मूल पहचान से भटकती मेला संस्कृति

By: Mar 29th, 2017 12:07 am

NEWSकर्म सिंह ठाकुर

(लेखक, सुंदरनगर, मंडी से हैं)

नलवाड़ी मेले से बैलों व अन्य पशुओं की उपस्थिति तो करीब-करीब लुप्त हो चुकी है, लेकिन यहां प्रशासनिक आडंबरों का खूब बोलबाला है। मेले का उद्घाटन, सांस्कृतिक संध्याओं व अतिथि सत्कार की रस्म अदायगी तो सिर चढ़ कर बोलती है, लेकिन इस शोर-शराबे में मेलों के मूल मकसद कहीं खामोश हो जाते हैं या यूं कहिए करवा दिए जाते हैं…

हिमाचल प्रदेश प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ अपनी समृद्ध संस्कृति एवं परंपराओं के कारण भी विश्व भर में विख्यात है। वर्ष भर हिमाचल में मेले व त्योहारों को मनाने का प्रचलन चलता रहता है। अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर महाशिवरात्रि, लवी मेला, मिंजर मेला, दशहरा मेला, रेणुका मेला, शूलिनी मेला, रिवालसर मेला, मार्कंडा मेला, दियोटसिद्ध मेला इत्यादि करीब तीन दर्जन मेले प्रदेश की व्यापारिक व आर्थिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करते हैं। पिछले कुछ समय से इन मेलों में भीड़भाड़ तथा खरीद-फरोख्त में बढ़ोतरी तो देखने को मिली, लेकिन इनके स्वरूप व वजूद में जो नकारात्मक बदलाव समय में आए हैं, वे निश्चित तौर पर चिंताजनक स्थिति को दर्शाते हैं। मेले में बिक्री होने वाले घटिया उत्पाद, खान-पान में मिलावट व गंदगी, अस्वच्छता, ट्रैफिक की समस्या निरंतर बनी हुई है। यहीं से इन पावन अवसरों पर अव्यवस्था का सिलसिला भी शुरू हो जाता है।

प्रशासन भी वर्ष में सिर्फ आयोजन के समय ही जागता है। उसके बाद वर्ष भर किसी भी तरह की हलचल देखने को नहीं मिलती कि अगली बार इसका आयोजन कैसे और भी बेहतर हो सकता है। सांस्कृतिक संध्याओं के नाम पर आयोजित कार्यक्रमों में जब स्थानीय कलाकारों की कलाओं, नृत्यों, गीतों को उपेक्षित करके बाहरी राज्यों के महंगे व भड़काऊ कलाकारों को तरजीह दी जाती है, तो इन आयोजनों के बारे में जहन में एक साथ कई सवाल उठते हैं। मेले के आयोजनों में मुख्यातिथियों तथा विशेष अतिथियों के सत्कार व मेहमाननवाजी में खर्चा दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है। एक तरफ जहां मेलों के आयोजन में धन के अभाव का रोना रोया जाता है, तो फिर यह फिजूलखर्ची क्यों? बाह्य प्रभावों व अपनी कमियों से जहां आज कई मेलों के अस्तित्व संकट मंडरा रहा है, वहीं दूसरी तरफ प्रशासन चंद मनोरंजक पलों व मेहमाननवाजी पर लाखों रुपए पानी की तरह बहा रहा है। एक वह भी समय था, जब नलवाड़ी मेलों में पशुओं की बिक्री पर प्रशासन को लाखों रुपए बिक्री कर प्राप्त होता था तथा किसान भी बैलों, भैंसों, भेड़ों, बकरियों, घोड़ों आदि को वर्ष भर पाल-पोसकर बेचने पर लाभ कमाता था। समय बदला और खेतीबाड़ी की पद्धति से लेकर मेलों का स्वरूप भी बदल गया। आज आधुनिक मशीनों ने बैलों के कार्यों को खत्म कर दिया, वहीं इनकी खरीद-फरोख्त भी लगभग समाप्त हो गई।

वर्ष 1889 में गोल्डस्टीन द्वारा शुरू किया गया बिलासपुर का नलवाड़ मेला एक समय प्रदेश का सबसे बड़ा मेला माना जाता था। तब से लेकर चैत्र माह में लगने वाला सुकेत नलवाड़ मेला प्रदेश भर के व्यापारियों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र था। इसके अतिरिक्त नलवाड़ मेलों में नालागढ़ (सोलन), भंगरोटू (बल्ह, मंडी), खयोड़ (गोहर, मंडी), जाहू व गसोता (हमीरपुर) के मेले बैलों की खरीद-फरोख्त के कारण मशहूर हैं। हाल ही में इन स्थानों पर बैलों व अन्य पशुओं की उपस्थिति तो करीब-करीब लुप्त हो चुकी है, लेकिन प्रशासनिक आडंबरों का खूब बोलबाला है। मेले का उद्घाटन, सांस्कृतिक संध्याओं व अतिथि सेवा की रस्म अदायगी तो सिर चढ़ कर बोलती है, लेकिन इस शोर-शराबे में मेलों के मूल मकसद कहीं खामोश हो जाते हैं या यूं कहिए करवा दिए जाते हैं। प्रदेश की 90 फीसदी आबादी गांवों में रहती है। करीब 62 प्रतिशत लोगों की आजीविका खेतीबाड़ी पर निर्भर है। किसानों के लिए पशुधन का होना अतिआवश्यक है। किसान, पशु और गोबर एक ऐसा त्रियक है, जो किसी एक के अभाव में अधूरा पड़ जाता है।

सरकार व प्रशासन इस संदर्भ में मूक बने हुए हैं। अब समय आ चुका है कि सरकार की सबसिडी वाली मेहरबानी ने बैलों की जगह छोटे-छोटे ट्रैक्टरों को दिला दी है, उस पर अब विराम लगे। सरकार बैलों की गौरवशाली व मेहनतकश ऐतिहासिक गाथा को बचाने के लिए बैलों के पालन-पोषण पर किसानों को विशेष प्रोत्साहन राशि की व्यवस्था करे, ताकि नलवाड़ जैसे मेलों की रौनक भी बनी रहे तथा बैलों पर होने वाले अत्याचारों को भी कम किया जा सके। अन्यथा बैलों की लावारिस संख्या निरंतर बढ़ती ही जाएगी, जो कि सड़क दुर्घटनाओं, किसानों की लहलहाती फसलों की तबाही तथा राहगीरों को कुचलने का मुख्य कारण बनती रहेगी। आज यह जरूरत शिद्दत से महसूस की जाने लगी है कि सांस्कृतिक कार्यक्रमों में पहाड़ी कलाकारों को प्रोत्साहन दिया जाए। मुख्यातिथि के सत्कार के बहाने खोजने के बजाय हिमाचल दर्शन के लिए बाहरी राज्यों से आने वाले पर्यटकों को इन मेलों से जोड़ना होगा। निमंत्रण कार्डों पर पर्यटकों को आमंत्रित करना और मेलों में बेहतरीन सुविधाएं मुहैया करवाना प्रशासन व सरकार का प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए।

मेला प्रबंधक कमेटियां अगर यह मानती हैं कि जो मनोरंजन बाहरी कलाकार करवा सकते हैं, स्थानीय कलाकार उसके योग्य नहीं हैं तो यह उनकी बड़ी भूल मानी जाएगी। प्रदेश में एक से एक बढ़कर कलाकार व मनोरंजन करने वाली प्रतिभाएं मौजूद हैं। प्रतिभाओं का अंदाजा ‘दिव्य हिमाचल’ द्वारा आयोजित सुर-संग्राम, ‘मिस हिमाचल’ या ‘डांस हिमाचल डांस’ सरीखे कार्यक्रमों से लगाया जा सकता है। प्रदेश की विभिन्न मेला कमेटियां भी प्रदेश में रचे-बसे इस हुनर को तलाशकर इसे मंच प्रदान करें।

ई-मेल : ksthakur25@gmail.com

हिमाचली लेखकों के लिए

लेखकों से आग्रह है कि इस स्तंभ के लिए सीमित आकार के लेख अपने परिचय तथा चित्र सहित भेजें। हिमाचल से संबंधित उन्हीं विषयों पर गौर होगा, जो तथ्यपुष्ट, अनुसंधान व अनुभव के आधार पर लिखे गए होंगे।                                                  

-संपादक


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