जरूरी है साहित्य-संस्कृति और समाज के अंतर्संबंधों की पड़ताल

By: Mar 6th, 2017 12:05 am

मुरारी शर्मा अतिथि संपादक

सही नब्ज पकड़ना, भले ही वह व्यक्ति की हो अथवा समाज की, भारत में विशेषज्ञता का एक पैमाना रहा है। एक वैद्य सही नब्ज पकड़ ले तो रोगी का स्वस्थ होना तय है। ठीक इसी तरह समाज की सही नब्ज पकड़ते ही साहित्यकार आईना बन जाता है, संवेदना की मरहम पट्टी लगाने में सक्षम हो पाता है। यह इतना आसान नहीं है। यह खुद को खराद पर चढ़ाने जैसा है। प्रतिष्ठित साहित्यकार मुरारी शर्मा समय और समाज की सही नब्ज पकड़ने वाले दृष्टिकोणों तकपहुंचे हैं। इसकी तसदीक पाठकों-साहित्यकारों से मिलने वाली प्रतिक्रियाएं भी करती हैं। उनके चुने हुए विचारों की दूसरी कड़ी पस्तुत है। आपकी प्रतिक्रियाएं इस नई पहल को परिष्कृत करने में सहयोगी साबित होंगी…                                        -फीचर संपादक

इस दुनिया में हम कितने भी बड़े उद्देश्य को लेकर, लक्ष्य को लेकर दीया जलाते हैं, तेज हवा उसे टिकने नहीं देती है। हम तरह-तरह से कोशिश करते हैं उसे अपनी हथेलियों से बचाने की,पर यह हवा है कि हमारी सारी कोशिशें पर पानी फेरती है। शायद हमारे जीवन के दीये में पानी ही ज्यादा होता है, तेल नहीं। स्नेह की कमी होगी इसलिए जीवन बाती चिड़चिड़- तिड़तिड़ करती है, एक सी संयत होकर जल नहीं पाती। न हम अपना अंधेरा दूर कर पाते हैं, न दूसरे का। -अनुपम मिश्र, मशहूर पर्यावरणविद, जो अब हमारे बीच नहीं हैं। कहते हैं कि एक सभ्य समाज साहित्य, कला और संस्कृति के बिना अधूरा है। किसी भी समाज को जानने से पहले उसके साहित्य और संस्कृति को जानना जरूरी होता है। आज भले ही भौतिक विकास के हम कितने भी दावे कर लें । एक बेहतर समाज की रचना में साहित्य और कलाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। मनुष्य का आंतरिक विकास भी साहित्य, संस्कृति और कलाओं से ही संभव है। आज के  दौर  में हम अजीबोगरीब स्थिति में जी रहे हैं। एक अनजाने से भय, व्यग्रता, असंतोष, सत्ता की क्रूरता , असुरक्षा और वैचारिक  शून्यता एवं चकाचौंध भरा वातारण हमारे आसपास फैलता जा रहा है। यह स्थिति हमारी सोचने-समझने और तर्क करने को मौका दिए बिना ही यह तय करने लगी है कि हमें कैसे रहना है, कैसे जीना है ? क्या खाना है ,क्या पहनना है और क्या बनना है  और क्या देखना है और क्या नहीं? यह सब बाजार के हिसाब से तय हो रहा है और हम उसी रौ में बहे चले जा रहे हैं। यहां  तक कि व्यवस्था भी बाजार के हवाले हो गई है और उसे ही पोषित करती जा रही है।

ब्रिटिश कला चिंतक एवं कवि जॉन बर्जर का कहना है – कला ने अकसर जजों का भी फैसला सुनाया है और बेगुनाहों की वकालत की है और भविष्य को यह दिखाया है कि अतीत पर क्या गुजरी थी, इस तरह कि वो कभी नहीं भुलाया जा सका है। वे आगे कहते हैं कि -शक्तिशाली लोग कला से डरते हैं, चाहे वो अपने किसी भी रूप में हो…क्योंकि उसे उस चीज का बोध होता है जो जीवन की क्रूरताएं नहीं महसूस कर सकती हैं। कला जब इस तरह के कार्य करती है तो वो अदृश्य ,अपरिवर्तनीय और स्थायी साहस और सम्मान की मिलन स्थली बन जाती है। साहित्य, कला-संस्कृति समाज से ही उपजती है और यह सब जन पक्षधर होनी ही चाहिए। साहित्य और कला की यही जन पक्षधरता सत्ता विरोधी भी होती है, जो उससे सवाल पूछती है और प्रतिरोध भी करती है। प्रतिरोध की यही संस्कृति सत्ता से टकराने का जज्बा पैदा करती है। प्रतिरोध का यह जज्बा समाज में सदियों से रहा है। अपने जनपद में देव संस्कृति भी इसका ज्वलंत उदाहरण रही है। मंडी जिला के सराज क्षेत्र के कई देवता राजसत्ता के अत्याचारों के खिलाफ उठ खड़े होते रहे हैं। ढोल -नगाड़ों के महानाद करते हुए सैंकड़ों लोगों के साथ देवताओं का यह हल्ला बोल दूहंब के नाम से विख्यात रहा है। वहीं  एक दिन के लिए रियासत पर कब्जा करने वाले शोभाराम कालरू का बलवा भी राजसत्ता के अत्याचारों का प्रतिरोध था।  किसानों का प्रतिरोध मुजारा आंदोलन के रूप में मुखर होता है।

‘घालुआ मजुरा ओ डेरा तेरा दूरा तथा हिंयूआ री धारा ते लैणियां गवाहियां किन्ने-किन्ने खादी री गरीबा री कमाइयां’ जैसे गीत जनपक्षधरता की बुलंद आवाज बनकर उभरे । ऐसे में साहित्य, कला और संस्कृति के समाज से अंतर्संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने की आवश्यकता है। साहित्य के संक्रमणकाल में ‘दिव्य हिमाचल’ की ओर से साहित्यिक पृष्ठ प्रतिबिंब को लेकर नए प्रयोग के तहत अतिथि संपादक  का दायित्व मुझे सौंपना अखबार की संपादकीय नीति की उदारता का परिचायक है। इस कसौटी पर  खरा उतर पाया हूं या नहीं, इसका निर्णय तो पाठक ही करेंगे। मगर इस आयोजन में शामिल हिमाचल के प्रतिष्ठित रचनाकारों का  उदात्त सहयोग मुझे मिला है। इसके लिए मैं वरिष्ठ कवि दीनू कश्यप, चर्चित कवियों सुरेश सेन निशांत, यादविंद्र शर्मा,आत्मा राम रंजन और अजेय का आभारी हूं। वहीं पर कवि आलोचक डा. विजय विशाल एवं निरंजन देव शर्मा ने मेरे कहने पर चर्चा के लिए उठाए सवालों में से कुछ पर असहमति के बावजूद अपनी-अपनी टिप्पणियां मुझे दी। पत्रकारिता के तीस वर्षों के कार्यकाल में बतौर रिपोर्टर तो कार्य किया। मगर बतौर अतिथि संपादक कार्य करना सुखद और रोमांचक अनुभव रहा है। ‘दिव्य हिमाचल’ की फीचर टीम का मैं विशेष रूप से आभारी हूं, जिसने मुझे न केवल यह दायित्व सौंपा ,बल्कि पन्ने का आकर्षक ले-आउट बनाकर आपके सामने प्रस्तुत किया। अभी तो यह शुरूआत है। भविष्य में अगर मौका मिला तो हिमाचली रचनात्मकता का पाठकों से साक्षात्कार करवाने के अलावा नवांकुरों को भी उचित मंच प्रदान करने का प्रयास करेंगे।

*लेखक, हिमाचल अकादमी साहित्य पुरस्कार के अलावा अंग्रेजी साप्ताहिक ‘हिमाचल दिस वीक’ की ओर से ‘राइटर ऑफ द ईयर’ सम्मान से सम्मानित हैं।


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