आग बुझाने के जमीनी रास्ते

By: May 18th, 2017 12:05 am

किशोरी लाल कौंडल लेखक, सेवानिवृत्त वनाधिकारी हैं

जंगलों में आगजनी के दौरान महत्त्वपूर्ण सहयोग करने वाले वन कर्मियों, ग्राम पंचायतों और व्यक्ति विशेष को प्रदेश स्तर पर सम्मानित किया जाना चाहिए। वन रक्षकों के पदों को बढ़ाना चाहिए और प्रोत्साहित करना चाहिए। मात्र सेटेलाइट से आग का पता लगा कर या सड़कों में चक्कर लगाने से आग नहीं बुझती…

हिमाचल प्रदेश प्राकृतिक संसाधनों से सुसज्जित एवं सुंदरता से परिपूर्ण ऐसा पहाड़ी राज्य है, जिसे यदि पहाड़ी राज्यों का सिरमौर कहा जाए तो किसी तरह की अतिशयोक्ति नहीं होगी। हिमाचल प्रदेश का भौगोलिक क्षेत्रफल 55,673 वर्ग किलोमीटर है। कुल वनों वाले भू-भाग का क्षेत्रफल 37,033 वर्ग किलोमीटर है। इस प्रकार प्रदेश का 67% क्षेत्र वनों से ढका हुआ है। प्रदेश के अंदर जहां सारा वर्ष बर्फ से ढकी रहने वाली पर्वत शृंखलाएं हैं, वहीं गहरी घाटियां और समतल क्षेत्र भी हैं। कल-कल कर बहती नदियां, झरने तथा झीलें इसकी सुंदरता को चार चांद लगा देते हैं। प्रदेश के जंगलों में जहां बेशकीमती जीवनरक्षक जड़ी-बूटियां मिलती हैं, वहीं दुर्लभ जंगली जानवर तथा पक्षी इसकी नैसर्गिकता और प्राकृतिक संतुलन को कायम रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। प्रदेश के अंदर प्राकृतिक जोन के मुताबिक विभिन्न प्रकार की प्रजातियों के वृक्ष पाए जाते हैं, जिनमें अधिकतर चील के जंगल ही होते हैं। इन्हीं जंगलों में गर्मियों के दिनों में सबसे अधिक आगजनी की घटनाएं देखने को मिलती हैं। गौरतलब है कि इन जंगलों में लगने वाली आग इतनी भयंकर होती है कि इसकी चपेट में आसपास के दूसरे जंगल भी आ जाते हैं। ये जंगल मुख्यतः जिला हमीरपुर, बिलासपुर, सोलन, सिरमौर, शिमला में हैं। हालांकि शेष जिलों में भी कई जगहों पर ऐसे जंगल मिल ही जाते हैं। अप्रैल माह शुरू होते ही शुरू हो जाता है प्रदेश के जंगलों में आग लगने का सिलसिला, जो साल-दर-साल चलता रहता है। यह भी दीगर है कि कई बार इन जंगलों की आग इतनी भयंकर होती है कि इससे आसपास की बस्तियां भी प्रभावित होती हैं। हालांकि प्रदेश सरकार और वन विभाग हर वर्ष जंगलों में आग की रोकथाम के बड़े पुख्ता दावे करते हैं, परंतु अप्रैल माह आते-आते ये सब दावे हवा हवाई हो जाते हैं।

एक बार जब जंगल में आग लग जाती है तो अमूल्य वन संपदा, दुर्लभ जंगली जानवर, पक्षी और जीवन रक्षक जड़ी-बूटियां राख में परिवर्तित हो जाते हैं। आज के दौर में वन विभाग सेटेलाइट के जरिए यह तो पता लगा लेता है कि आग किस जंगल में लगी है, लेकिन पहाड़ की कठिन भौगिलिक संरचना के कारण वहां तक पहुंचना कोई आसान कार्य नहीं होता। विभाग का काफिला सड़कों पर इधर-उधर भटकता रहता है, लेकिन जंगलों के जिस हिस्से में आग लगी होती है, वहां तक कोई नहीं जा सकता। सब तमाशबीन बन कर रह जाते हैं, जो मात्र औपचारिकताएं और धन के दुरुपयोग के अतिरिक्त कुछ नहीं है। इस तरह की विभागीय लाचारी में पल भर में जंगलों की अमूल्य संपदा राख में तबदील हो जाती है। प्रदेश के अंदर चील के जंगल अधिक हैं, जिनसे बिरोजा निकाला जाता है। चील की पत्तियां अति ज्वलनशील होती हैं। मुख्यतः ये जंगल पहाड़ी ढलानदार होते हैं। इसीलिए इनमें लगी आग को आसानी से बुझाया नहीं जा सकता। हम इस हकीकत से भी भलीभांति परिचित हैं कि गर्मियों के मौसम में प्रदेश भर में आगजनी की घटनाओं से दो-चार होना पड़ेगा। इसके बावजूद हम अब तक इन घटनाओं से निपटने की कोई असरदार नीति नहीं बना पाए हैं। भविष्य में भी हम इन घटनाओं को पूरी तरह से नियंत्रित तो नहीं कर सकते, लेकिन कुछ सावधानियों को अपनाकर इस खतरे को काफी कम कर सकते हैं। इसके लिए फायर सीजन से पहले ही जमीनी स्तर पर स्थायी ठोस उपाय करना ही एकमात्र जरिया है। चील की पत्तियां फरवरी-मार्च से गिरनी शुरू हो जाती हैं, इसलिए फरवरी महीने से वन विभाग को निम्न आपरेशन शुरू कर देने चाहिएं।

सर्वप्रथम जंगल को रिजों और नालों की हदें बना कर छोटे-छोटे ब्लॉकों में विभाजित करना चाहिए। जंगलों की पहाड़ी रिजों से नीचे की ओर झाडि़यां और घास-फूस हटा कर तथा हल्की खुदाई करके 20 फुट चौड़ी अग्नि अवरोधक फायर लाइनें तैयार करनी चाहिएं, ताकि आग एक ब्लॉक से दूसरे ब्लॉक में प्रवेश न कर सके। बनाए गए ब्लॉकों में 200 फुट के फासले पर चार फुट चौड़े इंस्पेक्शन पाथ बनाए जाएं, ताकि जंगल में ऊपर से आने वाले सुलगे हुए चील के कोण इन पाथों पर ही रुक जाएं। इन पाथों को पत्तियों रहित होना चाहिए। कंट्रोल बर्निंग, जो सबसे अनिवार्य है, फरवरी-मार्च से लेकर 15 अप्रैल तक लगातार करते रहना चाहिए। प्रोउनिंग और बुश कटिंग करके मार्च महीने के अंत तक चील के जंगलों से झाडि़यां हटा देनी चाहिएं और चील के सैंपलिंग स्टेज के पौधों की प्रोउनिंग हो जानी चाहिए, ताकि आग उग्र रूप न धारण कर सके। इसके अलावा रास्तों और जंगल से पत्तियां हटाने के लिए क्रेटवायर के पंजेनुमा यंत्र बनाने चाहिएं, जो सुगमता से गिरी हुई पत्तियां साफ कर सकें। जंगल के 50 हेक्टेयर क्षेत्र पर एक फायर वॉचर नियुक्त कर उसकी जिम्मेदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। पंचायतों में शिविर लगा कर युवकों और महिलाओं को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, क्योंकि जन सहयोग के बिना किसी कार्य में सफलता नहीं मिल सकती। उक्त सभी कार्यों में सहयोग करने वाले वन कर्मियों, ग्राम पंचायतों और व्यक्ति विशेष को प्रदेश स्तर पर सम्मानित किया जाना चाहिए। वन रक्षकों के पदों को बढ़ाना चाहिए और प्रोत्साहित करना चाहिए। मात्र सेटेलाइट से आग का पता लगा कर या सड़कों में चक्कर लगाने से आग नहीं बुझती। धरातल पर उक्त कार्य करने अनिवार्य हैं, वरना आग तो यूं ही जंगलों को राख में बदलती रहेगी।

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