आत्मघात से बच पाएगी कांग्रेस ?

By: Apr 7th, 2017 12:05 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

कांग्रेस पार्टी की कार्यशैली में पांच खामियां स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती हैं और इन्हें बिना वक्त गंवाए दूर करने की महत्ती जरूरत है, लेकिन पार्टी में कोई भी इसको लेकर चिंतित नजर नहीं आता। इस संदर्भ में सबसे पहले तो पार्टी नेतृत्व के स्तर पर विजन और रणनीति दोनों में ही खामियां साफ देखी जा सकती हैं। पार्टी में पर्याप्त प्रतिभा है और पार्टी के पक चुके पुराने दिमाग से चिपके रहने के बजाय परिणाम देने में सक्षम इन योग्य लोगों को आगे बढ़ाना अनिवार्य है…

भारत की स्वतंत्रता के विचार के साथ जन्म लेने वाली बड़ी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस वर्तमान समय में गंभीर निष्क्रियता की शिकार नजर आती है। पार्टी चाहे तो तर्कसंगत फैसले लेकर अपने अस्तित्व को बचाए रख सकती है या ऊटपटांग और विवेकशून्य निर्णय लेकर भारत के राजनीतिक परिदृश्य से गायब भी हो सकती है। इसके पास मौका है कि यह देश में सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में उभर कर सामने आए, लेकिन यह ऐसा कर पाएगी, इसमें भी संदेह ही है। वर्ष 1989 तक जो पार्टी भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में पूरी तरह से हावी रही, वह मौजूदा दौर में एक तरह की आत्मघातक स्थिति में खड़ी दिख रही है। वर्ष 2014 तक पार्टी नियमित अंतराल पर सत्ता को संभालती रही, लेकिन उसके बाद पार्टी ढलान की ओर बढ़ने लगी और 2014-19 के सत्र में विपक्ष की भूमिका में आने के लिए यह निर्धारित न्यूनतम 10 फीसदी सीटें भी नहीं जीत पाई। बहुत बड़े-बड़े मूल्यों की बातें किए जाने के बावजूद यदि हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में पांच में से चार राज्यों में इसे पराजय झेलनी पड़ी है, तो पार्टी के लिए यह निश्चित तौर पर एक बड़ा झटका है। साफ तौर पर पार्टी सही दिशा और एक प्रभावी रणनीति के अभाव का संकट झेल रही है। उत्तर प्रदेश के चुनावी परिणाम भी पार्टी के लिए किसी आपदा सरीखे ही माने जाएंगे। यहां पार्टी की कुल सीटों की संख्या (सात) पिछले चुनावों से भी घट गई है, बल्कि इससे भी बदतर यह कि पार्टी अपने खानदानी गढ़ अमेठी और रायबरेली को भी नहीं बचा पाई। अगर पार्टी में बढ़ती असुरक्षा की हालत यही रही, तो 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के हाइकमान के तहत आने वाले सोनिया गांधी और राहुल गांधी के लिए भी सुरक्षित सीटें ढूंढनी पड़ेंगी। आज पार्टी के समक्ष सबसे बड़ा सवाल यही मौजूद है कि आखिर इस दुर्दशा का जिम्मेदार कौन है? हैरानी यह कि पार्टी में इस सवाल का ईमानदारी से जवाब ढूंढने में टालमटोल करती रही है।

पंजाब में अगर पार्टी फिर से खड़ी हो पाई है, तो इसका श्रेय कैप्टन अमरेंदर सिंह को जाता है। पार्टी अगर चाहे तो इससे सबक ले सकती है। उत्तर प्रदेश के चुनावी अभियान को लेकर कांग्रेस की रणनीति शुरू से ही त्रुटिपूर्ण रही। जनता को खुश करने के लिए राहुल और अखिलेश की जोड़ी ने फिल्मी अंदाज में प्रचार किया, लेकिन किसी ठोस एजेंडे के अभाव में दोनों द्वारा एक-दूसरे का हाथ थामकर प्रचार करना एक तरह की मूर्खता जैसा ही था। कांग्रेस को समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन से बचना चाहिए था, क्योंकि इससे किसी का भी भला होता दिख नहीं रहा था। लेकिन एक के बाद एक हार को झेल रही कांग्रेस की पराजय के इस सिलसिले को तोड़ने के प्रति राहुल इतने कुंठित नजर आए कि वह किसी का भी सहारा लेने को राजी हो गए। यह दूसरी बात है कि इसके बावजूद राहुल कांग्रेस की डूबती नैया को बचा नहीं पाए। सिद्धांतों से परे जाकर बना यह गठबंधन किसी तरह से लाभकारी नहीं हो सकता था, लेकिन पार्टी में किसी ने भी राहुल गांधी को गठबंधन न करने की सलाह नहीं दी। इसी उधेड़बुन में दोनों ही पार्टियों का किला ढह गया। पार्टी की कार्यशैली में पांच खामियां स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती हैं और इन्हें बिना वक्त गंवाए दूर करने की महती जरूरत है, लेकिन पार्टी में कोई भी इसको लेकर चिंतित नजर नहीं आता। इस संदर्भ में सबसे पहले तो पार्टी नेतृत्व के स्तर पर विजन और रणनीति दोनों में ही खामियां साफ देखी जा सकती हैं। पार्टी में पर्याप्त प्रतिभा है और पार्टी के पक चुके पुराने दिमाग से चिपके रहने के बजाय परिणाम देने में सक्षम इन योग्य लोगों को आगे बढ़ाना अनिवार्य है। पूर्वोत्तर में जो कुछ हुआ, वह इसी का नतीजा है कि यहां पार्टी नई प्रतिभाओं का लाभ लेने में विफल रही। यहां तक कि पार्टी नेतृत्व वरिष्ठ नेताओं की पहुंच से भी बाहर हो चुका है, इसलिए इसका मत कुछेक लोगों द्वारा ही प्रभावित होता है। पार्टी जनता के मूड को भी भांपने में असफल रही है। बिना किसी उत्पादक काम के सदन के कई सत्र नकारात्मक राजनीति के कारण व्यर्थ गंवा दिए जाएं, ऐसा जनता कभी नहीं चाहती। आज आंखें मूंदकर सत्ता पक्ष से बदला लेना कांग्रेस की रणनीति बन चुकी है, जबकि अपने दीर्घकालीन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए पार्टी को सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है।

दिल्ली कार्यपालिका के चुनावों को लेकर भी कई वरिष्ठ नेताओं ने आवाज उठाई है कि पार्टी में उनकी आवाज को नजरअंदाज किया गया है और उन्हें पर्याप्त तवज्जो भी नहीं दी गई। कांग्रेस में हाइकमान की संस्कृति को खत्म करके अब पेशेवर संस्कृति को अपनाने की जरूरत है। इसमें नेतृत्व का जिम्मेदार होना अपरिहार्य है। पार्टी की कार्य शैली में दूसरी खामी निर्णय प्रक्रिया या देरी से निर्णय लेने से संबंधित है। इससे मिलता-जुलता उदाहरण गोवा का है। यहां गठबंधन को लेकर अंतिम क्षणों तक हड़बड़ी का माहौल रहा और अंततः सबसे अधिक सीटें जीतने के बावजूद राज्य में पार्टी सरकार नहीं बना पाई। दूसरी ओर भाजपा की कुशलता को देखिए, जिसने दो दिनों के भीतर केंद्रीय मंत्री का इस्तीफा दिलाकर और गठबंधन बनाकर सरकार बना ली। बाद में भाजपा ने सदन में बहुमत भी साबित कर लिया। समीकरणों को साधने में विफल रहने पर अब राहुल या मोइली  इसे चोरी करार दे रहे हैं, जो कि एक बेतुकी प्रतिक्रिया मानी जाएगी। हालांकि इसके लिए केंद्रीय स्तर के नेतृत्व से आदेश आने थे, लेकिन इसने बहुत देरी कर दी। कांग्रेसी नेताओं में तीसरी कमजोरी संचारी कौशल से जुड़ी है। राहुल के नेतृत्व में हर कोई मोदी को नीचा दिखाने को आतुर दिखता है या वे सोचते हैं कि जिस भाषा का इस्तेमाल मोदी के अपमान के लिए किया जा रहा है, वह बड़ी मजाकिया है। मोदी भी कई मर्तबा आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल कर देते हैं, लेकिन अपनी कुशलता के दम पर वह उन्हें भी विश्वसनीय बना देते हैं। हैरानी यह कि दिग्विजय सिंह, कपिल सिब्बल, सूरजेवाला और पूनावाला सरीखे कांग्रेसी नेता मोदी के खिलाफ बेहद निजी, अनुचित और बेमतलब के बयान देते रहे हैं। जनमानस पर तो इसका कोई असर नहीं हुआ, लेकिन पिछले प्रचार अभियान में इन नेताओं ने अपनी विश्वसनीयता खो दी। अब शशि थरूर एकमात्र ऐसे नेता बचे थे, जिनकी जनता में विश्वसनीयता बरकरार थी। इस तरह के अपमानजनक बयानों से दूरी बनाए रखने पर इनकी खूब प्रशंसा भी होती रही है। वह जनता में एक स्वीकार्य आवाज हो सकते थे, लेकिन उनके पास कोई केंद्रीय भूमिका ही नहीं है या यूं कहें कि उनके अनुभव और प्रतिभा को लाभ लेने के लिए पार्टी कभी संजीदा नहीं दिखी। मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव से कह सकता हूं कि प्रतिभाओं की पार्टी में कोई कद्र नहीं होती, क्योंकि यहां पर नए विचारों और क्षमताओं की कोई मांग नहीं है। इसके बजाय परिदृश्य पर राजनीतिक दृष्टि से जी हुजूरी और चापलूस लोग हावी दिखते हैं।

ई-मेलः singhnk7@gmail.com


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