गरीबी नहीं हटा सकती कोई खैरात: पी. के. खुराना, राजनीतिक रणनीतिकार

पीके खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार

सवाल यह है कि यदि लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से लाभ नहीं मिल रहा है तो क्या किया जाए? इसके लिए आवश्यक है कि गरीब और वंचित लोगों को रोजगारपरक तथा उद्यमिता की शिक्षा दी जाए। उनकी स्किल बढ़े, वे कमाने लायक बन सकें और उत्पादकता में भी योगदान दें। दलितों को आरक्षण और गरीबों को सबसिडी की बैसाखी देने के बजाय उन्हें रोजी-रोटी कमाने के लायक बनाया जाए। देश में सरकारी नौकरियों की कमी हो सकती है, नौकरियों की भी कमी हो सकती है, लेकिन रोजगार की कमी नहीं है…

धारणा के स्तर पर हमारा देश एक लोक कल्याणकारी राज्य है। धारणा के स्तर पर हम पूंजीवादी नहीं हैं। यह सही भी है क्योंकि किसी आम आदमी के लिए यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि प्रगति के सारे सोपानों के बावजूद 45 करोड़ से भी अधिक भारतीय अशिक्षित हैं, 42 करोड़ भारतीय पीने के साफ पानी से वंचित हैं, 40 करोड़ देशवासियों को सामान्य चिकित्सा उपलब्ध नहीं है और देश के 51 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। ऐसे में लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ही सही प्रतीत होती है। सन् 1956 में भारत सरकार ने एक योजना बनाई थी जिसके अनुसार अगले 25 वर्षों में भारत को गरीबी मुक्त राष्ट्र बनना था। सन् 1981 में वे 25 साल पूरे हो गए, पर सपना अब भी अधूरा है, जबकि 1981 के बाद 39 और साल गुजर चुके हैं।

 इस समय हमारी सबसे बड़ी समस्या है सर्वाधिक गरीबी का जीवन जी रहे वंचितों के लिए भोजन की व्यवस्था करना, उससे ऊपर के लोगों के जीवन के स्तर में सुधार लाने के लिए स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करना और किफायती शिक्षा की व्यवस्था करना तथा शेष समाज की आवश्यकताओं के लिए कृषि में नई तकनीकों का लाभ लेना, भूमि अधिग्रहण कानून को सभी संबंधित पक्षों के लिए लाभदायक बनाना तथा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना उद्योगों का विस्तार करना। गरीबी दूर करने के नाम पर हमारे देश में आरक्षण और सबसिडी का जो नाटक चल रहा है, उसने देश और समाज का बहुत नुकसान किया है। हमारे नेता सबसिडी के नाम पर खूब धोखाधड़ी कर रहे हैं। डीजल और पेट्रोल पर इतना टैक्स है कि यदि वह टैक्स हटा लिया जाए तो किसी सबसिडी की आवश्यकता ही न रहे। सबसिडी देने के बाद टैक्स लगाकर सरकार एक हाथ से देती है तो दूसरे से तुरंत वापस भी ले लेती है। दूसरी ओर, आज हर कोई आरक्षण के लिए लड़ रहा है और अगड़े अथवा शक्तिसंपन्न लोग भी आरक्षण पाने के लिए आंदोलन करने लगे हैं। यह विडंबना ही है कि दुनिया भर में भारत में आरक्षण का प्रतिशत सर्वोच्च है और हमारा देश एकमात्र ऐसा देश बन गया है जहां लोग पिछड़ा कहलाने के लिए आंदोलन करते हैं।

परिणामस्वरूप आज लोग मेहनत, ज्ञान और ईमानदारी की तुलना में पिछड़ेपन को उन्नति का साधन मानते हैं। सच्चाई यह है कि सबसिडी की तरह ही आरक्षण भी एक धोखा मात्र है। सरकार के पास नई नौकरियां नहीं हैं, जो हैं वे भी खत्म हो रही हैं। आरक्षण से समाज का भला होने के बजाय समाज में विरोध फैला है, दलितों और वंचितों को रोजगार के काबिल बनने की शिक्षा देने के बजाय उन्हें बैसाखियों का आदी बनाया जा रहा है। आरक्षण का लाभ केवल कुछ परिवारों तक सीमित होकर रह गया है। गरीब मजदूर का बच्चा तो गरीबी के कारण अशिक्षित रह जाता है और अशिक्षा के कारण सरकारी नौकरी में आरक्षण के लाभ से वंचित रह जाता है। वह मजदूर पैदा होता है और मजदूर रहते हुए ही जीवन बिता देता है। कुछ वर्ष पूर्व वरिष्ठ पत्रकार श्री टीएन नाइनन ने अपने एक लेख में लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से पैदा हुई इस स्थिति का विस्तार से जायजा लिया था। उस समय दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 65 रुपए प्रति लीटर थी, डीजल 41 रुपए प्रति लीटर में बिकता था, जबकि इस वर्ग में उच्चतम सबसिडी के कारण मिट्टी के तेल की कीमत 17 रुपए प्रति लीटर थी।

परिणाम यह था कि दिल्ली में बिकने वाले कुल पेट्रोल में कम से कम आधे पेट्रोल में मिट्टी के तेल की मिलावट होती थी, जो अब भी बदस्तूर जारी है। इतने बड़े स्तर पर मिलावट का यह खेल सिर्फ  इसलिए चल पाता है क्योंकि इस खेल में राजनेता, अधिकारी, पुलिस और व्यापारियों का साझा गिरोह है जो यह पूरा रैकेट चलाता है। अमीरों से पैसा छीनकर गरीबों में बांटने की अवधारणा इस हद तक विकृत हुई कि स्व. इंदिरा गांधी के जमाने में आयकर की दर 97 प्रतिशत तक जा पहुंची। सत्तानवे प्रतिशत! यानी, अगर आप मेहनत करके सौ रुपए कमाएं तो सत्तानवे रुपए सरकार छीन लेती थी और आपके पास बचते थे तीन रुपए! क्या आप नहीं समझ सकते कि टैक्स की इस अतर्कसंगत प्रथा ने ही देश में काले धन की अर्थव्यवस्था का सूत्रपात किया और आज शायद पक्ष और विपक्ष का एक भी राजनीतिज्ञ, सरकार का एक भी बड़ा अधिकारी और बड़े व्यापारियों में से एक भी ऐसा नहीं है जिसके पास काला धन न हो, नोटबंदी के नाटक के बावजूद। ऐसे में किसी एक व्यक्ति को दोष देना पेड़ की पत्तियों को दोष देने के समान है, जबकि बुराई जड़ों में है। किसानों के लिए मुफ्त बिजली, बीपीएल परिवारों के लिए सस्ता राशन, स्कूलों में मिड-डे मील, नरेगा, कितने ही उदाहरण ऐसे हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि आम आदमी के नाम पर बनने वाली योजनाओं से या तो आलस्य उपजता है या इन योजनाओं का असली लाभ अमीरों को मिलता है।

सवाल यह है कि यदि लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से लाभ नहीं मिल रहा है तो क्या किया जाए? इसके लिए आवश्यक है कि गरीब और वंचित लोगों को रोजगारपरक तथा उद्यमिता की शिक्षा दी जाए। उनकी स्किल बढ़े, वे कमाने लायक बन सकें और उत्पादकता में भी योगदान दें। दलितों को आरक्षण और गरीबों को सबसिडी की बैसाखी देने के बजाय उन्हें रोजी-रोटी कमाने के लायक बनाया जाए। देश में सरकारी नौकरियों की कमी हो सकती है, नौकरियों की भी कमी हो सकती है, लेकिन रोजगार की कमी नहीं है। मुंबई के डिब्बेवाले एक आदर्श उदाहरण हैं। दूसरा उदाहरण सोशल इन्नोवेशन का है। आम आदमी, सामाजिक संगठन और कारपोरेट घराने ऐसा कर सकते हैं। हिंदुस्तान लीवर ने आंध्र प्रदेश में विधवा महिलाओं को घर-घर जाकर अपने उत्पाद बेचने की ट्रेनिंग दी जिससे कंपनी की बिक्री बढ़ी और जरूरतमंद विधवाओं को सम्मानप्रद रोजगार मिला। कई एनजीओ और सहकारी संस्थाएं भी सम्मानप्रद रोजगार की इस मुहिम में शामिल हैं। लिज्जत पापड़, अमूल डेयरी आदि इसके बढि़या उदाहरण हैं। बीपीएल परिवारों को रोटी या पैसा देने मात्र से यह समस्या नहीं सुलझेगी।

इसके लिए इन्क्लूसिव डिवेलपमेंट यानी ऐसे विकास की आवश्यकता है जिसमें उन लोगों की हिस्सेदारी हो जिन्हें वाजिब लागत पर भोजन नहीं मिलता, सार्वजनिक परिवहन नहीं मिलता, अस्पताल की सुविधा नहीं मिलती या जिनके पास घर नहीं हैं। ऐसे उत्पाद बनाए जाने चाहिएं जो आम लोग खरीद सकें। इसके साथ ही गरीबों की क्रय शक्ति बढ़ाने के ठोस उपाय भी किए जाएं। रोजगार के बेहतर अवसर उपलब्ध करवाने के अलावा उत्पादन और वितरण का ऐसा मॉडल तैयार करना होगा जिसमें लोगों की आमदनी बढ़े और सामान भी सस्ते हों। यह सोशल इन्नोवेशन से संभव है और यह गरीबी दूर करने का शायद सबसे बढि़या उपाय है। इस विचार को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है।

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