सिनेमा में सार्थक पहल अभी बाकी

By: Mar 20th, 2017 12:04 am

डा. देवकन्या ठाकुर

दुनिया भर में फिल्मकारों ने महान साहित्यकारों की कृतियों से प्रेरित होकर कई बेहतरीन फिल्में रची हैं। हमारा फिल्म उद्योग उतना ही पुराना है जितना साहित्य से प्रेरित फिल्मों का निर्माण। भारत की पहली मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र पौराणिक कथा से प्रेरित थी। तब से लेकर आज तक देश में साहित्य प्रेरित सैकड़ों फिल्में रची जा चुकी हैं, लगभग सभी भाषाओं में। प्रेम चंद, भीष्म साहनी, आरके. नारायणन, शरत चंद्र, विमल मित्रा, बंकिम चंद्र, टैगोर, गुलशन नंदा, मिर्जा हैदर से लेकर शेक्सपियर तक। लेकिन किसी पुस्तक की रचना और फिल्म के स्क्रीन प्ले में दिन-रात का फर्क है। पूरी पुस्तक को दो घंटे की फिल्म में बांधना या किसी कहानी को दो घंटे तक ले जाना रोमांचकारी होता है। दो बीघा जमीन, साहिब, बीबी और गुलाम, तमस, आनंद मठ, तीसरी कसम, पाथेर पांचाली, पिंजर, गाइड, अपूर संसार, नील कमल, कटी पतंग, उमराव जान आदि कुछ पुराने नाम हैं, तो आज के परिदृश्य में साहित्य से सिनेमा में रूपांतरित कोर्ट, मिडनाइट चिल्ड्रन, लाइफ ऑव पाई, ओएमजी, ओंकारा, हैदर, स्लमडॉग मिलेनियर उत्कृष्टता के बेहतर उदाहरण हैं।

कितने ही फिल्मी डायलॉग ऐसे हैं जो पवित्र ग्रंथों के श्लोकों की तरह आज भी लोगों की जुबान पर काबिज हैं। विजय आनंद की क्रोनिन के उपन्यास ‘द सिटेडल’ प्रेरित ‘तेरे मेरे सपने’ का डायलॉग ‘याद है मैं नशा करता हूं, नशे में याद करता हूं’ आज भी लोगों को भूला नहीं। इसी तरह नाना पाटेकर का संवाद ‘एक मच्छर भी आदमी को हिजड़ा बना देता है’ या अमजद खान का ‘कितने आदमी थे’ वगैरह जन के मानस में बस गए हैं।  अगर क्षेत्रीय सिनेमा की बात करें तो महाराष्ट्र और बंगाल इस मामले में फला फूला है। गुरुदेव टैगोर की रचनाओं पर कई फिल्में बनी हैं। इसी तरह तमिल, कन्नड़, पंजाबी आदि भाषाओं में बने सिनेमा ने भी अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाई है। चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की 1915 में लिखी कहानी ‘उसने कहा था’ पर मोनी भट्टाचार्य ने 1960 में इसी नाम से फिल्म बनाई थी। ‘तेरी कुड़माई हो गई’ फिल्म और कहानी का यह संवाद  आज भी लोगों की जुबान पर है।

बीआर इशारा और जुगल किशोर ऐसे हिमाचली नाम हैं जिन्होंने दस्तक, चेतना, लाजो, लाल बंगला और अंदाज जैसी हिंदी फिल्में रची हैं लेकिन उन्होंने मुंबई को ही अपना कार्यक्षेत्र बनाया था। खेद का विषय है कि हिमाचली लोक साहित्य पर गिनी-चुनी फिल्में ही बनी हैं। यहां क्षेत्रीय सिनेमा अभी भी अपने पांव पसारने की बाट जोह रहा है। लोगों का बालीवुड सिनेमा की ओर रुझान, क्षेत्रीय सिनेमा में प्रशिक्षण का अभाव तथा सरकार की उदासीनता मुख्य कारण हैं। लेकिन दिव्य हिमाचल प्रकाशन समूह द्वारा ‘कुंजू-चंचलो’ तथा ‘लाजो’ के निर्माण की पहल के बाद संजीव रत्न की पनचक्की, पवन शर्मा की व्रीणा, अजय सकलानी की सांझ और नठ-भज में बेशक हिमाचली पृष्ठभूमि है लेकिन सभी फिल्में   मुंबइया तर्ज पर बनी हैं। मेरी अपनी फिल्म ‘लाल होता दरख्त’ हिमाचल के प्रख्यात साहित्यकार एसआर हरनोट की कहानी पर आधारित है। यह कहानी हिमाचल समेत कई अन्य विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही है। हिमाचली साहित्य और सिनेमा पर अभी ज्यादा नहीं कहा जा सकता। बेशक यहां साहित्य तो समृद्ध है,लेकिन सिनेमा में सार्थक पहल होना अभी बाकी है।

-लेखिका, कवयित्री, फिल्मकार एवं शोधार्थी डॉ. देवकन्या ठाकुर, साहित्यिक तथा सिनेमाई कृतियों से अपनी विशिष्ट पहचान बना चुकी हैं।  दिव्य हिमाचल प्रकाशन समूह द्वारा उपलब्धियों के लिए सम्मानित।


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