धाम की हिमाचली पहचान

By: May 1st, 2017 12:05 am

कहते है जो हिमाचल घूमने आया और यहां की धाम खाए बिना लौट गया, तो उसका हिमाचल घूमना आधा-अधूरा रह जाता है। हिमाचल में शादियों में बनने वाली धाम का स्वाद उस फाइव स्टार होटल के स्वाद को भी फीका कर देता है।  प्रदेश की अलग-अलग जगहों पर धाम भी अलग-अलग ढंग से बनाई जाती है। कांगड़ी धाम को सबसे बेहतर धाम में गिना जाता है। वहीं कुल्लू की धाम को पारपंरिक तौर पर सबसे पुरानी धाम में गिना जाता है। धाम का मुख्य आकर्षण है, सभी मेहमानों को समान रूप से जमीन पर बिछी पंगत पर एक साथ बैठाकर खाना खिलाना।

खाना आमतौर पर पत्तल पर ही परोसा जाता है और किसी-किसी क्षेत्र में साथ में दोने भी रखे जाते हैं। हिमाचली खाना बनाने, परोसने व खाने की सैकड़ों बरस पुरानी परंपरा के साथ-साथ एक कहावत भी खूब प्रचलित है कि  ‘पूरा चौका कांगड़े, आधा चौका कहलूर, बचा खच्या बाघला, धूढ़ धमाल हंडूर। इसके अनुसार चौके रसोई की सौ प्रतिशत शुद्घता तो कांगड़ा में ही है।

कहलूर (बिलासपुर) क्षेत्र तक आते-आते यह पचास प्रतिशत रह जाती है। बाघल (सोलन) और हंडूर (नालागढ़) क्षेत्र तक आते-आते धूल मिट्टी में जूतों समेत बैठ कर खाना खा लिया जाता है। प्रदेश की राजधानी शिमला के ग्रामीण अंचल से शुरू करें तो यहां माह,उड़द की दाल, चने की दाल, मदरा, सब्जी के रूप में दही में बनाए सफेद चने, आलू, जिमीकंद, पनीर, माहनी, खट्टा में काला चना या पकौड़े, मीठे में बदाणा या छोटे गुलाब जामुन शामिल रहते हैं। परंपरा के मुताबिक सभी पकवान एक निश्चित क्रम से आने चाहिए। मगर समय के साथ थोड़ा बहुत बदलाव कई जगह आ चुका है। चंबा में दोने भी पत्तल का साथ देते हैं। यहां चावल, मूंग साबुत, मदरा, माह, कढ़ी, मीठे चावल, खट्टा, मोटी सेबइयां खाने का हिस्सा हैं।

 यहां मदरा प्रमुख बोटी (खाना बनाने वाली टीम का मुखिया) डालता है। किसी जमाने में बोटी पूरा अनुशासन बनाए रखते थे और खाना-पीना बांटने का सारा काम बोटी ही करते थे। एक पंगत से उठ कर दूसरी पंगत में बैठ नहीं सकते थे। खाने का सत्र पूरा होने से पहले उठ नहीं सकते थे। मगर जीवन की हड़बड़ाहट व अनुशासन की कमी ने बदलाव लाया है। बात करें कांगडा की धाम की, तो यह धाम हिमाचल की धामों में शुमार है। कांगड़ा में चने की दाल, माह, उड़द साबुत, मदरा, दही चना, खट्टा,चने अमचूर, पनीर मटर, राजमा, सब्जी में जिमीकंद, कचालू, बेसन की रेडीमेड बूंदी, बदाणा या रंगीन चावल भी परोसे जाते हैं। यहां चावल के साथ पूरी भी परोसी जाती है। हमीरपुर में दालें ज्यादा परोसी जाती हैं। वहां कहते हैं कि पैसे वाला मेजबान दालों की संख्या बढ़ा देता है।

मीठे में यहां पेठा ज्यादा पसंद किया जाता है, मगर बदाणा व कद्दू का मीठा भी बनता है। राजमा या आलू का मदरा, चने का खट्टा व कढ़ी प्रचलित है। वहीं ऊना में सामूहिक भोज को कुछ क्षेत्रों में धाम कहते हैं, कुछ में नहीं। पहले यहां नानकों- मामकों(नाना-मामा) की तरफ  से धाम होती थी। यहां पत्तलों के साथ दोने भी दिए जाते थे, विशेषकर शक्कर या बूरा परोसने के लिए। यहां चावल, दाल-चना, राजमा, दाल मांश खिलाए जाते हैं। दालें वगैरह कहीं-कहीं चावलों पर डलती हैं, तो कहीं अलग से। यहां सलूणा (कढ़ीनुमा खाद्य) जिसे पलदा भी कहते हैं, खास लोकप्रिय है। यह हिमाचली इलाका कभी पंजाब से हिमाचल आया था, सो यहां पंजाबी खाने-पीने का खासा असर है। बिलासपुर क्षेत्र में उड़द की धुली दाल, उड़द, काले चने, तरी वाले फ्राइ आलू या पालक में बने कचालू, रौंगी, मीठा बदाणा या कद्दू या घिया के मीठे का नियमित प्रचलन है।

 समृद्घ परिवारों ने खाने में सादे चावल की जगह बासमती,मटर पनीर व सलाद भी खिलाना शुरू किया है। सोलन से अर्की तक बिलासपुरी धाम का रिवाज है। उस क्षेत्र से इधर एकदम बदलाव दिखता है। हलवा-पूरी,खूब खाए खिलाए जाते हैं। सब्जियों में आलू गोभी या मौसमी सब्जी होती है। मिक्स दाल और चावल आदि भी परोसे जाते हैं। यहां खाना धोती पहन कर भी नहीं परोसा जाता है। छोटी काशी मंडी  क्षेत्र के खाने की खासियत है सेपू वड़ी, जो बनती है बड़ी मेहनत से और खाई भी बड़े चाव से जाती है। यहां मीठा, मूंगदाल, राजमा, काले चने, खट्टी रौंगी,  आलू का मदरा, दही लगा व झोल खाया व खिलाया जाता है।

– रोहित सिंह चौहान स्वतंत्र लेखक, हमीरपुर

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