फिर से समझें मदनोत्सव

By: May 15th, 2017 12:05 am

एक ऐसे दौर में जब काम से कोमलता गायब हो गई है, संवेदनाएं नेपथ्य में चली गई हैं और उसे एक उपयोगी वस्तु के रूप में परोसा तथा स्वीकार किया जाने लगा है, तो यह आवश्यक हो जाता है कि हम उसे संपूर्णता में समझें। निकृष्ट और उत्कृष्ट के खांचों के बजाय, संतुलन साधने की क्षुरस्य धारा को पहचानें। यह पहचान अपनी परंपराओं के परिचय से प्रारंभ हो सकती है। मदनोत्सव के रूप में हमें एक ऐसी परंपरा का उल्लेख प्राप्त होता है, जो यह बताता है भारतीय समाज मेंे काम के प्रति न तो कुंठा थी और न ही वह लत का शिकार था। इस समाज ने काम की सुकुमारता को सहेज रखा था और समाज में उसको संतुलित स्पेस में भी मिला हुआ था। रत्नावली नामक पुस्तक में मदनपूजा का विषद वर्णन मिलता है। हर्ष चरित में भी मदनोत्सव का वर्णन मिलता है। दशकुमार चरित्र नामक पुस्तक में भी मदनोत्सव का वर्णन किया है। अशोक प्रवृद्ध का यह लेख मदनोत्सव के बारे में एक स्पष्ट अंतःदृष्टि पैदा करता है…

भारतीय पुरातन साहित्य में कामदेव की कल्पना एक अत्यंत रूपवान युवक के रूप में की गई है। कामदेव के पास पांच तरह के बाणों की कल्पना भी की गई है। यह हैं सफेद कमल, अशोक पुष्प, आम्रमंजरी, नवमल्लिका और नीलकमल। कामदेव का धनुष प्रकृति के सबसे ज्यादा मजबूत उपादानों में से एक है। यह धनुष मनुष्य के काम में स्थिरता, चंचलता पैदा करने वाली विरोधीभासी क्षमताओं से युक्त है। इसका एक कोना स्थिरता का और एक कोना चंचलता का प्रतीक होता है। वसंत, कामदेव का मित्र है, इसलिए कामदेव का धनुष फूलों का बना हुआ है। इस धनुष की कमान स्वर विहीन होती है अर्थात कामदेव जब कमान से तीर छोड़ते हैं तो उसकी आवाज नहीं होती। इसका मतलब यह भी समझा जाता है कि काम में शालीनता जरूरी है। तीर कामदेव का सबसे महत्त्वपूर्ण शस्त्र है। यह जिस किसी को बेधता है उसके पूर्व न तो आवाज करता है और न ही शिकार को संभलने का मौका देता है। इस तीर के तीन दिशाओं में तीन कोने होते हैं, जो क्रमशः तीन लोकों के प्रतीक माने गए हैं। इनमें एक कोना ब्रह्म के अधीन है, जो निर्माण का प्रतीक है। यह सृष्टि के निर्माण में सहायक होता है। दूसरा कोना विष्णु के अधीन है, जो उदरपूर्ति, पेट भरने के लिए होता है। यह मनुष्य को कर्म करने की प्रेरणा देता है। कामदेव के तीर का तीसरा कोना महेश, शिव के अधीन होता है, जो मकार अर्थात मोक्ष का प्रतीक है। यह मनुष्य को मुक्ति का मार्ग बतलाता है अर्थात काम न सिर्फ सृष्टि  के निर्माण के लिए जरूरी है, प्रत्युत मनुष्य को कर्म का मार्ग बतलाने और अंत में मोक्ष प्रदान करने का मार्ग भी सुझाता है। कामदेव के धनुष का लक्ष्य विपरीत लिंगी होती है। इसी विपरीत लिंगी आकर्षण से बंधकर पूरी सृष्टि संचालित होती है। कामदेव का रूप इतना बलशाली है कि यदि इसकी सुरक्षा नहीं की गई, तो विप्लव ला सकता है। इसीलिए कवच कामदेव की सुरक्षा से निबद्ध है। यानी सुरक्षित काम प्राकृतिक व्यवहार के लिए आवश्यक माना गया है, ताकि सामाजिक बुराइयों और भयंकर बीमारियों को दूर रखा जा सके। इतिहास कथाओं में कामदेव के नयन, भौंह और माथे का विस्तृत वर्णन मिलता है। उनके नयनों को बाण या तीर की संज्ञा दी गई है। शारीरिक रूप से नयनों का प्रतीकार्थ ठीक उनके शस्त्र तीर के समान माना गया है। उनकी भवों को कमान की संज्ञा दी गई है। ये शांत होती है,लेकिन इशारों में ही अपनी बात कह जाती है। इन्हें किसी संग या सहारे की भी आवश्यकता नहीं होती। कामदेव का माथा धनुष के समान है, जो अपने भीतर चंचलता समेटे होता है, लेकिन यह पूर्णरूपेण स्थिर होता है। माथा पूरे शरीर का सर्वोच्च हिस्सा है, यह दिशा-निर्देश देता है।हाथी को कामदेव का वाहन माना गया है। वैसे कुछ शास्त्रों में कामदेव को तोते पर बैठे हुए भी बताया गया है, लेकिन इसे मूल अवधारणा में शामिल नहीं किया गया है। मादक चाल से चलने वाला हाथी तीन दिशाओं में देख सकता है और पीछे की तरफ हल्की सी भी आहट आने पर संभल सकता है। हाथी कानों से हर तरफ की ध्वनि सुन सकता है और अपनी सूंढ से चारों दिशाओं में वार कर सकता है। ठीक इसी प्रकार कामदेव का चरित्र भी भारतीय पुरातन शास्त्रों में देखने में आता है। यह स्वच्छंद रूप से चारों दिशाओं में घूमते हैं और किसी भी दिशा में तीर छोड़ने को तत्पर रहते हैं। कामदेव किसी भी तरह के स्वर को शीघ्र ही भांपने की क्षमता अर्थात माद्दा भी रखते हैं। संस्कृत के कई प्राचीन ग्रंथों में कामदेव के उत्सवों का उल्लेख अंकित मिलता है। इन उल्लेखों से स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारतवर्ष में वसंत ऋतु उत्सवों का काल हुआ करता था। कालिदास ने अपनी सभी कृतियों में वसंत और वसंतोत्सवों का व्यापक वर्णन किया है। ऐसे ही एक उत्सवं का नाम था मदनोत्सव अर्थात प्रेम प्रदर्शन का उत्सव। यह कई दिनों तक चलता था। राजा अपने महल में सबसे ऊंचे स्थान पर बैठकर उल्लास का आनंद लेता था। इसमें कामदेव के बाणों से आहत सुंदरियां मादक नृत्य किया करती थीं। गुलाल व रंगों से पूरा माहौल रंगीन हो जाया करता था। सभी नागरिक आंगन में नाचते-गाते और पिचकारियों से एक-दूसरे पर रंग फेंकते। इसके लिए कालिदास के कुमारसंभव में श्रंगक शब्द का इस्तेमाल हुआ है। नगरवासियों के शरीर पर शोभायमान स्वर्ण आभूषण और सिर पर धारण किए हुए अशोक के लाल फूल इस सुनहरी आभा को और भी अधिक बढ़ा देते थे। युवतियां भी इसमें शामिल हुआ करती थीं। इस जलक्रीड़ा में वह सिहर उठतीं, ‘श्रंगक जल प्रहार, मुक्तसीत्कार मनोहरं’, महाकवि कालिदास के कुमारसंभव में ही कामदेव से संबंधित एक रोचक कथा का उल्लेख मिलता है। इस कथा के अनुसार भगवान शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था तब कामदेव की पत्नी रति ने जो मर्मस्पर्शी विलाप किया, उसका बड़ा ही जीवंत वर्णन इसमें अंकित मिलता है। अशोक वृक्ष के नीचे रखी कामदेव की मूर्ति की पूजा का भी उल्लेख मिलता है। सुंदर कन्याओं के लिए तो कामदेव प्रिय देवता थे। कालिदास की रत्नावली में भी यह उल्लेख है कि अंतःपुर की परिचारिकाएं हाथों में आम्रमंजरी लेकर नाचती गाती थीं। यह इतनी अधिक क्रीड़ा करती थीं लगता था मानों इनके स्तन भार से इनकी पतली कमर टूट ही जाएगी। मदनोत्सव का वर्णन कालिदास ने विषद रूप में अपने ग्रंथों में किया है। ऋतु संहार के षष्ठ सर्ग में कालिदास ने वसंत का बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया है। कुछ उदाहरण देखिए। इन दिनों कामदेव भी स्त्रियों की मदमाती आंखों की चंचलता में, उनके गालों में पीलापन, कमर में गहरापन और नितंबों में मोटापा बनकर बैठ जाता है। काम से स्त्रियां अलसा जाती हैं। मद से चलना बोलना भी कठिन हो जाता है और टेढ़ी भौंहों से चितवन कटीली जान पड़ती है। मदनोत्सव ही बाद में शांति निकेतन में गुरुदेव के सान्निध्य में दोलोत्सव में रूप में मनाया जाने लगा है। कामदेव के पुजारियों के अनुसार कृष्ण ने रासलीला के रूप में इस उत्सव को एक नया आयाम दिया। भवभूति अनुसार वसंतोत्सव मनाने के लिए विशेष मदनोत्सव केंद्र बनाया जाता था, जिसके केंद्र में कामदेव का मंदिर होता था। इसी मदनोत्सव में सभी स्त्री, पुरुष एकत्र होते फूल चुनकर हार बनाते, एक-दूसरे पर अबीर, कुमकुम डालते और नृत्य संगीत आदि का आयोजन करते थे। बाद में वह सभी मंदिर जाकर कामदेव की पूजा करते थे। संस्कृत साहित्य के नाटक भास के चारूदत्त में भी इसी प्रकार के एक उत्सव का उल्लेख मिलता है। इसमें कामदेव का एक भव्य जुलूस गाजे-बाजों के साथ निकाला जाता था, जिसमें कामदेव के एक चित्र के साथ संगीत नृत्य करते हुए अनेक नागरिक सम्मिलित होते हैं। यहीं यह उल्लेख भी मिलता है कि गणिका वसंत सेना की नायक चारुदत्त से पहली मुलाकात कामोत्सव के समय ही हुई थी। इसी प्रकार मृच्छकटिकम नाटक में भी वसंत सेना इसी प्रकार के जुलूस में भाग लेती है। एक अन्य पुस्तक ‘वर्ष क्रिया कौमुदी’ के अनुसार इसी त्योहार में सुबह गाने-बजाने, कीचड़ फेंकने के कार्य संपन्न किए जाते हैं। सायंकाल सज्जित होकर लोग मित्रों से मिलते हैं। सात दिनों तक गालियों का आदान-प्रदान किया जाता है। भविष्य पुराण के अनुसार वसंत काल में कामदेव और रति की मूर्तियों की स्थापना और पूजा-अर्चना की जाती है। रत्नावली नामक पुस्तक में मदनपूजा का विषद वर्णन मिलता है। हर्ष चरित में भी मदनोत्सव का वर्णन मिलता है। दशकुमार चरित्र नामक पुस्तक में भी मदनोत्सव का वर्णन किया है। इस त्योहार पर राजा और आम नागरिक सभी बराबर हैं। संस्कृत की पुस्तक कुट्टनीमतम् में भी गणिका और वेश्याओं के साथ मदनोत्सव मनाने का विषद वर्णन है।

-अशोक प्रवृद्ध, करमटोली, गुमला नगर, झारखंड

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