ईला के कत्थक का कायल हर आमोखास

By: Apr 16th, 2017 12:07 am

ईला के कत्थक का कायल हर आमोखाससन् 1960 हरिद्वार आर्डिटोरियम दर्शकों से  खचाखच भरा हुआ था। इसी ऑडिटोरियम के स्टेज पर  हिमाचली बाला ने कत्थक की ऐसी गजब की  प्रस्तुति दी  कि तालियों की गड़गड़ाहट रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। अचानक मुख्यतिथि  आगे आए और उस बच्ची से नाम पता पूछा। जब मुख्यतिथि को प्रदेश का नाम पता चला तो उन्होंने  उस बच्ची को प्यार से दुलारा और जबरदस्त परफार्मेंस पर शाबाशी दी। साथ ही  हैरानी जताई कि हिमाचल की बेटी और इतना बेहतरीन कत्थक, कमाल है। उस समय वह  दस साल की बेटी कोई और नहीं  हाल ही में शिखर सम्मान से सम्मानित ईला पांडे हैं और मुख्यतिथि देश के तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद थे। बाद में  मुख्यतिथि का नाम जान ही पहाड़ी माटी की इस बेटी के लिए उनकी शबाशी टॉनिक बन गई और घंटों रियाज के दम पर आज एक अलग मुकाम बनाकर देश भर  में ईला पांडे के नाम से शोहरत कमा रही हैं। ईला पांडे का कहना है कि ऐसा यादगार एक और किस्सा है जब मैं दस साल की थी, तब 1955 में नई दिल्ली के  सप्रू हाउस में प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के सामने भी संगीत की ताल पर कत्थक का मौका मिलना मेरे लिए किसी अनमोल खजाने से कम नहीं था। पंडित नेहरू को हम तस्वीरों में ही देखते थे, पर एकदम ठीक सामने देखकर परफार्म करना अपने आप में सपना साकार होने जैसा   ही था।  इतना ही नहीं, 1962 में दिल्ली के अशोक होटल में कार्यक्रम के दौरान हिंदी फिल्म सारथी में रोल का ईला पांडे को ऑफर भी मिला । पर हिमाचली बेटी और मायानगरी  मुंबई की सोच में फर्क  पिताजी के सामने किसी पहाड़ की तरह खड़ा हो गया और ईला के पिता जी ने मुंबई  जाने से इनकार कर दिया तथा सलाह दी कि रूपहले पर्दे को भूलकर सिर्फ यथार्थवदी स्टेज को ही अपना साथी बनाओ। आज  वही स्टेज ईला के लिए शोहरत की  नित नई इबारतें लिख रहा है। ईला पांडे हर दिन साढ़े तीन घंटे कत्थक का रियाज करती थीं। तबले की ताल पर साढ़े तीन घंटे हर दिन रियाज करना मुश्किल होता था। पैर दर्द करते थे, पर बुलंद हौसले के दम पर दर्द को दरकिनार कर इसमें  महारत हासिल कर ली हो ईला पांडे ने सबसे ज्यादा मेहनत गायन में की। सुर, लय और भाव को एक साथ एक सूत्र में पिरोना मुश्किल काम था। हालांकि ईला को कत्थक सबसे ज्यादा प्यारा और उत्साही लगता है। ईला पांडे का जन्म 5 सितंबर, 1945 को नाहन में एक राजपूत गोरखा परिवार में हुआ। उनके पिता डा. भगत राम सेना में अधिकारी थे और माता अनुपमा एआईआर जालधंर की एक जानी- मानी कलाकार थीं। ईला की शिक्षा अलग-अलग स्कूलों से हुई। उनके पिता आर्म्ड फोर्सेस चिल्ड्रन स्कूल, अंबाला और फिर एपी मिशन स्कूल देहरादून में तैनात रहे। इस बीच ईला जब महज छह साल की थी, तो उन्होंने देहरादून के नाशविला रोड पर स्थित कृष्ण कला संस्थान में दाखिला लिया। यहां उन्हें जयपुर घराने से संबंध रखने वाले शंकर देव झा गुरु मिले।  नन्ही शिष्या ईला और गुरु झा के बीच चंद दिनों में ही इतना अच्छा तालमेल हो गया कि ईला कत्थक के प्रति पूरी तरह आकर्षित हो गईं।  इसके बाद मुजफ्फरनगर में गुरु बिशन लाल मिश्रा ने ईला की कत्थक कला को और अधिक निखारने में मदद की, लेकिन ईला की कत्थक के प्रति प्यास अभी भी पूरी तरह नहीं बुझी थी। वह इस विद्या को और अधिक जानना चाहती थी। वर्ष 1983 में मुंबई में पंडित चौबे महाराज ने लखनऊ और बनारस घराना कत्थक को लेकर ईला की जिज्ञासाओं को शांत किया। ईला ने  1962 में नाहन आर्ट कालेज में नृत्य प्रवक्ता के तौर पर नौकरी की थी। 1968 में ईला शिमला आ गईं। ईला ने तीन विधाओं गायन, वादन और नृत्य में महारत हासिल की। ईला ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से मास्टर म्यूजिक और ‘प्रवीण’, जो कत्थक में एमए  के बराबर है, की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद भी म्यूजिक प्रभाकर (इक्वल टू बीए इन वोकल म्यूजिक) बीए इन तबला की डिग्री ली। ईला ने तबला अपने मामा बीर सिंह रावत से सीखा। ईला संगीत नाटक अकादमी नई दिल्ली में हिमाचल की नॉमिनी भी रहीं। इसके साथ भाषा कला एवं संस्कृति अकादमी की सदस्य भी रहीं। ईला को हाल ही में शिखर सम्मान से नवाजा गया और उन्हें एक लाख का नकद पुरस्कार दिया गया। पुरस्कार की राशि ईला ने उसी समय मुख्यमंत्री राहत कोष में दान कर दी। ईला वर्तमान में संजौली में थिरकन नाट्य कला अकादमी चला रही हैं, जिसमें अनेकों प्रशिक्षु कत्थक सीख रहे हैं। ईला का कहना है कि पहाड़ से बड़ी कोई भी चुनौती नहीं है और हम पहाड़ी लोग पहाड़ को अच्छी तरह साधना जानते हैं। उनका कहना है कि मकसद हिमाचल की बेटियों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मंच मुहैया करवाकर उन्हें प्रतिभावान बनाना है  ताकि कोई भी बेटियों को कम न समझे।

— अंजना ठाकुर, शिमला

मुलाकात

हिमाचली कलाकारों के लिए आर्थिक मदद की व्यवस्था हो…

जो केवल कत्थक नृत्य से ही आपको मिला?

मैं नहीं कहूंगी कि मैंने बहुत बड़ा मुकाम पा लिया है। मैं जीवन के आखिरी क्षण तक सीखना और सिखाना चाहती हूं।

नृत्य के प्रति आपकी साधना किस आयु से शुरू हुई और कब मालूम हुआ कि जीवन इसी के नाम लिखा जा चुका है?

जब मैं 6 साल की थी, तब मैंने नृत्य सीखना शुरू किया था। 12 साल की आयु में मुझे एहसास हुआ कि नृत्य में ही मुझे आगे जाना है।

नृत्य में शोहरत मिली, तो गायन व वादन ने आपको किस मुकाम तक पहुंचाया ?

नृत्य, गायन और वादन तीनों ही से मिलकर संगीत पूरा होता है। मुझे नृत्य ने पहचान दिलाई तो गायन और वादन से मैंने इस कला को निखारने में मदद ली।

कलाकारों के प्रति हिमाचली समाज के रवैये को कैसे देखती हैं?

हिमाचल में सभी धर्माें और दूसरे राज्य के भी लोग रहते हैं। मुझे लगता है कि सभी कला को बेहद पसंद करते हैं। हालांकि आज के दौर में बालीवुड की ओर सभी का आकर्षण है, लेकिन कला की गरिमा आज भी कायम है। यहां तक कि विदेशों में भी शास्त्रीय संगीत को बेहद पसंद किया जाता है।

माहौल में कहां कमी है और सरकारी तौर पर कहां चूक हो रही है?

स्कूली स्तर पर ही संगीत को सिखाने की व्यवस्था हो तो बच्चों में इस कला को सीखने के लिए उत्सुकता होगी। अभी अधिकतर शिक्षण संस्थानों में संगीत शुरू ही नहीं हो पाया। कई जगह अध्यापक नहीं, तो कई जगहों पर प्रशिक्षित अध्यापक नहीं, जो बच्चो को कला की बारीकियां सिखा सकें।

शिक्षण संस्थाओं में गीत, संगीत व नृत्य अब विषय बन गए, लेकिन छात्रों की हाजिरी दर्ज नहीं हो रही-कारण?

आज के दौर में बच्चों का शास्त्रीय संगीत की ओर रुझान कम हो रहा है। यह चिंतनीय है। बच्चों में कला के प्रति रुझान पैदा हो, इसके लिए विशेष प्रयास करने की आवश्यकता है।

क्या कुछ शिष्यों पर नाज हैं?

मुझे अपने सभी शिष्यों पर नाज है, लेकिन मंडी के दिनेश गुप्ता और शिमला में शनान निवासी विशाल ठाकुर दो ऐसे शिष्य हैं, जो संगीत को आगे ले जाने के लिए जीतोड़ मेहनत कर रहे हैं। इन दोनों ही शिष्यों ने राष्ट्रीय स्तर तक प्रस्तुतियां दी हैं। मेरी एक शिष्या जो अब इस दुनिया में नहीं है, वह भी मुझे याद आती है। वर्ष 1992 में एक सड़क हादसे में उसकी जान चली गई थी। मैंने उसकी याद में वर्ष 1993 में 33 साल के अंतराल के बाद गेयटी में स्टेज शो किया था।

हिमाचली कला क्षेत्र में किन हस्तियों का नाम अदब से लेना चाहेंगी?

मेरे गुरु, जिनसे मैंने एमए किया था सोमदत्त बट्ट, लाल चंद और कैलाश सूद मेरे गुरु रहे हैं।

हिमाचली कलाकार को कौन सी सुविधाएं मिलनी चाहिएं?

सबसे पहले कलाकारों के लिए आर्थिक मदद की व्यवस्था की जानी चाहिए। हिमाचल में टेलेंट की कमी नहीं है, लेकिन पैसों के अभाव में अधिकतर कलाकार आगे नहीं बढ़ पाते। इसलिए कलाकारों के लिए आर्थिक मदद की व्यवस्था की जानी चाहिए।

हिमाचली कला क्षेत्र में कौन सा ख्वाब आपको आगे बढ़ाता रहा है और भविष्य में क्या संभव करना चाहेंगी?

मैं हमेशा सीखना चाहती हूं। मैं चाहती हूं कि जो शिष्य मेरे पास से सीख कर जाएं, वह इतने दक्ष हों कि आगे भी इस कला को शुद्ध रूप में सिखा सकें। मैं अपनी आखिरी सांस तक संगीत को देना चाहती हूं।

हिमाचल की नृत्य शैलियों का आप कैसे मूल्यांकन करेंगी?

मुझे हिमाचली नृत्य बेहद पसंद हैं, लेकिन तकनीकी तौर पर मैंने कभी भी हिमाचल की नृत्य शैलियों की कोई जानकारी नहीं ली। इसलिए कुछ कहा नहीं जा सकता।

जीवन का सबसे बड़ा एहसास और नृत्य में आनंद की सीमा?

जीवन का सबसे बड़ा एहसास वह, जब मैंने पंडित जवाहर लाल नेहरू के सामने करीब पांच साल की आयु में नृत्य किया था। जब हिमाचल सरकार की ओर से मुझे शिखर सम्मान से सम्मानित किया गया, तो मुझे बेहद आनंद प्राप्त हुआ।


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