गहरे दबाव में हिम संस्कृति

By: May 1st, 2017 12:05 am

आजकल के माता-पिता अपने नन्हे-मुन्नों को जैसे ही वे होश संभालते हैं, उन्हें उनके दादा-दादी और नाना-नानी, जिनके साथ जीवन का विराट अनुभव जुड़ा होता है, से अलग करके अंग्रेजी माध्यम से विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने में भेज देते हैं। यहां से ही वह पड़ाव शुरू होता है, जहां से हिमाचली संस्कृति के भविष्य की तस्वीर धुंधली होनी शुरू होती है। इसी पड़ाव से माता-पिता द्वारा अपने बच्चों को हिंदी भाषा व पहाड़ी बोली से व बोलने वालों से दूर किया जाने लगता है। बच्चों के उन सामाजिक और सांस्कृतिक समारोहों से शिरकत के अवसर सिमटते जा रहे हैं, जिनके माध्यम से वे हमारे सामाजिक व सांस्कृतिक ताने-बाने से परिचित हो सकते हैं। जाने-अनजाने में मां-बाप के कारण, बच्चे को वह समय, जो अपने सामाजिक एवं सांस्कृतिक उत्सवों के माध्यम से  संस्कारों और रीति-रिवाजों को सीखने-सिखाने का होता है, निकल जाता है…

हिम संस्कृति हिम की तरह शांत-शीतल, निर्मल, कोमल और पावन है। नाम के अनुरूप ही यहां का वातावरण, लोग भी उदात्त, सुंदर एवं प्रकृति प्रेमी हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण ऋषि-मुनियों, देवी-देवताओं ने इसे अपनी तपःस्थली के रूप में अपनाया था और इसके साथ देवभूमि के होने का विशेषण जुड़ा था।  प्रकृति द्वारा प्रदत्त अनमोल उपहारों और उसके कारण यहां पर पैदा हुई अनमोल परंपराओं के साथ हिमाचलियों का गहरा अपनत्व बोध रहा है। यह अपनत्व बोध ही हिमाचलवासियों को अपनी थाती को सहेजने-संवारने के लिए प्रेरित करती रही है। प्रकृति और परंपराओं के अनुपम मेल ने हिमाचल को अनमोल बना दिया है। भारत ही क्यों जो भी विदेशी यहां आते हैं, वे यहां की संस्कृति से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। ऐसे ही पर्यटकों के कारण हिमाचल ने  पूरे विश्व में प्रसिद्धि पाई है। यहां के हर घर में देव स्थान, देवी स्थान अवश्य मिलेगा, हर गांव में मंदिर अवश्य है। यहां के लोगों का सहज-सरल व्यवहार भी बाहर से आने वाले लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करता है।

यदि हम हिमाचल की सांस्कृतिक विशेषताओं पर नजर डालें तो यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि यहां पर संबंधों में संवेदनशीलता का स्तर काफी ऊंचा है।  सह अस्तित्व, भ्रातृ-प्रेम, अतिथि सत्कार, त्याग भावना, ईमानदारी, सच्चाई सहनशीलता, देश-प्रदेश प्रेम, प्रकृति प्रेम पूर्वजों का पूजन,नव-सृजन जैसे मूल्यों के प्रति यहां के नागरिकों में हिमाचल में सहज ललक देखने को मिलती है।  यहां के रीति-रिवाज, वेशभूषा, खानपान, देव पूजन, मेले सभी अद्वितीय हैं। यहां की कृषि, पशुपालन, फल-उत्पादन और लघु उद्योगों में भी यहां की संस्कृति के प्रभाव का दर्शन किए जा सकता है। ऐसा कहा जा सकता है कि उदात्त मूल्यों को व्यावहारिकता में तबदील करने की कला भी हिमाचल की एक विशिष्ट थाती और पहचान है।

इस प्रदेश में हर कार्य को शुरू करने से लेकर उसकी समाप्ति तक उदात्त संस्कारों का प्रभाव देखा जा सकता है।  उदाहरणतः अन्न उगाने से पहले जब किसान बीज खेत में डालने से पहले परमात्मा से प्रार्थना करता है। उसके शब्द होते हैं ‘अन्न परमेश्वर आप सभी जीव-जंतुओं के भाग्य से उपजना’ इसमें वह अपने लिए प्रार्थना नहीं करता। इसी तरह भूमि जोतने से पहले बैल, भूमि एवं हल का फल पूजन आदि इसकी संस्कृति के नमूने मात्र हैं। भोजन पकाने-खाने के नियमों की शुचिता के क्या कहने। परंपरागत अनाज के बीज ऐसे थे कि 100 वर्ष बाद बीजने पर भी अंकुरित होते थे। वणा, वसुटी और वरया जैसी औषधीय वनस्पति मनुष्य व कृषि-पशुधन को रोग मुक्त रखती थी। आज की तकनीकें सुविधा केंद्रित होने के कारण प्रकृति विरोधी हो चली हैं, और इसी कारण हिमाचल सदियों में विकसित हुई प्रकृति केंद्रित समझ भी अब भी गहरे दबाव का सामना कर रही है।  उदात्त परंपराएं और मान्यताएं आधुनिकता के चक्र में न केवल विस्मृत हो रही हैं बल्कि विकृत भी हो रही हैं। इनके समक्ष अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। इस संस्कृति के ग्रहण का कारण एक नहीं अपितु अनेक है। इसके लिए भले आधुनिकता, बाहरी राज्यों के लोगों का अतिक्रमण, सरकार के संरक्षण व संवर्द्धन के प्रयासों में उदासीनता को प्रमुख कारण माना जाता हो,परंतु वास्तविकता यह है कि हम लोग ही इससे विमुख होकर इसे घात पहंुचा रहे हैं।

मैंने एक सामान्य ग्रामीण सर्वेक्षण में पाया है कि जो लोग साधन संपन्न हो गए हैं या हो रहे हैं, वे लोग आधुनिकता और फैशन की माया में उलझकर अपनी संस्कृति पर कुठाराघात कर रहे हैं। हमारे बच्चे ही हमारी संस्कृति व रीति-रिवाजों के वाहक होते हैं। वे अपने बड़े-बूढ़ों से सीख कर भविष्य में उन सभी संस्कारों को जीवंत रखते हैं। आजकल के माता-पिता अपने नन्हे-मुन्नों को जैसे ही वे होश संभालते हैं, उन्हें उनके दादा-दादी और नाना-नानी, जिनके साथ जीवन का विराट अनुभव जुड़ा होता है, से अलग करके अंग्रेजी माध्यम से विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने में भेज देते हैं। यहां से ही वह पड़ाव शुरू होता है, जहां से हिमाचली संस्कृति के भविष्य की तस्वीर धंुधली होनी शुरू होती है। इसी पड़ाव से माता-पिता द्वारा अपने बच्चों को हिंदी भाषा व पहाड़ी बोली से व बोलने वालों से दूर किया जाने लगता है। बच्चों के उन सामाजिक और सांस्कृतिक समारोहों से शिरकत के अवसर सिमटते जा रहे हैं, जिनके माध्यम से वे हमारे सामाजिक व सांस्कृतिक ताने-बाने से परिचित हो सकते हैं। जाने-अनजाने में मां-बाप के कारण, बच्चे को वह समय, जो अपने सामाजिक एवं सांस्कृतिक उत्सवों के माध्यम से  संस्कारों और रीति-रिवाजों को सीखने-सिखाने का होता है, निकल जाता है। परिणामस्वरूप आज आप अपने युवाओं में हिमाचली परिवेश से कटाव साफ महसूस कर सकते हैं।  उन्हें पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक एवं मानवीय मूल्यों के प्रति कोई लगाव नहीं है। इस सबका उत्तरदायी कौन है? हमारे बच्चे व युवा नहीं अपितु उनके अभिभावक है। इसके परिणामस्वरूप, दुर्भाग्यवश इसका पहला शिकार उनके मां-बाप ही होते हैं। उन्हें पछतावे व मन-मसोसने के अलावा कुछ भी प्राप्त नहीं होता,क्योंकि उन्होंने ही उन सभी तत्त्वों से अपनी संतान को वंचित किया होता है, जो हमारी सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन का आधार है। हमारा उत्तरदायित्व है कि जिन विशेषताओं से हिम या हिमाचल की संस्कृति की पहचान है। जिन मानवीय मूल्यों के आधार पर इसे देवभूूमि कहा जाता है, उन सभी विशेषताओं एवं मानवीय मूल्यों को हम जीवंत रखें और अपने बच्चों को  पढ़ा-सिखा कर उन्हें इस संस्कृति का वाहक बनाएं, ताकि हम पूर्व की भांति, भविष्य में भी इसके बलबूते पर गौरवान्वित होकर इठलाते रहें।

-डा. रविंद्र कुमार ठाकुर गांव व डाकखाना कोट हटबाड़, सोलन

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