मिट्टी होती किसान की मेहनत

By: Mar 16th, 2017 12:02 am

( बचन सिंह घटवाल  लेखक, मस्सल, कांगड़ा से हैं )

पशुओं की उजाड़ और नुकसान करने की प्रवृत्ति का दंश झेलता किसान कृषि के दायरे को सीमित करने के लिए विवश हो गया है। खेतों में मेहनत के परिणामस्वरूप अगर कृषक को अंततः नुकसान ही झेलना पड़े, तो वह अगली बार उस खेत में क्यों जाना चाहेगा…

मौसम की बदली करवट ने भूमि पर वर्षा की बूंदें बरसाकर किसानों के चेहरों पर मुस्कराहट बिखेर दी, तो सृजन की प्रक्रिया को रंगत देती प्रकृति ने अंकुरित गेहूं व अन्य पौधों की हरितमा को बढ़ा दिया। नवयौवन की दहलीज पर पांव पसारती कृषि की रखवाली की चिंता ने अब पुनः किसानों को प्रताडि़त करना शुरू कर दिया है। अभी से एक अजीबोगरीब कशमकश किसान के जहन में चली हुई है कि खेत में उसने जो पसीना बहाया है, क्या उसका फल समय आने पर मिल भी पाएगा या वर्ष-दर-वर्ष आवारा पशुओं की भेंट चढ़ रहे खेत की पैदावार पुनः खेत में ही मिल जाएगी। जनमानस में कृषि पर इस तरह की चर्चा आज आम है। जंगली जानवरों के आतंक से कृषि की उन्नति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है। इन तमाम प्रतिकूल आशंकाओं को नजरअंदाज कर किसान हर बार खेत को अपने श्रम से सींचता है। अबकी बार पुनः किसान इस उम्मीद के साथ खेतों के चारों ओर बाड़ लगाने में व्यस्त है कि शायद इस बार वह फसल को बचा ले। अंदेशों और भय की परछाइयों संग अग्रसर किसान लावारिस पशुओं के संभावित खतरों से ग्रस्त रहता है, क्योंकि मेहनत पर जब इन जानवरों का कहर टूटता है, तो पल-पल की मेहनत व कृषि पर किया गया खर्चा उसे बेसुध व निढाल कर जाता है। आज कृषि पर आधारित हमारा किसान परिवार हो या घरों के आसपास सब्जियों को उगाती गृहिणियां, महंगाई के इस दौर में दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में हरी सब्जियों को उगाने के लिए तत्पर रहता है। घर में उगाए गए पौधे, चाहे वे सुंदरता के लिए उगाए गए हों या हरी सब्जियों के रूप में, हरियाली के अतिरिक्त पर्यावरण के शुद्धिकरण में भी सहयोग करते हैं। आवारा पशुओं के झुंड जिस तरफ भी रुख करते हैं, वहां वे बड़ी बेरहमी के साथ पौधों को तहस-नहस करते हुए आगे बढ़ जाते हैं।

पशुओं की उजाड़ और नुकसान करने की प्रवृत्ति का दंश झेलता किसान कृषि के दायरे को सीमित करने के लिए विवश हो गया है। खेतों में मेहनत के परिणामस्वरूप अगर कृषक को नुकसान ही झेलना पड़े, तो वह भला अगली बार उस खेत में क्यों जाना चाहेगा? आज किसान महंगे बीज और खाद संग कीटनाशकों व दवाइयों पर काफी खर्चा वहन करता है। पैदावार से इसकी लागत निकालना भी मुश्किल हो जाता है।इसके बाद खेत में की गई मेहनत पर पशुओं का आक्रमण तथा खेतों का तहस-नहस करना किसान की हिम्मत को पस्त कर जाता है। फसल को सुरक्षित रखने के लिए तारबंदी का प्रयोग कहीं-कहीं अच्छे परिणाम दे रहा है, परंतु आवारा पशुओं के अतिरिक्त बंदरों के दल तारबंदी की सीमाओं को भी दरकिनार कर देते हैं। अभिप्राय यह कि अगर एक तरफ से खेती को बचाने के उपाए किए जाते हैं, तो दूसरी तरफ जंगली सूअरों और बंदरों के आगे सब प्रभावहीन हो जाता है। सरकार बंदरों से निजात पाने के लिए तरह-तरह के उपाय करती रही है, इसके बावजूद उजाड़ की रफ्तार उसी गति से बढ़ती जा रही है। ऐसा नहीं है कि कृषि पर जानवरों का प्रकोप वर्तमान समय में ही हो रहा है। इससे पहले भी कृषि पर जानवरों का प्रकोप होता रहा है, परंतु तब नुकसान की प्रतिशतता आज के मुकाबले काफी कम थी। आज क्षति का प्रारूप कई चरणों में से होता हुआ अपना स्वरूप बदलता जा रहा है। सिमटते वनों व वन्य फूलों की कमी व पत्तेदार वृक्षों का घटता क्षेत्र वन्य जानवरों को खेती की क्षति का जिम्मेदार बनता जा रहा है। जहां तक आवारा पशुओं के विकराल जमावड़े के लिए हम खुद जिम्मेदार हैं, वहीं वृक्षों के कटाव के कारण वन्य प्राणियों को गांव का रास्ता दिखाने के लिए भी जिम्मेदार हैं।

आज आवारा पशुओं की बढ़ती संख्या हम सब के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। पालतू जानवरों के बीच जीवनयापन करता आ रहा मानव पशुओं से दूध व खेती के अन्य कामों को लेता रहा है। जब वही जानवर बूढ़े होकर उसके किसी काम के नहीं रह जाते, तो किसान उनको अपने बाड़े से बाहर का रास्ता दिखा देता है।आज अधिकतर वही जानवर अपनी संख्या बढ़ाते हुए खेती को उजाड़ कर रहे हैं। आवारा पशुओं और वन्य प्राणियों से उजड़ती कृषकों की खेती आज हम सभी के लिए समस्या बन चुकी है। कई स्वयंसेवी संस्थाएं व गोसदन आवारा पशुओं की देखरेख के लिए कार्य कर रहे हैं, परंतु हम सभी के सहयोग के बिना वे सही परिणाम देने में वे असमर्थ रहे हैं। इन संस्थाओं के प्रयास सफल हो सकें, इसके लिए समुचित सहयोग की बेहद आवश्यकता है। पंचायत स्तर पर भी आवारा पशुओं को नियंत्रित करने के लिए किए जाने के प्रयत्न प्रभावी परिणाम ला रहे हैं, परंतु स्थानीय सहयोग की इसमें ज्यादा भूमिका परिणामों को सुखद बनाने का कार्य कर सकती है। हिमाचल में कृषि व्यवसाय की एक अहम भूमिका रही है और इसे बचाने के लिए प्रभावी प्रयास सरकार व प्रशासन की ओर से अभिलषित रहेंगे। इसके साथ ही समाज यदि लावारिस पशुओं को न छोड़े, तो एक समस्या तो अपने आप ही खत्म हो जाएगी।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App