लोक देवता ख्वाजा पीर

By: Jan 16th, 2017 12:05 am

इसी प्रकार यदि कोई आप पर झूठा आरोप लगाता है, जिससे मन को कष्ट तो होता ही है, साथ में बदनामी भी होती है…तब भी इसी प्रकार लोक देवता ख्वाजा पीर के आगे फरियाद करने से आपको कुछ समय के बाद न्याय अवश्य मिलेगा। उपरोक्त दोनों स्थितियों में सच्चे मन से तथा सच्चे रूप में की गई फरियाद के बाद अपराधी कुछ समय उपरांत देव कोप से कुपित हो जाता है। तब यदि वह चुराई गई वस्तु लौटा देता है या झूठे आरोप को स्वीकार करके देवता से क्षमा मांग लेता है, तो वह मिल रहे दंड से बच सकता है। अन्यथा ढोल की भांति फूलकर और घिसट-घिसट कर अंततःमृत्यु को प्राप्त हो जाता है। उसे कोई भी डाक्टर, वैद्य या हकीम भी ठीक नहीं कर सकते। इससे संबंधित 75-80 वर्ष  पहले की एक-दो ऐसी घटनाओं के बारे में जानकारी उपलब्ध हुई है- एक कृषक परिवार में पति ने पत्नी पर चरित्रहीन होने का बिलकुल झूठा आरोप लगा दिया। उसने उसे रोज पीटना शुरू कर दिया। रोज-रोज की अनेक यातनाओं से बेचारी इतनी दुःखी हो गई कि एक दिन ख्आजा पीर बाबा की मढ़ी पर जाकर अपनी सारी व्यथा रो-रोकर कह दी। फिर क्या था…बाबा ने उसकी फरियाद सुन ली और उसका पति बीमार हो गया। वैद्यों, डाक्टरों एवं हकीमों ने उसका इलाज करना शुरू कर दिया। जैसे-जैसे इलाज होने लगा, वैसे ही उसकी बीमारी बढ़ने लगी। बीमारी क्या थी कि वह ढोल की भांति फूलने लगा था तथा बिस्तर से उठ भी नहीं पाता था। यही समझा जाने लगा कि यह सुबह है तो शाम को नहीं और शाम को है तो सुबह नहीं। इसी बीच कई बार उसकी सांस भी बंद होती रही तथा उसे मृत्य शैय्या बनाकर भूमि पर सुलाते रहे। सुलाने के बाद फिर उसकी सांसें चल पड़ती थी। इसे लोक भाषा में ‘कई बरि मंजे-भूं होया’ कहते हैं। अंततः किसी ने कहा कि कहीं किसी लोक देवता का ही प्रकोप न हो। चेल्ला (ओझा) बुलाया गया। उसने अपनी मंत्र एवं तंत्र विद्या से पता लगाकर बताया कि इसने अपनी पत्नी पर बदचलनी का झूठा आरोप लगाया है। यही नहीं बार-बार इसे प्रताडि़त भी करता रहा है। इसकी यातनाओं से दुखी होकर इसकी पत्नी ने ख्वाजा पीर की मढ़ी पर जाकर मत्था मारा है (फरियाद की है)। ख्वाजा पीर ने इसकी फरियाद सुनकर अपना फैसला दिया, जिसे यह बाबा के दंड के रूप में भुगत रहा है। अब यदि इसकी पत्नी इसे क्षमा नहीं करेगी तो यह इसी प्रकार ढोल की भांति फूल-फूल कर ही मर जाएगा। अंततः उसकी पत्नी ने पीर बाबा की मढ़ी में जाकर कड़ाह-चूरुआं चढ़ाया और भंखारा डालकर अपने पति को क्षमा करने के लिए प्रार्थना की कि अब बाबा जी इन्हें ठीक कर दें। बस…फिर क्या था, वह धीरे-धीरे ठीक होने लगा और आठ-दस दिनों बाद बिलकुल ठीक हो गया तथा चलने-फिरने लग पड़ा। इसी प्रकार की एक और घटना वर्ष 1940-50 के दशक की भी प्राप्त हुई है। एक कृषक परिवार में दो भाई थे। दोनों की मृत्यु हो गई। एक भाई की पत्नी, तीन बेटियां और एक बेटा रह गया तथा दूसरे भाई की पत्नी, एक बेटा और एक बेटी रह गई तथा एक बेटा अभी गर्भ में ही था तो उसके पति की मृत्यु हो गई थी। बड़े भाई की तीन बेटियां बड़ी थीं और बेटे की आयु केवल दस वर्ष ही थी, जबकि छोटे भाई का बेटा पांच वर्ष का था और बेटी अढ़ाई साल की तथा जब छोटे भाई की मृत्यु हुई तो मई महीना था और जो बेटा गर्भ में था, उसका जन्म दो माह बाद अगस्त महीने में हुआ। उस परिवार पर तो पहाड़ गिर गया होगा, जब घर के युवा दो भाई इकट्ठे ही मृत्यु का ग्रास बन गए थे। समय गुजरता गया और बच्चे बालिग होते गए। बड़े भाई के बेटे और उसकी मां ने अपने हिस्से की सारी जमीन एक अन्य कृषक परिवार को बेच दी तथा स्वयं अपने गांव से दूर किसी दूसरे गांव में जाकर बस गए। पीछे छोटे भाई की पत्नी तथा उसके तीन बच्चे रहे गए, जो ख्वाज पीर बाबा का स्थान था वह जो जमीन बेची गई उसमें चला गया। उस स्थान के साथ दूसरे खेतों को जाने के लिए एक-दो पैर का रास्ता भी था। जिस परिवार ने वह जमीन खरीदी, उसने वह रास्ता बंद कर दिया और ख्वाजा पीर के स्थान के पास की सारी भूमि जोत डाली तथा रह गए परिवार को चेतावनी दी कि खबरदार! अब इस रास्ते से आए तो टांगें तोड़ देंगे। खूब डराया-धमकाया। अंततः दुखी होकर उस परिवार ने ख्वाजा पीर बाबा की मढ़ी पर जाकर बाबा जी से अपना दुख सुनाया तथा कहा कि यह मेरा स्थान और रास्ता जिन्होंने खोद दिया तथा बंद कर दिया है, उन्हें अब आप ही सजा दे सकते हैं। कुछ समय के बाद जिसने ऐसा किया था वह बीमार पड़ गया और दिन-प्रतिदिन ढोल की भांति फूलने लग पड़ा। उसके घरवालों ने कई वैद्यों तथा डाक्टरों से इलाज करवाया, परंतु बीमारी पर कोई असर नहीं हुआ, बल्कि जितना इलाज करते गए, उतना ही अधिक वह फूलता गया। अंततः चेले-जोगी बुलाए गए तो उन्होंने ख्वाजा पीर की जमीन को खोदने व उस रास्ते को बंद करने के बारे में बताया तथा क्षमा मांगने के लिए कहा, परंतु अहं में चूर उस परिवार ने क्षमा नहीं मांगी व आखिरकार उसकी मृत्यु हो गई। इन घटनाओं से ही  लोक देवी-देवताओं की सत्यता के प्रमाण मिलते हैं तथा इन्हीं प्रमाणों के कारण यह लोक देवता कृषक व श्रमिक वर्ग के मान्य लोक देवता कहलाते हैं।

— हरिकृष्ण मुरारी


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