीरता को भी समझे जाने की जरूरत है। देश के लगभग 96 प्रतिशत लोग अशुद्ध वायु में सांस लेने को अभिशप्त हैं। वे कुछ समय अपने को तरोताजा करने के लिए बचे हुए पहाड़ी क्षेत्रों में आकर कुछ समय सुकून से बिताना चाहते हैं, किन्तु वर्तमान विकास मॉडल के चलते यह भी अधिक समय तक चलने वाला नहीं है।

किन्तु खेद का विषय है कि ये मुद्दे शासक जमातों के लिए महत्व नहीं रखते। इन गंभीर मुद्दों पर राजनीतिक दल अपना पक्ष कभी नहीं रखते और हिमालय की विशेष परिस्थिति को समझकर वैकल्पिक विकास नीति की बात हमेशा चुनावी शोर में दब जाती है, जबकि यह मुद्दा केवल हिमालयी राज्यों की चिंता का नहीं है बल्कि उन सभी बेसिन राज्यों का भी है जो हिमालय के संचित पानी, उस पर बन रही बिजली और जलवायु नियंत्रण सेवा पर निर्भर करते हैं। गंगा और सिंधु के मैदानी सभी क्षेत्र इस बदलाव से बुरी तरह प्रभावित होने वाले हैं और हो भी रहे हैं। अत: चुनाव की इस वेला में सभी राजनीतिक दलों को हिमालय की परिस्थिति की रक्षा द्वारा राष्ट्रीय विकास को टिकाऊ विकास का रूप देने की ओर अपना संकल्प व्यक्त करना चाहिए। यही राजनीतिक दलों की टिकाऊ विकास की समझ रखने और इच्छा शक्ति की कसौटी भी होगी।

कुलभूषण उपमन्यु

पर्यावरणविद