चौथे स्तंभ का राजनीतिक पक्ष

By: Feb 6th, 2017 12:06 am

भारतीय राजनीति में डकैत, लठैत, सामंत, आलाकमान जैसे शब्दों का राजनीतिक विमर्श में बाहुल्य बेहद चिंताजनक है। चाहे हम एटम बम का निर्माण कर लें या राकेट छोडें, लेकिन राजनीतिक-सामाजिक रूप से अभी भी आधुनिकता की मंजिल से काफी दूर खड़े नजर आते हैं। हमारा लोकतंत्र अभी एक ऐसा शिशु है, जिसे देखरेख की जरूरत है, इसका दायित्व जागरूक जनता और स्वस्थ भावनाओं के प्रति समर्पित मीडिया ही कर सकता है…

ज्ञान शक्ति है, विज्ञान महाशक्ति है और संचार-विज्ञान तो एक अलौकिक शक्ति जैसा प्रतीत होता है। बहुआयामी जनसंचार  विज्ञान, कला, शिल्प और प्रौद्योगिकी का संयुक्त रूप है। मीडिया या जनसंचार के माध्यम किसी भी समाज या देश की वास्तविक स्थिति के प्रतिबिंब होते हैं। मीडिया की शक्ति का आकलन उसकी व्यापक पहुंच के मद्देनजर किया जा सकता है। लोकतंत्र में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बाद मीडिया को चौथा स्तंभ माना जाता है।

आज मीडिया की शक्ति इतनी अधिक हो चुकी है कि वह स्वयं ही एक सत्ता संस्थान बन चुका है। मीडिया को एक राजनीतिक शक्ति भी कहा जाता है, जो लोगों के विचारों का निर्माण करता है और इस तरह जनमत को प्रभावित भी करता है। मीडिया और राजनीति का हर दृष्टि से गहरा संबंध है क्योंकि राजनीति से संबंधित अधिकतर समाचार मीडिया में आते हैं। राजनीतिक घटनाओं का वर्णन भी किया जाता है। मीडिया को अब राजनीतिक उत्पाद कहा जाता है क्योंकि जनता का मत बनाने में या जननीति को नियंत्रित करने में मीडिया की व्यापक भूमिका है।

मीडिया का राजनीति पर भी प्रभाव अनेक रूपों में देखने को मिलता है। मीडिया राजनीति के क्षेत्र में विचारों को निर्मित करता है। वह नागरिकों को अपने उम्मीदवारों के संबंध में व्यापक सूचनाएं देता है। विज्ञापनों की दुनिया ने मीडिया के माध्यम से एक बहुत बड़ा परिवर्तन कर दिया है। अब यह स्वीकार कर लिया गया है कि राजनीति की भी मार्केटिंग होती है।

भारत में 80 के दशक में आतंकी घटनाएं देखने को मिलीं। 1984 में श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या, 1991 में श्री राजीव गांधी की आतंकी हमले में मृत्यु, 13 दिसंबर, 2001 को संसद भवन पर हमला, 26/11 को ताज होटल पर हमला, 2016 में पठानकोट एयरबेस पर हमला और उरी में आर्मी कैंप पर आतंकी हमले जैसी विषम परिस्थिति में पिं्रट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने जिस तरह जान की बाजी लगाकर सशक्त बलों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर घटनाओं का सजीव प्रसारण देश और दुनिया को दिखाया तथा आतंकवादियों के प्रति लोगों के मन में आक्रोश पैदा किया, वह काबिले तारीफ  था।

मीडिया की मदद से ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया देखने को मिल रही है। मीडिया का व्यापक प्रभाव है और वह अब तक ऐसी शक्ति बनता जा रहा है, जिस पर सरकार भी विजय प्राप्त नहीं कर सकती क्योंकि वह सत्ता से नहीं जनमत से जुड़ा है। मीडिया, उद्योग और सरकार के बीच एक ऐसा संबंध होता है, जो शक्ति से भी जुड़ा रहता है।

दुनिया के तमाम देशों में हुई सामाजिक एवं राजनीतिक क्रांतियों के अलावा भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में समाचार पत्रों ने अभूतपूर्व भूमिका निभाई। पुनर्जागरण के अग्रदूत राजाराम मोहन राय समेत अन्य सुधारकों ने भी अपने सुधार कार्यक्रमों को विस्तार देने तथा जन-जन तक पहुंचाने के लिए समाचार पत्रों को माध्यम बनाया। इसके अलावा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने मराठा एवं केसरी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने बंगाली, भारतेंदु हरिश्चंद्र ने संवाद कौमुदी, लाला लाजपतराय ने न्यू इंडिया, अरविंद घोष ने वंदेमातरम् तथा महात्मा गांधी ने यंग इंडिया एवं हरिजन के माध्यम से तथा अन्य महान नेताओं ने विभिन्न भाषायी समाचार पत्रों के माध्यम से ब्रिटिश शासन की शोषणकारी नीतियों को उजागर किया तथा उन्हें जन सामान्य तक पहुंचाया।

समाचार पत्र सरकार, सरकारी नीतियों व कार्यक्रमों तथा महत्त्वपूर्ण निर्णयों के विषय में जनमत का निर्माण करते हैं। जनमत का प्रतिनिधित्व करने के कारण समाचार पत्रों की आवाज को सुनना तथा उस पर जरूरी निर्णय लेना लोकतांत्रिक सरकार के लिए बाध्यकारी होता है। वर्तमान समय में स्वतंत्रता पूर्व युग की नैतिक पत्रकारिता अतीत की बात बनकर रह गई है। पत्रकारिता के क्षेत्र में बढ़ती व्यावसायिकता ने समाचार पत्रों के सामाजिक उत्तरदायित्वों को किनारे रख दिया है। बढ़ती व्यावसायिकता ने जनहित की समस्याओं को पीछे धकेलकर विज्ञापन एवं चटपटी खबरों को समाचार पत्रों का मुख्य अंग बना दिया है। अधिकांश समाचार पत्रों द्वारा सामान्य जन की भाषा को तिरस्कृत करके अभिजात्य वर्गीय संस्कृति को केंद्र में रख दिया गया है।

मीडिया के क्षेत्र में राजनीति के पूर्वाग्रह भी सामने आते हैं। मार्च, 2000 में दक्षिण अफ्रीका के मानवाधिकार आयोग ने 30 पत्रकारों को अपने सामने बुलाया, जिन पर नस्लीय भेदभाव को बढ़ाने का आरोप था और इस तरह मीडिया रेसिज्म की बात भी सामने आई। मीडिया का प्रयोजन यह है कि वह समाचारों के मूल्य को स्वीकार करे और समाचार जैसे मिलते हैं, वैसे ही उन्हें प्रसारित भी करें। राजनीतिक भ्रष्टाचार और कई प्रकार के स्कैंडल को जनता के सामने लाना चाहिए। लोकतंत्र में मीडिया का प्रयोग राजनीति के पैकेज के रूप में होने लगा है। राजनीति में जनता का प्रतिनिधित्व तेजी से दलों और राजनीतिज्ञों द्वारा नियंत्रित होने लगा है और वे ही उसका प्रबंधन भी करने लगे हैं। राजनीतिक बहसें यथार्थ और नीतियों पर आधारित न होकर वे व्यक्तियों पर आधारित हो गई हैं।

लोकतंत्र में समाचार माध्यमों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है। उनके द्वारा प्रकाशित अथवा प्रसारित और उस पर की गई टीका टिप्पणियों पर किसी प्रकार की रोक नहीं लगाई जाती। अतः समाचार पत्रों से अपेक्षा की जाती है कि उन्हें मर्यादित आचरण करना चाहिए। उन्हें किसी प्रकार की अफवाह की तह तक जाकर सत्य को प्रकाश में लाना चाहिए। भारत जैसे विशाल विविधता वाले देश में अफवाहों के माध्यम से सांप्रदायिक दंगे तक करा दिए जाते हैं, तोड़-फोड़ की कार्रवाई कर सरकारी और निजी संपति को क्षति पहुंचाई जाती है । उत्तेजनात्मक समाचारों से समाचार पत्रों की बिक्री तो बढ़ती है किंतु इसका कोई दीर्घकालीन लाभ नहीं मिलता। मीडिया को अपने महत्त्व का स्वयं आकलन करना चाहिए। मीडिया को राष्ट्रहित के मामलों में हमेशा सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए क्योंकि ये हित सीधे जनता से जुड़े होते हैं और यदि जनता को इस बात का एहसास हो जाए कि राष्ट्र का नेतृत्व उसके हितों के प्रति जिम्मेदार नहीं है, तो यह राष्ट्र के स्वास्थ्य के लिए घातक होगा।

प्रायः किसी भी राष्ट्र की एकता और अखंडता के समक्ष बाह्य खतरों के साथ आंतरिक खतरों की चुनौती भी हमेशा बनी रहती है। जैसे भारत में दुनिया के सभी धर्मों के लोग रहते हैं, साथ ही 826 भाषाओं, एवं 1652 बोलियां बोली जाती हैं। जातियों की गणना तो कठिन है। ऐसे में क्षेत्रीयता, सांप्रदायिकता, भाषा और जाति को लेकर अलगाववादी ताकतों द्वारा समय-समय पर देश को चुनौतियां दी जाती रही हैं। इन परिस्थितियों में संपूर्ण राष्ट्र को एकजुट बनाए रखने के लिए प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को हमेशा जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है, जिसके बल पर भारतीय संस्कृति की प्रमुख पहचान ‘विभिन्नता में एकता’ कायम है।

 सत्ता लोलुप एवं सुविधाभोगी पत्राकारिता से न तो स्वस्थ लोकमत का निर्माण होता है और न ही राष्ट्रीय हितों को कोई लाभ पहुंचता है। समाचार पत्रों के माध्यम से ही विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक समूह एक-दूसरे के दृष्टिकोण, मान्यताओं एवं अपेक्षाओं से परिचित होते हैं। इस प्रकार समाज में एक शांतिपूर्ण सामंजस्य की प्रक्रिया आरंभ हो जाती हैं, जिसमें आपसी विवादों एवं मतभेदों का निराकरण सहमतिपूर्ण ढंग से करना संभव होता है। मीडिया का स्वस्थ विकास न सिर्फ  भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण है, बल्कि समाज, संस्कृति और सद्भाव के लिए भी बेहद आवश्यक है।

समयानुसार प्रेस व मीडिया तकनीकी में परिवर्तन आया है। अब समसामयिक परिस्थितियों में तमाम न्यूज चैनल, इंटरनेट जैसी तकनीकों से मिनटों में देश के किसी एक कोने से दूसरे कोने में घटनाओं को प्रसारित किया जा सकता है। भारतीय राजनीति में डकैत, लठैत, सामंत, आलाकमान जैसे शब्दों का राजनैतिक विमर्श में बाहुल्य बेहद चिंताजनक है। चाहे हम एटम बम का निर्माण कर लें या राकेट छोडें, लेकिन राजनीतिक-सामाजिक रूप से अभी भी आधुनिकता की मंजिल से काफी दूर खड़े नजर आते हैं। हमारा लोकतंत्र भी एक ऐसा शिशु है, जिसे देखरेख की जरूरत है, इसका दायित्व जागरूक जनता और स्वस्थ भावनाओं के प्रति समर्पित मीडिया ही कर सकता है।

समाचार पत्रों में जातीय एवं धार्मिक नेताओं के प्रभाववश सामाजिक एवं धार्मिक मतभेदों को उभारने वाली खबरें प्रकाशित होती हैं तथा वास्तविक सामाजिक कार्यकर्ताओं के कार्यों एवं अपीलों की उपेक्षा की जाती है। मीडिया को यह अधिकार है कि वह प्रशासन की विफलताओं तथा भ्रष्ट अधिकारियों अथवा कर्मचारियों के कारनामों का पर्दाफाश करे।  मीडिया को उस तथ्य पर ध्यान देना होगा कि भारत में अनेक राजनीतिक दल क्षेत्रीय, पृथकतावादी और संकीर्ण आधारों पर गठित हैं। इन राजनीतिक दलों के द्वारा नागरिकों में राष्ट्रीय दृष्टिकोण उत्पन्न करने के बजाय उनमें ऐसे संकुचित दृष्टिकोण को जन्म दिया, जिससे नागरिक स्वस्थ लोकमत के निर्माण का कार्य कर ही नहीं पाते। इस स्थिति का मुकाबला राष्ट्रीय टीवी चैनल अधिक आसानी से कर सकते हैं।

वस्तुतः मीडिया और राजनीति के संदर्भ में यह स्थापित हो गया है कि इनके बीच अटूट संबंध है।  जनमत के निर्माण में मीडिया की अहम भूमिका होती है। और राजनीतिक वर्चस्व में थोड़ी बहुत हिस्सेदारी मीडिया की भी है। मीडिया की शक्ति लोगों की राजनीतिक प्राथमिकता को तय करती है और यही मीडिया और राजनीति के आधार का एक महत्त्वपूर्ण आधार है।

-डा. लाखाराम चौधरी (लेखक, चंडीगढ़ में लेखा परीक्षक के पद पर कार्यरत हैं )


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