अब नहीं दिखता साहित्यिक ‘विजन’

By: Apr 3rd, 2017 12:04 am

एक नवंबर 1966 को भाषा एवं संस्कृति के आधार पर हिमाचल का वर्तमान स्वरूप उभरा था। डा. यशवंत सिंह परमार मुख्यमंत्री और लाल चंद प्रार्थी, भाषा एवं संस्कृति विभाग के मंत्री बने। इसी दौरान भाषा एवं संस्कृति अकादमी का गठन हुआ। प्रार्थी जी ने इसके उत्थान के लिए योजनाएं बनाइर्ं और उनको लागू भी किया। उन्होंने पहाड़ी में लिखने वाले बहुत से लोगों को पुरस्कृत किया। पहाड़ी की पत्रिका ‘हिम भारती’ का प्रकाशन शुरू किया। परमार के मुख्यमंत्रित्व काल और प्रार्थी के भाषा एवं संस्कृति मंत्रित्व काल में हिमाचली भाषा का प्रचार-प्रसार उत्कर्ष पर रहा। यह दोनों राजनेता पहाड़ी संस्कृति और भाषा वोलियों के लिए सजग और सचेत थे। अगर इनको कुछ और समय मिल जाता तो, हो सकता था, पहाड़ी को आठवीं अनुसूची में स्थान मिल जाता और जो इस संदर्भ में खामियां थी, वे दूर हो जातीं।

इस दौरान,जब लेखकों ने साहित्य सृजन किया तो न केवल उनको छापा गया बल्कि पुरस्कृत भी किया गया। इस कारण बहुत सी किताबें छपीं। परमार प्रार्थी और नारायण चंद पाराशर के संयुक्त प्रयत्नों से अकादमी ने पहाड़ी भाषा की हर विधा को सुदृढ़ किया। उस समय ‘काव्य धारा’ के चार भाग छपे। लोक साहित्य के विशेषांक निकले। कहानियां और नाटकों के संकलन भी प्रकाशित हुए। परंतु पिछले 15-20 वर्षों से संस्कृति और भाषा विभाग या अकादमी द्वारा ऐसी संपादित पुस्तकें या अंक नहीं प्रकाशित हो सके हैं। 2009 में मेरे निजी प्रयासों द्वारा साहित्य अकादमी ने हिमाचल प्रदेश ‘प्रतिनिधि काव्य संकलन’ प्रकाशित किया। उसमें 93 लेखकों की रचनाओं को हिंदी अनुवाद सहित स्थान दिया गया। इसी तरह के प्रयासों द्वारा और हिमाचली बोलियों के मोह के कारण नेशनल बुक ट्रस्ट आफ इंडिया ने विशेष योजना के तहत पुस्तकें प्रकाशित की। यह योजना ऐसी भाषाओं के लिए थी जो आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं हैं, परंतु उनमें स्तरीय लेखन हो रहा है।  हालांकि प्रांतीय स्तर पर सरकारी विभाग द्वारा ढिलाई बरती गई है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर बहुत सहयोग मिला है। लेखकों ने साहित्य अकादमी और नेशनल बुक ट्रस्ट आफ इंडिया में  हिमाचली गूंज को पहुंचाया। इससे हिमाचली साहित्य का प्रचार-प्रसार हुआ। हमारे सामने हरियाणा का उदाहरण है, जहां ग्रंथ से लेकर भाषा एवं संस्कृति, पंजाबी, हिंदी और उर्दू भाषा के लिए अलग- अलग अकादमियां  हैं। इसलिए ही वहां भाषा और संस्कृति के साथ- साथ साहित्य और साहित्यकार भी प्रोमोट हो रहे हैं। उसी अनुपात में वहां साहित्यकारों को पुरस्कृत भी किया जा रहा है। जहां हरियाणा में  वार्षिक पुरस्कारों की संख्या 35 से 40 है और हर वर्ष इन्हें वितरित किया जाता है। वहीं हिमाचल में पुरस्कारों की संख्या मात्र चार या पांच है, जो नगण्य है। इन पुरस्कारों को भी पांच से दस सालों तक प्रदान ही नहीं किया जाता है।

इससे अकादमी की निष्क्रियता ही झलकती है। कई बार अकादमी द्वारा यह तर्क दिया जाता है कि वांछित संख्या में पुस्तकें प्राप्त नहीं होती हैं। इस स्थिति में जितनी भी पुस्तकें प्राप्त हों, उनके लेखकों को ही पुरस्कृत कर देना चाहिए। अगर लेखकों को पुरस्कृत नहीं किया जाएगा तो नए लेखक क्यों साहित्य सृजन करेंगे। पुरस्कार का अर्थ है, प्रोत्साहित करना। पुरस्कृत होने से लेखक की जिम्मेदारियां और अधिक बढ़ जाती हैं और वह बेहतर लेखन कर पाता है। सरकार द्वारा अगर प्रोत्साहन नहीं भी मिलता है, तब भी लेखकों द्वारा हर वर्ष किताबें अपने खर्चे पर लिखी जा रही हैं। ऐसा करके वे भाषाओं को बचा रहे हैं। सरकार  द्वारा इतने प्रयत्न नहीं किए जा रहे, जितने कि अपेक्षित हैं। साहित्य को सहेजने के लिए राज्याश्रय आवश्यक है, जिसको सरकार द्वारा नहीं समझा जा रहा है। भाषा के संरक्षण के लिए अन्य प्रांतों की तरह लोक रूचि रखने वाला ऐसा कोई राजनेता नहीं है जो भाषा के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए कार्य करे। कोई भी लेखक राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाता है या सरकारी पद पर आसान है तो उसका यह दायित्व बनता है कि वे भाषा के प्रचार प्रसार के लिए कार्य करे। भाषा और संस्कृति अकादमी में बहुत से योग्य और समर्थवान लोग आसीन रहे हैं, जिन्होंने बहुत अच्छा कार्य किया। जिसमें डा.बंशी राम, डा.सुदर्शन वशिष्ठ इत्यादि का काम भी सराहनीय रहा।

-हिंदी और पहाड़ी के प्रतिष्ठित साहित्यिक हस्ताक्षर प्रत्यूष गुलेरी अपनी शोधपरक किताबों के लिए भी पहचाने जाते हैं।


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