संपादकीय

धर्मपुर बस डिपो की चलती बस के टायर ही नहीं खुले, बल्कि पथ परिवहन निगम प्रबंधन की ढीली चूलें भी सामने आ गई हैं। लापरवाही का नजराना किसे मिला, यात्रियों को जो-बाल-बाल बच गए या चालक को- जो सारी नालायकी का जिम्मेदार बना दिया गया। अब अपनी जांच के ढीले पुर्जों को दुरुस्त करने की दृष्टि से एचआरटीसी प्रबंधन ने धर्मपुर बस डिपो के मुख्य व कार्यकारी मुख्य मैकेनिक निलंबित कर दिए, तो चालक संघ ने आंदोलन का शंखनाद करते हुए यह मांग कर डाली कि जांच के फंदे में आरएम और डीएम को भी निलंबन की सूची में डालें। आश्चर्य यह कि जिस बस को जोगिंद्रनगर से अमृतसर जाना था, उसकी चालन क्षम

राजनीतिक परिस्थितियां हमेशा हर मुख्यमंत्री को कांगड़ा की चुनौतियों के समक्ष खड़ा कर देती हैं और प्रदेश के मौजूदा मुखिया भी इस दौर से गुजर रहे हैं। कांगड़ा की दीवार-कांगड़ा के दीदार और जुल्म की राह पर रार कल थी और आज भी है। कांगड़ा यूं तो सत्ता का एतबार है और राजनीतिक मशक्कत की सफलता का त्योहार है, लेकिन सरकारें बनते ही यह असंतुलित हो रहा है। खासतौर पर मुख्यमंत्री पद की दौड़ में यह जिला लाचार, बीमार और शिकार ही साबित हुआ। वाईएस परमार के दौर में पंडित सालिग राम को परास्त करने वाले हों या वीरभद्र सिंह के दौर में मेजर विजय सिंह मनकोटिया के पथ को नष्ट करने वाले नेताओं का कांगड़ी

कांग्रेस में छोटे-छोटे टाइम बम होते है। वे जब भी फटते हैं, तो कांग्रेस का बड़ा नुकसान होता है। अमरीका में बसे सत्य नारायण गंगा राम पित्रोदा (सैम पित्रोदा) ऐसे ही बम हैं। वह कई संवेदनशील और राष्ट्रीय घटनाओं पर अनाप-शनाप बोलते रहे हैं। वह ‘इंडियन ओवरसीज कांग्रेस’ के अध्यक्ष हैं। जब भी केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व की सरकार बनी है, उसमें उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया है। मनमो

यह लोकसभा का चुनाव है, न कि किसी धार्मिक संस्थान के लिए चुनाव कराया जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी को सांप्रदायिक बयान देने को बाध्य होना पड़ा, उसकी उलट प्रतिक्रिया में करीब 2000 शिकायतें चुनाव आयोग को भेजी गई हैं। कांग्रेस ने जो 17 शिकायतें की हैं, वे इनसे भिन्न हैं। प्रधानमंत्री मोदी के बयान पर आयोग क्या निर्णय लेता है, उससे उसकी निष्पक्षता और विश्वसनीयता जुड़ी है। 2019 के आम चुनाव के दौरान भी प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ 6 शिकायतें दर्ज की गई थीं, लेकिन चुनाव आयोग ने उन्हें ‘क्लीन चिट’ दे दी। इस पर चुनाव आयोग की तीखी आलोचना की गई थी। हालांकि मतदान और मतदाता से जुड़े ‘भारतीय जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951’ में ऐसी धाराएं भी हैं, जिनके तहत ऐसी शिकायतों पर दंडनीय कार्रवाई की जा सकती

हिमाचली नजरिए के सूत्रधार हर चुनाव को पुकारते हैं, लेकिन बहुत कम ऐसे चेहरे हैं जिन्हें मुकम्मल जहां मिलता है। विधायक प्राथमिकताओं के अक्स में हमारे प्रतिनिधि उन्हीं घिसे-पिटे मंतव्यों के पीछे भागते हुए नजर आते हैं। वर्षों बाद भी हम पर्यटन की वकालत में सिर ढूंढते हैं, लेकिन यह नहीं सोच पाए कि इस क्षेत्र में अति अव्वल होने की प्राथमिकता क्या है। इसी तरह उद्योगों की धूल में बीबीएन को ढांप दिया, लेकिन हिमाचली युवा की क्षमता में धंधे शुरू नहीं कर पाए। स्वरोजगार या उद्यमशीलता के न पा

हिमाचल में लोकसभा एवं छह उपचुनावों ने चंद चेहरों से फिरौती मांग ली है। सलवटें माथे पे आईं तो करवटें बदल गईं, महफिल को लूटने का मजा कुछ अजीब था। टिकटों के आबंटन में फंसी पार्टियों की उधेड़बुन अंतत: विधायकों की जेब में सियासत तलाश रही है और इस बस्ती में शोर है- देखो-देखो वह

प्रधानमंत्री मोदी ने ‘हिंदू-मुसलमान’ बयान देकर लोकसभा चुनाव को आक्रामक बना दिया है। हिंदू माताओं, बहनों के ‘पवित्र मंगलसूत्र’ और सोना-चांदी के जवाहरात को लेकर प्रधानमंत्री ने कांग्रेस की जो घेराबंदी की है, उससे चुनाव के आगामी चरणों की दशा-दिशा तक बदल सकती है। ध्रुवीकरण ऐसा देखा-महसूसा जा सकता है कि चुनाव दोफाड़ हो जाएं! सवाल है कि प्रथम चरण के कम मतदा

इतिहास में झांकें, तो कांग्रेस और खासकर सीपीएम दोनों दुश्मन भी रहे हैं और अवसरवादी मित्र भी रहे हैं। प्रसंगवश 2004 का उल्लेख करता हूं। कांग्रेस 145 सीटें जीत कर लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा 138 सीटें ही जीत पाई थी। अर्थात जनादेश त्रिशंकु था, लिहाजा खिचड़ी सरकार ही बननी थी। उस लोकसभा में वामदलों के कुल 61 सांसद जीत कर आए थे। यह उस दौर में वाम की सबसे शानदार और बड़ी चुनावी जीत थी। तत्कालीन सीपीएम महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने मध्यस्थता की और कांग्रेस के नेतृत्व में, भाजपा-विरोधी दलों को जोड़ कर, यूपीए का गठन किया। सोनिया गांधी को उसका अध्यक्ष बनाया गया। डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनाए गए और सी

पहली बार हिमाचल में सियासत ने ग्लैमर की राह पर अपना कद देखना शुरू किया है, ऐसा भी नहीं, लेकिन चुनाव की दहलीज अब कीमत मांगती है। राजनीति में सादगी या सादगी में राजनीति के तरकश में अब तीर कहां। ऐसे में पके पकाए नेताओं के घर में ग्लैमर की संभावना बढ़ गई है। सोशल मीडिया की मर्जी या बेहतर इस्तेमाल से जो नेता अपना आभामंडल बना पा रहे, उन्हें कबूल करने के त