कांग्रेसी रगड़ की चिंगारियां

By: Jan 19th, 2017 12:02 am

हिमाचली राजनीति के जिस छोर पर कांग्रेस खड़ी है, वहां नायक और नेतृत्व में वजन तोला जा रहा है। हालांकि यह पहला अवसर नहीं है कि अपने ही रक्त में कांग्रेसी पहचान के कतरों को विभाजित करके देखा गया हो, इससे पूर्व भी सत्ता के सामने पार्टी का फीकापन जाहिर हुआ। सत्ता की किलेबंदी से भिन्न पार्टी की अपनी दीवारें व झरोखे हैं, जो भविष्य की संभावना में आतुर व व्याकुल माने जा सकते हैं। एक ओर मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह चुनावी साल के अंतिम शीतकालीन प्रवास पर राजनीतिक ताकत के जश्न पर हैं, तो दूसरी ओर दूरियों के घमासान ने महत्त्वाकांक्षा की रगड़ में चिंगारियां भर दी हैं। प्रगति के जिस पथ पर मुख्यमंत्री निकले हैं, वहां फसाद अपनी पार्टी को लेकर भी सार्वजनिक हो रहा है। उद्घाटनों-शिलान्यासों के महाकुंभ में अंततः डूब कौन रहा है, यह समझना कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती है। यह इसलिए क्योंकि इशारों की बातें अब जुबानी जंग में बदल चुकी हैं, तो अगले मुकाम की फितरत में शहादत तय है। मुख्यमंत्री के खिलाफ कितनी पार्टी या किसकी पार्टी खड़ी है, इसका अंदाजा कठिन  नहीं है और न ही घटनाक्रम के बीच खड़ी होती दीवारों को गिनना। आश्चर्य यह कि कौन किसकी समीक्षा कर रहा है। राजनीति में मेहनत का जिक्र करते हुए मुख्यमंत्री अपने किरदार की समीक्षा कर सकते हैं या नहीं, इससे कहीं हटकर भी समीक्षा अगर हो रही है तो यह जनता के विश्वास को घायल करने सरीखा है। यानी जब शीतकालीन प्रवास की पूरी समीक्षा होगी, तो न जाने कितने बुत बोलेंगे और मंच खामोश हो जाएंगे। शीतकालीन प्रवास के दौरान समीक्षा तो आंतरिक लोकतंत्र की अवश्य होगी और जहां कांग्रेस सिर्फ एक कहानी के मानिंद खुद को अभिव्यक्त करते हुए दिखाई दे रही है। एक कहानी राहुल रैली के दौरान कांग्रेस की शब्दावली बताने लगी, तो दूसरी सत्ता बनाम पार्टी के रिसाव में उद्धृत हो रही है। कांग्रेस का अपना चरित्र किस कहानी में नायक ढूंढेगा या किस मंच पर इसका यथार्थ टिकेगा, क्योंकि बर्र का छत्ता एक दिन में पैदा नहीं होता और यह भी मालूम नहीं कि इसके भीतर काटने वाले कितने और कटने वाले कितने मौजूद हैं। यूं तो  यह रोग केवल कांग्रेस का नहीं, समूची सियासी बिरादरी का है और भाजपा भी अछूत नहीं। रंग जमाने की फितरत में सियासत का नायक अब केवल अभिनेता है, इसलिए भाजपा का किरदार भी निभाया जा रहा है और चुनावी फासलों की पैमाइश में भेड़ों और शेरों की पोशाक में फर्क करना वहां भी मुश्किल है। हालांकि  यह राजनीतिक श्लोक कांग्रेस ने उछाल कर मतदाता को विचलित कर दिया और यह हमेशा होता रहा है कि जिसे चुना वह बाद में दूसरे रंग में दिखा। ऐसे में कांग्रेस का सही रंग क्या शीतकालीन प्रवास दिखा पाया या पार्टी की दीवारों पर हो रहा रंग-रोगन अपनी ही सरकार की चमक को फीका कर देगा। युद्ध के प्रदर्शन का आंखों देखा हाल अगर सोशल मीडिया प्रस्तुत कर रहा है, तो नेताओं की पृष्ठभूमि में कालिख देखने का मंजर अति निर्लज्ज है। मंचों के आगे बैठकर ताली बजाने वाली जनता अगर सोशल मीडिया को देखना शुरू कर दे, तो लहूलुहान होते नेताओं के चरित्र पर शायद बुर्कानशी हो जाए। ऐसे में शीतकालीन प्रवास में कांग्रेस की व्यथा को समझना होगा कि क्यों हर नेता अपने गले में रिपोर्ट कार्ड लटका कर खड़ा है। सरकार के हर छोर पर पार्टी की साझी धरती आखिर क्यों कांप रही है और इसके कारण अंततः वजूद किसका हिलेगा। क्या मिशन रिपीट के नायक के रूप में मुख्यमंत्री के खिलाफ कोई जत्था तैयार हो रहा है या कांग्रेस के भीतर वीरभद्र सिंह की हैसियत से एक वर्ग आहत है। ऐसे में क्या कांग्रेस पुनः उन्हीं परिस्थितियों में खड़ा होना चाहेगी, जहां पिछले चुनाव में थी या मुख्यमंत्री के किरदार में अलग महत्त्वाकांक्षा का किरदार शिरकत करेगा। यह दीगर है कि सातवीं बार खुद को सत्ता के लिए तैयार कर रहे वीरभद्र सिंह ने अपनी शैली व आक्रामकता को बरकरार रखा है, फिर भी ऐसी बाधाओं के बीच कांग्रेस की एक पीढ़ी अपना नूर दिखाना चाहती है। कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष ऐसी ताकतों के प्रतीक हो सकते हैं, लेकिन वीरभद्र सिंह के खिलाफ पार्टी को अपना किरदार साबित करना होगा।


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