आंखों में धूल लेकिन सीने में जलन नहीं

By: Mar 20th, 2017 12:04 am

मीडिया के लिए न शब्द किसी रुके हुए जल की तरह है और न ही किसी ठहराव में रुकना इसे पसंद है, जबकि इसी शब्द की महिमा किसी साहित्यकार के पास बदल जाती है। वह चाहे तो साहित्य की कमान में, शृंगार के साथ शब्द की यात्रा का खुद सारथी बने और न चाहे तो भी शब्द यहां कभी गौण नहीं होता। शब्द की संवेदना में मीडिया डूब सकता है, लेकिन साहित्य की संवेदना में शब्द ही डुबकी लगाता है। धरातल पर यह शब्द मीडिया की गति को समझता है, लेकिन जब यही पिघलने लगता है तो इसे साहित्य अपनी कोमलता से सहेजता है। यदि दृष्टि व्यापक हो और चिंतन कुंठाओं से परे हो तो साहित्य और मीडिया के बीच प्रतिस्पर्द्धा से अधिक संभावनाएं सहयोग की बनती हैं। स्मरण यह भी रखा जाना चाहिए कि कमोबेश दोनों क्षेत्रों का संबंध सृजन से है, इसलिए यहां पर उपदेशक से बड़ी मुद्रा रचयिता की हो जाती है। प्रमाणपत्र देने की मानसिकता से बाहर निकलकर सृजनकर्म कैसे आगे बढ़े, इसी की तलाश अजय पराशर अपने अतिथि संपादकीय की दूसरी किस्त में कर रहे हैं …       

-फीचर संपादक

अजय पराशर, अतिथि संपादक

साहित्य की बेकली उस वक्त और बढ़ जाती है, जब वह अपने समय के वसंत को बुढ़ाते देखता है। उसकी पीड़ा को बदरंग बनाने वाले बाजार ने पहले सुनियोजित ढंग से घात लगाते हुए उसे हाशिए पर धकेला; फिर प्रबंधन साहित्य ने रूह की गहराइयों से सृजित साहित्य को हाशिए से भी बाहर लुढ़का दिया। बेस्ट सैलर के टैग में लिपटा साहित्य बाजार के ताने-बाने में इतना उलझा है कि आम पाठक उसकी वास्तविकता नहीं समझ पाता। आजादी के बाद सहकार की ताकत पर शुरू हुए 350 से अधिक अखबार पूंजी और कारपोरेट की शक्ति के सामने घुटने टेक गए। मीडिया में पूंजी का बोलबाला होने के बाद ‘यूज एंड थ्रो’ का फार्मूला सफलता का पर्याय बन गया, जबकि साहित्य का साधारण से लगाव बदस्तूर जारी रहा। बाजार की आंधी में साहित्य कब तक डिगे बगैर रह पाता। गुरुदत्त की क्लासिक फिल्मों में शुमार मूवी ‘प्यासा’ में प्रकाशक के हाथों प्रताडि़त नायक की पीड़ा, साहित्य पर बाजार के आक्रमण को बखूबी दर्शाती है। बाद में यही हश्र मीडिया का हुआ जब बाजार में नए/सोशल मीडिया की आमद ने उसे पारंपरिक मीडिया का खिताब देते हुए हाशिए पर धकेलना शुरू कर दिया। पूंजीपति के पल्लू में बंधे पत्रकारों सहित अदीब जब आम लोगों की आवाज बनने की बजाय किसी प्रभावशाली का पक्ष लेने लगे, तो उनकी प्रतिष्ठा पर आवाज उठना लाजिमी था। नए मीडिया की ‘क्लिक’ ने पारंपरिक मीडिया को निचोड़ना शुरू कर दिया। सर्कुलेशन और टीआरपी की जंजीरों से बंधे पारंपरिक मीडिया को अब दम लेने के लिए फेसबुक रूपी आक्सीजन का सहारा लेना पड़ रहा है, लेकिन यहां भी फायदा कारपोरेट ही उठा रहे हैं। आम लोगों के मुद्दे आज भी गौण हैं।

उदारीकरण और वैश्वीकरण ने बाजार में पूंजी का जो बवंडर खड़ा किया, उसने जब हर उठती आवाज को दबाना शुरू किया तो मीडिया उससे कैसे अछूता रहता? मूल्य और सरोकार तो तब बचते अगर पत्रकार की अस्मिता बचती। आक्रामक सुर अपना कर मास मीडिया जब किन्हीं मुद्दों को हवा में उछालकर पाठकों या श्रोताओं को भीड़ बना देता है तो सामाजिक सरोकार कहां ठहर पाते हैं। किसी शहीद की 20 वर्षीय बेटी की भावनाओं को समझे बगैर उसे गद्दार करार देने वाले ऐसे मीडिया से उम्मीद की जा सकती है कि देश के किसी कोने में जमीन से बेदखल होने वालों की पीड़ा को वह सही आवाज दे पाएगा? पूंजी की अंधी दौड़ में दूसरा मुद्दा हाथ आते ही पहला खाई में धकेल दिया जाता है। एक सैनिक का वीडियो जब बिना बताए किसी वेबसाइट पर लोड कर दिया जाता है, तो वह आत्महत्या के लिए मजबूर हो उठता है। ऐसे में हमें मीडिया की जिम्मेदारी याद आती है, लेकिन बाजार में केवल उत्पादों की कीमत है और मुद्दे, उत्पाद में तबदील हो चुके हैं।

पारंपरिक मीडिया के बरअक्स सोशल मीडिया की ताकत के आकलन हेतु पिछले पांच सालों का अध्ययन जरूरी है। केंद्र में विकल्प के तौर पर जो चेहरा तैयार किया गया था, उसके खिलाफ जायज बोलना भी देशविरोधी हो जाता है। सरकारी और निजी मीडिया के सुर एक जैसे होने पर दोनों को प्रबंधन का एक अंग मान लेना अब मीडिया विशेषज्ञों में आश्चर्य नहीं जगाता। सोशल मीडिया के आने से कुछ आस बंधी थी, लेकिन वह भी अब कारपोरेट की वेदी पर हो रहा है। मुख्यधारा और पारंपरिक मीडिया का एक छोटा सा धड़ा जो लोगों के मुद्दे उठा रहा था, उसके वजूद पर नया मीडिया सवालिया निशान लगा रहा है। हमें वे तमाम वजहें विचारनी होंगी जो सोशल मीडिया को रसातल में लिए जा रही हैं। पारंपरिक मीडिया में स्टाफ की कमी से वेबसाइट संचालन लुढ़कते हुए चल रहा है। किसी भाषा और संपादन के अभाव में वेबसाइट पर अनाप-शनाप लिखने वालों के मुकाबिल पारंपरिक मीडिया अपनी रफ्तार तय करता है। फेसबुकिया लाइक्स ट्रेडिशनल मीडिया के कंटेंट्स तय कर रहे हैं। अपने तरीके से आगे बढ़ता हुआ नया मीडिया आम आदमी की सोच को प्रभावित कर रहा है। फेसबुक अतिवादी निर्धारक की भूमिका में है। बिना गहराई में उतरे परोसी गई अधूरी सामग्री को देखकर लोग क्लिक करते ही लौट जाते हैं। यहां बैलेंस्ड होना जरूरी नहीं। संतुलित होने पर कोई आपका नामलेवा भी नहीं होता।

पारंपरिक मीडिया को जिंदा रहने के लिए दर्शकों को भावनाओं में बहाने की जगह तथ्यपरकता की ओर लौटना होगा। उसे खबरदार रहना होगा क्योंकि बाजार, विज्ञापन के सहारे समतामूलक भाषा से अपनी साख बढ़ा रहा है, वहीं मीडिया ऊल-जलूल रचकर अपनी प्रतिष्ठा खोता जा रहा है। साहित्य सहित तमाम मीडिया दिलों में स्थान बनाने के स्थान पर आंखों के माध्यम से पाठकों को मोहने का प्रयास कर रहा है। उसे लिपि और दृश्यों के जरिए अपनी ओर खींचने का प्रयास कर रहा है। इससे पाठक की आंखों में धूल तो है, लेकिन सीने में जलन नहीं।

साहित्य और पारंपरिक मीडिया को सोशल मीडिया की कृत्रिम लाइक्स और चातुर्यपूर्ण टिप्पणियों से बचते हुए अपनी उपयोगिता और सोशल मीडिया की उपभोगिता को समझना होगा। साहित्य और मीडिया की प्रकृति/प्रवृत्ति में अंतर, सोशल मीडिया में स्पर्श-संचारक व्याधि पर नियंत्रण से भाव संरक्षण, सर्च बबल्स जैसे हथियारों से लैस सोशल मीडिया की पाठकीय बोध पर पर्दा डालने की क्षमता तथा हर पल नई कविताओं-कहानियों के रक्तबीजों पर नियंत्रण जैसे कुछ उपाय ट्विटर पत्रकारिता को उपयोगी बनाने में सहायक हो सकते हैं। अब जरूरत है एक ऐसी तकनीक विकसित करने की, जो व्यक्ति के भावों तथा भाषा को तौलने के बाद ही उसकी टिप्पणी दर्ज करे। आम जन से जुड़ने के लिए साहित्य सहित ललित कलाओं को मूर्त मंच प्रदान करने होंगे, सोशल मीडिया में संख्या की बजाय गुणात्मक कृतियों को तरजीह देते हुए जन मंच बनाने होंगे।  साहित्य और मीडिया एक दूसरे को समझकर अपनी महत्ती भूमिका निभा सकते हैं। साहित्य, मीडिया से विषय ले सकता है तो मीडिया, साहित्य से प्रेरणा लेकर नई ऊंचाइयां छू सकता है। लेकिन दोनों का बाजार से मुक्त होना, अब जीवित स्वर्ग पहुंचने जैसा हो चला है। पारंपरिक और सोशल मीडिया दोनों सहकार से संवारे जा सकते हैं।

 -लेखक, सूचना एवं जनसंपर्क विभाग क्षेत्रीय कार्यालय,धर्मशाला में उपनिदेशक के पद पर कार्यरत हैं। साहित्य जगत में भी सार्थक हस्तक्षेप के कारण विशिष्ट पहचान रखते हैं।

 


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